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औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर तुरी जाति के लोग

एक बांस की कीमत 50 से सौ रुपया है. ऐसे में बांस की लागत और मेहनत का मोल भी नहीं मिल पाता है किस्को : प्रखंड के हिसरी गांव के तुरी जाति के लगभग 15 परिवार के एक सौ लोग आज भी बांस से बने सूप, दउरी, बेना, छटका आदि सामान को बेच कर किसी […]

एक बांस की कीमत 50 से सौ रुपया है. ऐसे में बांस की लागत और मेहनत का मोल भी नहीं मिल पाता है

किस्को : प्रखंड के हिसरी गांव के तुरी जाति के लगभग 15 परिवार के एक सौ लोग आज भी बांस से बने सूप, दउरी, बेना, छटका आदि सामान को बेच कर किसी तरह अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. तुरी समाज के लोग अपने इस परंपरागत पेशा को आज भी जिंदा रखे हुए हैं.
इनके रोजगार का एक मात्र साधन बांस से बननेवाली वस्तुओं को बनाना एवं उसे बेच कर परिवार का भरण पोषण करना है. हालांकि इन तुरी समाज के लोगों को इनके परंपरागत पेशा और मेहनत का बाजार में उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. इनके द्वारा निर्मित बांस के सामान को औने-पौन दाम में व्यापारी इनके घर से ही खरीदकर ले जाते हैं.
गांव का रंथू तुरी, सावित्री तुरी, गजराज तुरी, श्री तुरी, नारायण तुरी, तुलसी तुरी, ज्ञानचंद तुरी, बालचंद तुरी का कहना है कि गांव में रहने के लिए सरकार द्वारा गैरमजरूआ जमीन दी गयी है. जहां पर घर बनाकर रहते हैं. एवं बांस से बनी वस्तुओं को बनाकर बेचकर जीवन यापन करते हैं. लोगों का कहना है कि बांस से बने वस्तुओं को व्यापारियों द्वारा औने-पौने दाम देकर घर से ही ले जाया जाता है, ग्रामीणों के पास और कोई विकल्प नहीं है.
अपने सामान को बाजार तक ले जाने का साधन नहीं होने के कारण मजबूरी वश सामानों को व्यापारियों के पास बेचना पड़ता है. रंथू तुरी और सावित्री तुरी का कहना है कि बांस खरीद कर लाना पड़ता है. जिसकी एक बांस की कीमत 50 से सौ रुपया देना पड़ता है. ऐसे में बांस की लागत और मेहनत का मोल भी नहीं मिल पाता है. उनका कहना है कि एक बांस से मात्र एक वस्तु ही बन पाती है.
उसपर कोई भी सामान बनाने में दिन भर का समय लग ही जाता है. लागत के हिसाब से वस्तु का सही मूल्य नहीं मिल पाने के कारण परिवार का भरण-पोषण में काफी समस्या उत्पन्न होती है लोगों का कहना है कि अगर सरकार द्वारा उनके बनाये गये वस्तुओं को उचित मूल्य देकर खरीदारी कर ली जाये, तो परिवार चलाने में कुछ मदद मिलेगी. इन लोगों को सरकार द्वारा गैरमजरूआ जमीन मुहैया करायी गयी है. जिसमें ये लोग घर बनाकर अपने बाल-बच्चों के साथ रहते हैं.

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