आदिवासी समुदायों का जंगल-स्नान और हम सब
जंगल की हरियाली, पत्तों-फूलों के विविध रंगों, फलों, फूलों की सुगंध, पेड़ों की डालियों से छनकर आती किरणें, धूप-छाया का प्रभाव हमारे सभी ज्ञानेंद्रियों– कान, नाक, आंख, जीभ और त्वचा के अलावा मन को प्रभावित करती रहतीं है. वैज्ञानिक बताते हैं कि जंगल में घूमने को जंगल-स्नान (फॉरेस्ट-बाथ) कहते हैं.
महादेव टोप्पो: अक्सर हम देखते हैं कि बच्चों की छुट्टी होते ही अभिभावक कहीं पहाड़ों की ओर जाने का कार्यक्रम बना रहे होते हैं. आखिर सभी को पहाड़, जंगल की ओर जाने की, देखने की बेचैनी क्यों होती है? शायद, इसलिए कि हम मनुष्य होते हुए भी प्रकृति के अविभाज्य अंग हैं और उससे जुड़े रहने की अज्ञात प्रेरणा हमें अपने मूल-स्रोत की ओर खींचती रहती है.
जंगल-स्नान क्या है – आदिवासी समुदाय अधिकांश अवसरों पर जंगल में जीवन जीता रहा है अतः, वह इसकी खूबियों से परिचित है और जीवन में इसका उपयोग करता रहता है. पत्ते, फूल, फल, लकड़ी, शहद, कंद-मूल, औषधि उसे जंगल से मिलते रहे हैं. इसके अलावा पक्षियों की चहचहाट, पेड़ के पत्तों की सरसराहट, सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट, नदियों, झरनों की आवाजें- मनुष्य के मन और शरीर में कई तरह के शारीरिक, मानसिक ही नहीं आध्यात्मिक प्रभाव डालते हैं.
जंगल की हरियाली, पत्तों-फूलों के विविध रंगों, फलों, फूलों की सुगंध, पेड़ों की डालियों से छनकर आती किरणें, धूप-छाया का प्रभाव हमारे सभी ज्ञानेंद्रियों– कान, नाक, आंख, जीभ और त्वचा के अलावा मन को प्रभावित करती रहतीं है. वैज्ञानिक बताते हैं कि जंगल में घूमने को जंगल-स्नान (फॉरेस्ट-बाथ) कहते हैं और यह जंगल-स्नान हमें अनेक प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा से लबालब करता है. जापान में जंगल-स्नान को स्वास्थ्य-लाभ हेतु काफी महत्व दिया जाता है. परंतु, दुनिया भर में जंगल के प्रति धन-लोलुप लोगों द्वारा फैलायी गयी नकारात्मक बातों के कारण अधिकांश लोग जंगल की अच्छाइयों से परिचित नहीं हैं.
रंगों का प्रभाव – लाल रंग शरीर को स्वस्थ व पुष्ट रखता है. यह पौरुष और आत्मगौरव का भी प्रतीक माना जाता है. यह शौर्य और सृजन और जीवन का रंग माना जाता है. हरा रंग धरती के अधिकांश भागों में है. यह मन को सुख और हृदय को शीतलता प्रदान करता है. यह आध्यात्मिक आत्मीयता व उन्नति का भी प्रतीक है. नीले रंग को असीम व्यापकता रंग मान गया है. सफेद रंग सभी सात रंगों का मिश्रण है. यह शुद्धता, पवित्रता, शांति का प्रतीक माना जाता है. ये सारे रंग जंगल में एक अलग प्रभाव पैदा करते हैं.
आदिवासियों के लिए जीविका का साधन मात्र नहीं है जंगल – आज भी विभिन्न कारणों से आदिवासियों का जंगल से रिश्ता बना हुआ है. झारखंड में सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए ‘बिसु सेंदरा’ के समय आत्म-चिंतन-मनन, विचार-विमर्श और आध्यात्मिक-कार्य जंगल में करते रहे हैं. इन आदिवासियों के बीच जंगल में सामूहिक-स्नान की परंपरा अब भी बनी हुई है, लेकिन वे इस स्वस्थ परंपरा से अनजान हैं. जंगल की कमी से या नये कानूनों के कारण जंगल में मनाही के बावजूद आदिवासियों का जंगल में सामूहिक स्नान के लिए जाने की परंपरा कई गांवों में प्रतीकात्मक रूप में बची हुई है.
जंगल से उनका नाभिनाल-संबंध है और जंगल उनकी आर्थिक, भौतिक जरूरतों से लेकर आध्यात्मिक-आवश्यकताओं तक का आधार-स्रोत है. यहां उनके कई नाद, बोंगा (अदृश्य-शक्तियां) आदि जंगल में रहते हैं, जो जंगल-पहाड़, नदी-झरने, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं आदि का संरक्षण और संवर्द्धन करते हैं. कई यूरोपीय विद्वानों ने इन्हें भूत, शैतान आदि कहा है. जंगल का वातावरण न केवल मनुष्य को बल्कि पूरी प्रकृति को स्वच्छ, पुष्ट, उर्वर और जीवन के लयपूर्ण-स्पंदन से भरपूर बनाए रखता है.
आदिवासी इलाकों में पिछले दो ढाई सौ सालों में जिन इलाकों में जंगल कम हुए हैं या कम किये गये हैं वहां आदिवासियों ने जंगल के छोटे रूप को पतरा (उपवन) के रूप में झारखंड और निकटवर्ती इलाकों में बचा कर रखा है. जहां से वे पत्ते, दातून, लकड़ी लेते ही हैं, ये पेड़-पौधे वातावरण के तापमान व जलस्तर को बनाए रखने में सहायक होते हैं. लेकिन, आदिवासियों के पुरखा-ज्ञान से अनजान नई शिक्षित पीढ़ी और अंधे विकास की गतिविधियों से धरती का यह प्राकृतिक-वातावरण लगातार भयावह नुकसान झेल रहा है.
पशु-पक्षियों व झरनों आदि के ध्वनियों का सकारात्मक प्रभाव
जंगल में किरणों के धरती, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी झरनों की जो लयात्मक गति चलती है, वह समस्त पर्यावरण में कई प्रकार से सकारात्मक-प्रभाव डालती है. पहाड़ों, घाटियों में, किरणों के, रंगों के खेल, मैदानों के मुकाबले विविधतापूर्ण होते हैं. अतः ज्ञान, सृजन, और अध्यात्म के अधिकांश मानवीय गतिविधि जंगल व पर्वतों में चलते हैं. अब पहाड़ बचाने और अधिक जंगल उगाने का काम अधिक से अधिक करने होंगे तभी हम धरती को उसके मूल स्वरूप में बचा पायेंगे. प्रकृति एक अदृश्य मां की तरह है जो हम सबकी पालनहार है. दुर्भाग्य से अहंकारी होता जा रहा मानव इसे नहीं समझता.
नयी दुनिया की खोज से लेकर आज तक विभिन्न विद्वान चाहे वे नृविज्ञानी, भू-गर्भवेत्ता, जीव,पशु, वनस्पति विज्ञानी, मौसम, औषधि किसी से जुड़े विद्वान हों लाभ या मुनाफे से प्रेरित कार्य ही करते रहे हैं. आधुनिक विज्ञान व तकनीक धरती को लगातार निचोड़ने जैसी गतिविधियों में लिप्त दिखता है. जबकि नई दुनिया की खोज जहां भी की गई वहां आदिवासी रहे और उन्होंने अधिकांश नवांगतुकों का स्वागत-सत्कार और सहयोग ही किया क्योंकि यह आदत उन्होंने प्रकृति से सीखी है.लेकिन, सभ्य आदमी का वय़वहार सदा इसके विपरीत दिखता है.
फुरसत पाते ही प्रकृति की गोद में
सभ्य समाज जिसने समस्त प्राकृतिक संसाधनों को अपने उपभोग व लाभ के नजरिए से देखता रहा है. फलतः जंगल, उनके कुत्सित विचारों के प्रभाव में आ रहा है. इसका दुष्प्रभाव वहां के आदि-निवासियों में उनका हर तरह से दुष्प्रभाव दिख रहा है क्योंकि- जंगल के लय, गति, अनुशासन और उसके शांत, निर्मल, कपटहीन, निष्कलंक, प्रेमपूर्ण संबंधों से कट रहे हैं. ध्यान रहे, जंगल ही एक ऐसी जगह है, जहां सभी ज्ञानेंद्रियां तरोताजा, स्वच्छ, शांत, पवित्र रूप से सक्रिय होती हैं.
साथ ही जीवन के कई आवश्यक कार्य-गतिविधियों के लिए गति, प्रवाह, लय, नृत्य, सहयोग, सम्मान, एकजुटता, गीत, खेल आदि की प्रेरणा आदिवासियों को, जंगल के विभिन्न हलचलों आदि को देखकर मिलतीं रहीं हैं. अतः आज के प्रदूषित-वातावरण और तनावग्रस्त-जीवन में, जंगल-स्नान के महत्व को तन, मन और दिमाग की शांति, स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए समझना, ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है. याद रहे, फुरसत मिलते ही हम प्रकृति की गोद का ही आश्रय क्यों लेते हैं ?