झारखंड के बिदू-चांदान की प्रेम कहानी ने संताली समाज को दी ओलचिकी लिपि, अब होती है पूजा
Valentine Day Special: झारखंड के बिदू-चांदाना की प्रेम कहानी ने संताली समाज को ओलचिकी लिपी की सौगात दी. कभी समाज उनके प्रेम का विरोधी था. आज लोग इन्हें विद्या की देवी और देवता के रूप में पूजते हैं.
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Valentine Day Special| जमशेदपुर, दशमत सोरेन : 14 फरवरी को दुनिया वेलेंटाइन डे मनाती है. प्रेम के प्रतीक संत वेलेंटाइन की स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है. दुनिया को प्रेम का संदेश देने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी. ऐसी ही एक अमर प्रेम कहानी आदिवासी संताल समुदाय में बिदू-चांदान की कहानी काफी प्रचलित है. यह समुदाय विद्या के देवी-देवता के रूप में चांदान और बिदू की पूजा-अर्चना करते हैं.
बिदू-चांदान की प्रेम कहानी
बिदू-चांदान को भी दुनिया वाले कभी एक होने नहीं देना चाहते थे, लेकिन प्रेम को कभी कोई रोक पाया है भला? वे एक-दूसरे से दूर रहकर भी मुलाकात और बातचीत कर लेते थे. जब उनकी मुलाकात नहीं हो पाती थी, तो वे चित्र लिपि में लिखकर बातचीत कर लेते थे. वे अपनी बातें पेड़ या पत्थर पर चित्र लिपि (सांकेतिक लिपि) में उकेर देते थे. उस चित्र लिपि को उनके अलावा दूसरा कोई नहीं समझ पाता था. बाद में यही चित्र लिपि संतालों की ओलचिकी लिपि बनी और उनकी आंखें खोल दी.
जिस तरह संत वेलेंटाइन ने अपनी अंधी प्रेमिका को अपनी आंखें दान करके उसे पूरी दुनिया दिखा दी, उसी तरह बिदू-चांदान की प्रेम कहानी में उकेरी गयी चित्र लिपि ने पूरे संताल समुदाय को एक लिपि दी. संताल समाज के लिए गौरव की बात है कि आज उनकी मातृभाषा संताली की लिपि, चित्र लिपि से शुरू होकर ओलचिकी बनने तक का सफर तय किया और भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल हो गया.
सामाजिक बदलाव का प्रतीक और पहचान बनी बिदू-चांदान की प्रेम कहानी
बुजुर्गों की मान्यताओं के अनुसार, आदिवासी समाज के दो प्रमुख गढ़, चायगाढ़ और मानगाढ़ की पुरानी दुश्मनी को समाप्त करने के लिए लिटा गोसाई ने बोंगा दिशोम (देव लोक) से बिदू और चांदान को धरती पर भेजा. बिदू का जन्म बाहागढ़ के घने जंगलों में हुआ, जबकि चांदान चायगाढ़ के मांझी बाबा के घर पैदा हुईं. एक दिन बिदू घूमते-फिरते चायगाढ़ पहुंचा और वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हुआ. इसी दौरान, बिदू और चांदान के बीच प्रेम हो गया, लेकिन चायगाढ़ के लोगों और चांदान के पिता को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन्होंने बिदू की पिटाई कर दी. किसी तरह बिदू उनके चंगुल से बचकर जंगल की ओर भाग निकला.
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चायगाढ़ के लोगों ने उसका पीछा किया, लेकिन वह दिखाई नहीं दिया. लोगों ने मान लिया कि वह मर चुका है. जबकि, भागते हुए बिदू ने पत्थरों पर एक विशेष लिपि में संदेश लिखा कि वह सुरक्षित है और कहां छिपा है. यह लिपि केवल चांदान समझ सकती थी, क्योंकि दोनों ने अपनी बातचीत और विचारों के आदान-प्रदान के लिए इस लिपि का आविष्कार किया था. जब चांदान ने पत्थरों पर लिखे संकेत पढ़े, तो वह समझ गयी कि बिदू जीवित है और कहां पर है. इसके बाद दोनों का पुनर्मिलन हुआ और इसी ऐतिहासिक घटना से संताल आदिवासी समाज में ओलचिकी लिपि की शुरुआत हुई. यह प्रेम कहानी न केवल सामाजिक बदलाव का प्रतीक बनी, बल्कि आदिवासी समाज को अपनी पहली मौलिक लिपि भी प्रदान की, जो आज भी उनकी पहचान बनी हुई है.
ओलचिकी के जनक पंडित रघुनाथ मुर्मू बिदू-चांदान की करते थे पूजा
ओलचिकी के जनक पंडित रघुनाथ मुर्मू विद्या के देवी-देवता के रूप में चांदान और बिदू की पूजा करते थे. उन्होंने बिदू-चांदान के द्वारा उकेरी गयी चित्र लिपि का विस्तार कर ओलचिकी लिपि का अविष्कार किया. उन्होंने संताली भाषा की ओलचिकी लिपि को आगे बढ़ाने व जन-जन तक पहुंचाने के लिए काम किया. उन्होंने अनेकों किताबें लिखी, जिसमें अल चेमेद, परसी पोहा, रोनोड़, ऐलखा हितल, बिदू चांदान, खेरबाड़ वीर आदि प्रमुख हैं. गुरू गोमके ने ओलचिकी लिपि जन-जन तक पहुंचाने के लिए इतुन आसड़ा (शिक्षण केंद्र) की स्थापना की.
राजनगर के जामजोड़ा बाहा डुंगरी में हुई बिदू-चांदान की पूजा
गुरू गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू का मानना था कि विद्या के देवी-देवता चांदान-बिदू की प्रेरणा से ही उन्होंने संतालों की मातृभाषा संताली की लिपि ओलचिकी की खोज की. संताल समाज के लोगों ने गुरू गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू के बताये व दिखाये मार्ग का अनुसरण किया. वे भी विद्या के देवी-देवता के रूप में बिदू-चांदान की पूजा-अर्चना करते हैं. सरायकेला जिले के राजनगर प्रखंड अंतर्गत जामजोड़ा बाहा डुंगरी में मंगलवार को माघ पूर्णिमा के दिन संताल समुदाय के लोगों का महाजुटान हुआ. संतालों ने पारंपरिक रीति-रिवाज से अपने विद्या के देवी-देवता बिदू-चांदान की सामूहिक पूजा-अर्चना की. यहां प्रतिवर्ष विद्या के देवी-देवता बिदू-चांदान की माघ पूर्णिमा के दिन पूजा-अर्चना की जाती है. जामजोड़ा में तीन दिवसीय सामूहिक पूजा-अर्चना व गोष्ठी समेत अन्य कार्यक्रमों का आयोजन होता है.
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