पश्चिम बंगाल से मिलता जुलता है जामताड़ा का रीति-रिवाज
26 अप्रैल 2001 को दुमका जिला के चार प्रखंड कुंडहित, नाला, जामताड़ा, और नारायणपुर को अलग कर दुमका से अलग होकर जामताड़ा को जिला बनाया गया था. जो पहले सब डिवीज़न था.
विद्या सागर
शिक्षाविद, करमाटांड़
जामताड़ा का नाम जाम और ताड़ा शब्द से बना है . संथाली भाषा में ‘जाम’ का अर्थ सांप होता है. और ‘ताड़ा’ का अर्थ ‘आवास’ होता है . ये नाम इसलिए रखा गया, क्योंकि जामताड़ा जिला में सांप बहुत ज्यादा संख्या में पाया जाता है. 26 अप्रैल 2001 को दुमका जिला के चार प्रखंड कुंडहित, नाला, जामताड़ा, और नारायणपुर को अलग कर दुमका से अलग होकर जामताड़ा को जिला बनाया गया था. जो पहले सब डिवीज़न था. जामताड़ा जिला की सभ्यता और संस्कृति बहुत हद तक पश्चिम बंगाल की संस्कृति से मिलता जुलता है.
क्योंकि ये जिला पश्चिम बंगाल के नजदीक पड़ता है. जिला में रहने वाले अधिकांश लोग हिन्दू हैं. यहाँ हिन्दी भाषा के अलावा बंगाली, संताली, खोरठा और उर्दू भाषा बोली जाती है. जामताड़ा जिला के रीति- रिवाज अन्य जिलो की तरह ही है. यहां दशहरा, दीपावली, सरस्वती पूजा, होली जैसे बड़े त्योहार को बहुत ही धूम – धाम से मनाया जाता है . यहाँ के लोग चावल, रोटी के साथ दाल खाना ज्यादा पसंद करते हैं.
परंतु अन्य जिलों से पृथक जामताड़ा जिले का स्वतंत्र सामाजिक रीति रिवाज और प्रथा है . जामताड़ा के आदिवासी की सामाजिक प्रथा और रीति रिवाज प्रकृति से जुड़े होते हैं . शादी, पूजा,त्योहार सभी में प्रकृति प्रेम की झलक दिखाई पड़ती है . इनका सोहराय या बंदना पर्व अनूठा होता है. संथाल समाज का ये पर्व कई नामों से प्रचलित है, संथाल समाज इसे हाथी लिकन (हाथी के समान) कहते हैं.
शगुन सोहराय प्रत्येक वर्ष जनवरी माह के दूसरे सप्ताह यानी पौष माह में धान की फसल कटने के बाद मनाया जाता है. यह पर्व पांच दिनों तक मनाया जाता है,जिसमें आदिवासी समाज प्रकृति की पूजा करते हैं और उन्हें नयी फसल का प्रसाद चढ़ाते हैं. इसी खुशी में वे सामूहिक रूप से सम्मिलित होकर पूरा गांव नाचते गाते हैं.
पांच दिवसीय पर्व शगुन सोहराय में पूजा के प्रत्येक दिन के अलग अलग नाम हैं और उनके अलग अलग विधान हैं.शगुन सोहराय के पहले दिन को उम कहा जाता है. पहले दिन आदिवासी समाज इस पर्व के शुरुआत में स्नान करते हैं. इसके बाद कृषि से संबंधित सभी औजारों को साफ करते हैं.इसके अलावा घरों को भी साफ सुथरा कर गोबर से लिपाई करते हैं. साथ ही घर में गेहल पूजा करते हैं.इस पर्व के दूसरे दिन को बोगान कहा जाता है, इस दिन बलि देने की प्रथा है. इसमें आदिवासी समाज सात मुर्गे की बलि देते हैं. पर्व के तीसरे दिन को खुटाउ कहा जाता है.
इस दिन बैल को बांधकर उसको सजाकर पूरे गांव में घूमाया जाता हैं. इसके अलावा पर्व के चौथे दिन को जाली कहा जाता है. इस दिन आदिवासी समाज एक दूसरे के प्रत्येक घर-घर जाकर नाचते सम्मिलित होकर नाचते गाते हैं. शगुन सोहराय के पांचवे दिन को हाको कटकोम कहा जाता है. इस दिन गांव के तालाब से मछली पकड़ने का रिवाज है. जिसमें घर के सदस्यों द्वारा मछली पकड़ कर लाया जाता है. इसके बाद पर्व के अंतिम दिन शिकार खेलने की परंपरा है.
मकर संक्रांति के दिन शिकार के साथ यह पर्व समाप्त हो जाता है. जामताड़ा में हिन्दू धर्म के लोग कई वर्षो से दुखिया बाबा मेला का आयोजन उमंग और उत्साह से उसमें भाग लेते रहे हैं . जामताड़ा के नारायणपुर प्रखंड से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित दुखिया बाबा मंदिर में लगेनवाले मेला को करमदाहा मेला के नाम से जाना जाता है. मेला बराकर नदी के तट पर लगता है. करमदाहा नाम के संबंध में बताया जाता है कि बराकर नदी के घाट पर एक दह है. पूर्व में यह कहा जाता था कि इस दह में स्नान करने से बुराई का नाश हो जाता है.
जिस कारण इसका नाम करमदाहा पड़ा. यह भी कहा जाता है कि इस स्थान पर बराकर नदी के एक दह जहां लोग करमडाली को बहाने आते थे. इसी करण इसका नाम करमदाहा पड़ा एवं इस स्थान पर लगनेवाले मेला का नाम करमदाहा मेला. इस्लाम धर्म मानने वाले जामताड़ा में मुस्लिम के द्वारा मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं. इस दिन शिया समुदाय के लोग मातम करते हैं. मजलिस पढ़ते हैं, काले रंग के कपड़े पहनकर शोक मनाते हैं. ताजिया में हिंदू , मुस्लिम , सिख और ईसाई सभी धर्म के लोग भाग लेते हैं.
इस पर्व में आपसी भाईचारा और प्रेम सड़कों पर हुजूम के रूप में दिखता है. अपने अपने धर्म के अनुसार जामताड़ा के सामाजिक प्रथा और रीति रिवाज भले ही अलग हों पर सबका मकसद समाज के लोगों में उमंग और उत्साह के साथ आपसी प्रेम और भाइचारा को निभाना है. परंतु आदिवासी के रीति रिवाज आज सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो प्रकृति की रक्षा कर पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं.