चुनावी मौसम में पल-पल रंग परिवर्तन का दौर चल पड़ा है. अन्य दलों की तरह इन दिनों कामरेडों के दल पर भी इसका असर साफ दिखने लगा है. वैसे इसकी शुरुआत तब से हुई है, जब से दिल्ली दरबार में पहुंचने के लिए धनाढ्य चुनावी मैदान में कूदे हैं. उच्च सदन में पहुंचने के लिए पूरी तरह जोर लगा रहे राज क्षेत्र के धनाढ्य के लिए लाल रंग के ‘राजकुमार’ भगवा होने को मजबूर हो गये, तो अब कुछ इसी तरह का सीन औद्योगिक नगरी में दिख रहा है, लेकिन यहां फिल्मी सीन की तरह ही पल भर में रंग लाल से भगवा नहीं, बल्कि हरा हो गया है. दोनों सीन में बस अंतर यह है कि रंग बदलने को मजबूर हुए ‘राजकुमार’ पर पार्टी ने हंटर चलाकर ‘शांति’ लाने का प्रयास किया है, तो इसी बीच औद्योगिक नगरी में लाल रंग धारी नेताओं ने बढ़ कर हिम्मत दिखायी है.
यहां बकायदा, कामरेडों ने हरे रंग में लालटेन का ‘चारा’ लेकर घूम रहे दल को विधिवत समर्थन की घोषणा की है. तर्क दिया ‘हरा’ व ‘लाल’ दोनों का काम गरीब गुरबों की आवाज बनना है. इधर, अचानक हुए इस घोषणा से क्षेत्र का सीन बदल गया है. अच्छे अच्छों को समझ में नहीं आया कि यह हुआ कैसे. वैसे हरे रंग वालों से अभ्रक नगरी में इन कामरेडों की नजदीकियां पुरानी बात रही है, पर राज्य की सत्ता तक पहुंचने के वक्त दोनों आमने-सामने आ खड़े हो जाते हैं. नये बदलाव ने सबको हैरान तो किया है, लेकिन लाल रंग वालों की विश्वसनीयता जरूर कठघरे में है. अब ‘भगवा’ के बाद ‘लाल’ रंग के ‘हरा’ होने का असर औद्योगिक नगरी में कितना पड़ेगा यह तो चुनाव परिणाम बतायेगा, पर शहरी फिजा में कामरेडों की पार्टी बेबी वाकर लेकर जद्दोजहद करती जरूर दिख रही है.
भगवान का नाम बदनाम न करो
चुनावी फिजा में संप्रदाय व जातिवाद के नाम पर वोटरों को रिझाने की रणनीति तो पुरानी रही है, पर निकाय चुनाव में इस तरह की सोच की शुरुआत ने रंग ही बदल डाला है. छोटे स्तर के चुनाव में जातीय फैक्टर कितना मायने रखेगा यह तो आनेवाला वक्त बतायेगा, लेकिन इस चुनावी मौसम में अधिकतर को भगवान के नाम का ही सहारा है. चुनावी रेस में सबसे आगे निकलने की होड़ में प्रत्याशी भगवान को अपना हथियार बना कर घूम रहे हैं. बकायदा एक प्रत्याशी तो जय श्री… का नारा बोलने को मजबूर हो गये हैं. वैसे इस नाम पर भगवाधारियों ने अपना मजबूत किलेबंदी का दावा वर्षों से रखा है, पर शहर की सियासत में नये बदलाव से कुछ असर तो पड़ेगा ही. इधर, भगवान के नाम का इस तरह के प्रयोग पर आम लोग तो यहां तक कहने को मजबूर हो गये हैं. कम-से-कम भगवान का नाम तो बदनाम न करों.
उतार रहे स्टार प्रचारक, बाहर से जुट रही भीड़
शहर की सत्ता में करीब डेढ़ साल का ही राज रहेगा, पर इसे हासिल करने के लिए सभी महारथी बड़ा रेस लगाने को तैयार बैठे हैं. इसी हड़बड़ाहट में कई दलों का हाल यह है कि प्रत्याशियों के आगे पीछे घूम रहे लोग वोटर हैं या नहीं यह देखने वाला भी कोई नहीं है. सबसे खराब हाल तो स्टार प्रचारकों के पहुंचने के वक्त दिख रहा है. चुनावी फिजा में अपनी मजबूती दावेदारी दिखाने के लिए कोई रोड शो, तो कोई सभा करने में लगा है. पर इन आयोजनों के दौरान भीड़ बाहर से जुटायी जा रही है. भीड़ के हिस्से में कई लोग तो ऐसे होते हैं जो माननीय के आगे-पीछे घुमने वाले हैं. हालांकि, ये आज कल दोहरा कामकाज का बोझ उठा रहे हैं. एक तो भीड़ बढ़ाते हैं दूसरा सोशल मीडिया पर फट से फोटो चिपकाने में माहिर हैं. महारथ इतनी की एक कार्यक्रम की दर्जनों तस्वीरें शेयर कर बैठते हैं. यह महारथ प्रत्याशी के पक्ष में कितना कारगर होगा यह तो वक्त बताएगा, पर बाजार में इन दिनों ऐसे महारथी लोगों की चांदी है.
आये थे जातीय वोटरों को रिझाने, सुन ली खरी-खोटी
मामला कमल दल वालों से जुड़ा है. स्टील नगरी से पार्टी की नैया पार करने के लिए अभ्रक नगरी बुलाये गये माननीय खरी-खोटी सुन कर वापस लौट गये. माननीय पार्टी के आकाओं के कहने पर आये, तो बड़ी तेजी से, मन में इच्छा भी थी कि कुछ करेंगे तो नाम होगा, पर यहां तो अपने लोगों ने ही उल्टा-पुल्टा जवाब दे दिया. अंदरखाने चर्चा है कि जातीय वोटरों को समझाने आये माननीय को अपने ही लोगों ने पूछ डाला की इसी पार्टी को वोट क्यों दें. क्या किया अब तक. किसने सुनी हमारी. वैसे इन माननीय के बारे में स्टील नगरी में भी रेपुटेशन कुछ खास अच्छा नहीं बचा है. वहां के लोग भी इनकी अलग कार्यशैली से खासे बिदके हुए हैं. वैसे अभ्रक नगरी के स्वजतीय बंधु भी अपने कार्यक्रम में बुलाने के लिए बकायदा एक बार तो स्टील नगरी पहुंच गए थे, पर उस समय माननीय के पास समय नहीं था. अब चुनावी मौसम आया है तो पार्टी के हुक्म पर तुरंत उन्हीं लोगों के बीच आ गए तो समझ में नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहां से हो. वैसे टका सा जवाब मिलने के बाद इस गढ़ के लोगों में वोटरों का बिखराव होना तय माना जा रहा है.