बात 1960 के दशक की है. तब संताल परगना प्रमंडल नहीं, जिला था और इसका मुख्यालय था दुमका. उन्हीं दिनों बिहार सरकार ने चलंत पुस्तकालय की योजना शुरू की. योजना का एक हिस्सा संताल परगना भी था. चलंत पुस्तकालय के लिए विशेष प्रकार की गाड़ी को लाइब्रेरी के रूप में विकसित किया गया था. यह लाइब्रेरी वाली गाड़ी संताल परगना के गांवों में पहुंचती थी और लोगों को किताबों से जोड़ती थी. लोग इस चलंत पुस्तकालय से किताबें लेकर पढ़ते और फिर लौटा देते थे. यह चलंत लाइब्रेरी दुमका राजकीय पुस्तकालय के अधीन संचालित थी. यह चलंत लाइब्रेरी प्राय: 1980 तक चली. अब यह गाड़ी जर्जर अवस्था में है.
तब राज्यभर के पुस्तकालयों के अधीक्षक पटना में बैठते थे. वहीं से यह भ्रमणशील पुस्तकालय भी कंट्रोल होता था. प्रत्येक तीन महीने में इसकी रिपोर्ट पटना भेजी जाती थी. रिपोर्ट भेजे जाने में देरी होने पर अधीक्षक कार्यालय से टेलीग्राम आ जाता, जिसका यहां से जबाब देना पड़ता था. गाड़ी के रख-रखाव की भी रिपोर्ट भेजी जाती थी.
सभी लोगों तक पुस्तकें पहुंचें, इसका ध्यान रखा गया था. सड़क सुविधा सीमित होने के कारण गाड़ी सभी गाों तक नहीं पहुंच सकती थी. इस बात को ध्यान में रख कर चार साइकिल पोर्टर भी गाड़ी के साथ चलते थे, जो किताबों को घर-घर तक पहुंचाने में मदद करते थे. लोग किताबों के मांग और अन्य संदर्भ को लेकर चिठियां भी भेजते थे, जिन पर अमल होता था. उन दिनों पोस्टकार्ड पांच पैसे और लिफाफा दो आने में मिलता था. लोग इस भ्रमणशील गाड़ी का बेसब्री से इंतजार करते थे.
संताल परगना के गांवों में पढ़ने का माहौल था. गाड़ी में कहानी और अन्य विषयों की किताबें होती थीं. इस लाइब्रेरी वाली गाड़ी और इसकी लोकप्रियता से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि संताल परगना में किताबों के प्रति जागरूकता का कैसा इतिहास रहा है. भ्रमणशील पुस्तकालय की गाड़ी में लिखा हुआ था- ‘परिश्रम के अलावा और कोई रास्ता नहीं है’.
पिछले दिनों तक राजकीय पुस्तकालय अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा था. अब इसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है. इसका शिलान्यास 25 दिसंबर, 1954 को और उद्घाटन 9 फरवरी, 1956 को तत्कालीन शिक्षा मंत्री बद्री प्रसाद वर्मा के द्वारा किया गया था. अब इसे रिनोवेट करने का काम चल रहा है. इसके बाउंड्री वॉल पर पेंटिंग की जा रही है. बुक गार्डन बन कर तैयार है. मरम्मती के साथ-साथ लाइटिंग-पार्किंग का काम चल रहा है. किताबों को ऑनलाइन किया जायेगा. लाइब्रेरी की अपनी एक बेबसाइट होगी.
हालांकि 1988 से लाइब्रेरियन और 1995 से शार्टर के पद रिक्त हैं. इसी राजकीय पुस्तकालय में भ्रमणशील गाड़ी को सुसज्जित कर विंटेज के तौर पर रखा जायेगा. दुमका के उपायुक्त रविशंकर शुक्ला लोगों को पुस्तकालय से जोड़ने पर बल देते हैं. आमलोगों की अधिक से अधिक पहुंच लाइब्रेरी तक हो, इसे ध्यान में रख कर राजकीय पुस्तकालय को उन्नत और आधुनिक बनाया जा रहा है.
एसपी कॉलेज में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ यदुवंश यादव ने बातचीत में बताया कि उस दौर में भी भ्रमणशील लाइब्रेरी के काम करने की बात आश्चर्यचकित करती है. ऐसी व्यवस्था होने की जानकारी अन्यत्र नहीं मिलती है. लाइब्रेरी का महत्व हमेशा से समझा गया है. आज घर तक अनाज और दवाएं पहुंच रही हैं. किताबों से लोगों को जोड़ना महत्वपूर्ण है. यहां के लोगों में इंडिजिनेस नॉलेज तो बहुत है. साथ ही मॉडर्न नॉलेज का पहुंचना भी जरूरी है. इंस्टीच्यूसंस को यह जिम्मेदारी लेनी होगी.
उड़ीसा के रहने वाले अक्षय राजकीय पुस्तकालय दुमका को लेकर गंभीर हैं. वे लाइब्रेरी और किताबों को लेकर पिछले आठ सालों से काम कर रहे हैं. यहां भी उपायुक्त के निर्देश पर इसी काम में लगे हैं. इक्कीस राज्यों में पैंतीस हजार किलोमीटर अपनी गाड़ी से घूम चुके हैं. लाइब्रेरी डेवलपमेंट को लेकर कार्य करते हैं. अभियान चलाते हैं. उड़ीसा में उन्होंने ‘किताबों का बगीचा’ भी बनाया है.
अक्षय मानते हैं कि यह दिलचस्प बात है कि हम 60-70 पहले कितने जागरूक थे. यहां मोबाइल लाइब्रेरी थी. आज हमें फिर से नयी शुरुआत करनी होगी. किताबें जीवन बदलती हैं, जीवन बनाने का काम करती हैं. लोगों को अपडेट रखना होगा. स्कूल-कॉलेज और नौकरी के बाद ही पढ़ाई खत्म नहीं हो जाती है. लाइब्रेरी ही एक ऐसी जगह है, जहां से ज्ञान का लाभ आर्थिक रूप से कमजोर तबका भी ले सकता है. लाइब्रेरी को कल्चरल हब बनाना होगा.
यह बीआरएल 1126 नंबर वाली अमेरिकन कंपनी फरगो ट्रक की गाड़ी थी, जिसका इंजन अमरीकन था और बॉडी इंडियन था. लकड़ी से बॉडी बनाया गया था, जिसके ऊपर लोहे का चदरा लगाया हुआ है. यह गाड़ी पेट्रोल से चलती थी. राजकीय पुस्तकालय, दुमका में जर्जर हालत में पड़ी गाड़ी के मीटर के हिसाब से यह 76 हजार किलोमीटर चल चुकी थी. यह एक लीटर पेट्रोल में तीन से साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी तय करती थी.
उस समय एक गैलेन यानी तीन से साढ़े तीन लीटर पेट्रोल की कीमत चार रुपये थी. गाड़ी में डालने के लिए एक बोतल डिस्टिल वाटर 65 आने में खरीदा जाता था. टायर मेड इन इंडिया कोलेब्रेशन यूएस रबर कंपनी का था. गाड़ी का मूवमेंट फोर्थ नाइट होता था. इस भ्रमणशील पुस्तकालय में ड्राइवर, सहायक और लाइब्रेरियन चलते थे, जो गांवों के लोगों को पढ़ने के लिए पुस्तकें देने-लेने का काम करते थे. यह गाड़ी उस समय जामताड़ा, देवघर, साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा और दुमका के ग्रामीण इलाकों में किताबें लेकर घूमती थी.
तब राजकीय पुस्तकालय, दुमका के अलावा सार्वजनिक हिंदी पुस्कालय, देवघर, गांधी पुस्कालय, जामताड़ा, स्वर्णिम पुस्कालय, पाकुड़-साहेबगंज और हिंदी साहित्य परिषद, गोड्डा में भी पुस्तकालय चल रही थी. यह भ्रमणशील गाड़ी इनके ग्रामीण इलाकों में जाकर सेवा देती. तीन महीने में हजार किताबों का वितरण किया जाता था. 1957 में 894 किताबों का गाड़ी में होने का रिकॉर्ड मिला है. इस मोबाइल लाइब्रेरी के पहले लाइब्रेरियन बासुकीनाथ डे और ड्राइवर मिश्री मंडल और सहायक जगरनाथ साह थे, जबकि राजकीय पुस्तकालय दुमका के पहले लाइब्रेरियन केदारनाथ झा थे.