रंजीत प्रसाद सिंह
जमशेदपुर : पिछले 34 घंटों में शहर दशकों पीछे चला गया है. वह शहर, जिसकी हवा में सुकून की सांस थी, बोली में मिठास थी, अहसास में प्यार था, बातें अमन की थीं, चाहत तरक्की की, अचानक बदल सा गया. बदला क्या, बिखर सा गया. पता नहीं इसे समेटने में कितने साल लग जायें. पर समेटेगा कौन. वह शख्स जो मेरे घर पिछले पर्व मुंह मीठा कर गया, उसके हाथों ने आज मेरे ही घर पर पत्थर दे मारे. मुझमें-उसमें बात क्या हुई, जो खाई सी बन गयी. बात हुई भी होगी, तो चंद उचक्कों के बीच. जिनका ना कोई धर्म है, ना ईमान. फिर हम सबने अपना धर्म, अपना ईमान क्यों खो दिया. क्यों खड़ी कर ली नफरत की दीवार. सालों-साल से जिस भाईचारे को हमने सींचा, एक-दूसरे के पर्वो में शरीक हुए, आपस में खुशियां बांटी, कई बार गम भी बांटे, वह कैसे चंद मिनटों में काफूर हो गया.
क्यों नहीं सोचा कि जो पत्थर मैंने फेंका है, वह अपने ही किसी भाई का सिर फोड़ेगा, उसके खून का रंग भी लाल ही है. यह क्यों नहीं सोचा कि जो शहर अपनी मेहनतकशी और अनेकता में एकता के लिए सालों से जाना जाता है, वह चंद मिनटों में नफरत के सौदागरों के लिए जाना जाने लगेगा. सोचा होता, तो ऐसा नहीं होता,जो हुआ, या जिसके आगे होने की भी आशंका है. तो इससे पहले कि भला-बुरा सोचना छोड़ दें, इंसान को इंसान समझना छोड़ दें, हमें इंसानियत सुबूत देना होगा. ऐसे लोगों को सामने आना होगा जो, अमन पसंद हैं. वह चाहे किसी भी धर्म के हों, किसी भी वर्ग के. आम दिनों में जो भी शहर के रहनुमा बनते फिरते हैं, आज वे खामोश क्यों हैं.
क्यों शहर को सुलगते मूकदर्शक बने देख रहे हैं. क्यों नहीं आगे आते हैं, और रोक लेते हैं हर वह हाथ जिसने पत्थर थाम रखा हो. इतना ना सही, अमन कायम करने में प्रशासन का सहयोग तो करें, हाथ तो बढ़ायें. ऐसे नाजुक वक्त में जब भरोसे की एक पतली लकीर भी बड़ा काम कर सकती है, कुछ लोग अफवाहों को हवा देने में लगे हैं. यह ना भूलें कि यह अफवाह की आग एक दिन आपका घर भी फूंक सकती है. तो आइये इस सुंदर शहर को बदसूरती से बचायें, और इस पर कोई बदनुमा दाग ना लगे इसकी हर संभव कोशिश करें.