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मुखौटों की मुस्कुराहट के पीछे बेतहाशा दर्द

जमशेदपुर: किसी कला के सिमटते चले जाने का दर्द, उस कला को अपनी पूरी उम्र दे देने वाले कलाकार से बेहतर कोई समझ नहीं सकता. सरायकेला से बमुश्किल पांच से छह किलोमीटर दूर टेंटोपोसी गांव में रहनेवाले छऊ मुखौटा बनाने वाले कलाकार दिलीप कुमार आचार्य पिछले 35 वर्षों से इस कला से जुड़े हैं. पुश्तों […]

जमशेदपुर: किसी कला के सिमटते चले जाने का दर्द, उस कला को अपनी पूरी उम्र दे देने वाले कलाकार से बेहतर कोई समझ नहीं सकता. सरायकेला से बमुश्किल पांच से छह किलोमीटर दूर टेंटोपोसी गांव में रहनेवाले छऊ मुखौटा बनाने वाले कलाकार दिलीप कुमार आचार्य पिछले 35 वर्षों से इस कला से जुड़े हैं. पुश्तों से यह काम उनके परिवार के लोग करते आ रहे हैं. पर वे नहीं चाहते कि उनका बेटा दीपक इस पुश्तैनी कला को आगे बढ़ाये. उन्हें अपने बेटे की भविष्य की चिंता है. मिट्टी का बना उनका छोटा सा घर, टूटे-फूटे खपरैल इसके पीछे के कारणों को बयां करते हैं.

राजा-महाराजाओं के समय से चला आ रहा छऊ आज वक्त की तेज रफ्तार में दम तोड़ता दिख रहा है. दिलीप आचार्या बताते हैं कि अगर वे पूजा-पाठ के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाना बंद कर दें, तो उनका परिवार भूखों मरेगा. छऊ के मुखौटे उन्हें मान तो दे सकते हैं, पर उनका और उनके परिवार का पेट नहीं भर पा रहे. वे बताते हैं कि वे छऊ के मुखौटे विभिन्न अकादमी या संस्थाओं को 150 रुपये में बेचते हैं. यही मुखौटे दिल्ली या देश के अन्य बाजारों में 1000 से 1500 रुपये में बेचे जाते हैं. पर हमें इसकी सही कीमत कभी भी नहीं मिल पाती. दिलीप आचार्या ना सिर्फ छऊ के मुखौटे बनाते हैं बल्कि बच्चों को छऊ नृत्य भी सिखाते हैं. उस क्षेत्र के कई गांवाें की छऊ टीम दिलीप आचार्या ने तैयार की है. पर गौरवशाली अतीत की कहानी अब धुंधली पड़ती दिखती है. दिलीप बताते हैं कि अब साल में एक बार सिर्फ इन गांवों में छऊ खेला जाता है. अब छऊ कलाकार नहीं मिलते, वे मजदूरी करने बाहर चले गये हैं.

यह पूछे जाने पर की क्या छऊ की कला आपके परिवार में आपकी पीढ़ी तक ही दम तोड़ देगी, दिलीप अपने बेटे दीपक को आवाज देते हैं. दिलीप का गला रुंधा हुआ है, कुछ बोल नहीं पाते. दीपक जो सरायकेला के केसी साहू काॅलेज में अंग्रेजी ऑनर्स कर रहा है, कहता है मेरे पिता ने बचपन से मुझे इस कला से दूर रखा. वे नहीं चाहते कि जो फांकाकशी की जिंदगी उन्होंने या अब तक हमारे परिवार ने जी है, वह आगे भी बनी रहे. तमाम तकलीफ के बावजूद वह मुझे पढ़ाने में लगे हैं, ताकि कुछ ढंग का काम मिल जाये. इस कला में सम्मान तो है, पर कोई इसके बारे में नहीं सोचता. चंद लोग इस कला के नाम पर फायदा उठा रहे हैं, और इसके असली किरदार किसी तरह अपना गुजारा चला रहे.

दिलीप आचार्या की हिम्मत लौटती है. वे बताते हैं कि सरकार ने छऊ के लिए काफी कुछ किया है. छऊ के कई कलाकारों को पद्मभूषण, पद्मश्री समेत तमाम अवार्ड मिले हैं, लेकिन मुखौटे को तैयार करने वाले उनके जैसे कलाकार की कोई पूछ नहीं है, जिसके बगैर छऊ नृत्य ही पूर्ण नहीं हो
सकता है. हर शैली में इस तरह के मुखौटे की जरूरत होती है. हर शैली के कलाकार उनसे ही मुखौटा ले जाते हैं. लेकिन उनकी कला को देखने वाला तक कोई नहीं है.

उनका मानना है, सरकार इस ओर कोई पहल करे तो बात बने. कोल्हान विश्वविद्यालय में छऊ की पढ़ाई की बात सुनने में आयी थी, लेकिन इस पर भी अब तक कुछ नहीं हुआ. एक कला की मौत एक युग की मौत के समान होता है, सरकार चाहे तो इस असामयिक मौत को रोक सकती है.
छऊ में भी प्रयोग जरूरी
छऊ मुखौटों को बनाने में 60 फीसदी लुगदी और 40 फीसदी कपड़ों का इस्तेमाल होता है. ऐसा छऊ मुखौटों को हल्का बनाये रखने के लिए किया जाता है. समय के साथ-साथ छऊ में भी प्रयोग हुए और मुखौटों में भी. पहले की तुलना में मुखौटों के रंग चटक हुए हैं और आकर्षक भी. दिलीप आचार्या बताते हैं कि अच्छी बात यह है कि कुछ स्कूल छऊ को प्रोत्साहित कर रहे हैं. सरायकेला के एक निजी स्कूल ने अपने बच्चों को छऊ के जरिये पर्यावरण पर आधािरत एक नाटक का मंचन करवाया. जिसमें उस नाटक की डिमांड के हिसाब से मैंने मुखौटे तैयार किये. ऐसे प्रयोग होने चाहिए.

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