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हूल दिवस विशेष : संताल हूल के इकलौते स्थापत्य के साथ नहीं हो सकता न्याय

Hool Revolution Day 2020 : 1855 के संताल विद्रोह का एक मात्र स्थापत्य है पाकुड़ का मार्टेलो टावर. ब्रिटिश प्रशासन और रेलवे के अफसरों तथा पाकुड़ के जमींदार को विद्रोहियों के आक्रमण से बचाने के लिए एक रात में इस टावर का निर्माण किया गया था. तीस फूट ऊंचे इस टावर के अलावा कोई ऐसा स्थापत्य नहीं है, जो इस विद्रोह का प्रतीक हो, किंतु इस टावर के साथ न्याय नहीं हुआ. अव्वल तो करीब डेढ़ सौ साल तक इसकी उपेक्षा की गयी.

1855 के संताल विद्रोह का एक मात्र स्थापत्य है पाकुड़ का मार्टेलो टावर. ब्रिटिश प्रशासन और रेलवे के अफसरों तथा पाकुड़ के जमींदार को विद्रोहियों के आक्रमण से बचाने के लिए एक रात में इस टावर का निर्माण किया गया था. तीस फूट ऊंचे इस टावर के अलावा कोई ऐसा स्थापत्य नहीं है, जो इस विद्रोह का प्रतीक हो, किंतु इस टावर के साथ न्याय नहीं हुआ. अव्वल तो करीब डेढ़ सौ साल तक इसकी उपेक्षा की गयी. न तो पाकुड़ प्रशासन ने इसकी सुधि ली, न बिहार सरकार ने. झारखंड अलग राज्य बनने के कई साल बाद इसके सौंदर्यीकरण की चिंता स्थानीय प्रशासन को हुई और सीमेंट-कंक्रीट की भाषा समझने वाली मेधा ने इसे ऐसा लुक दे दिया, जिसमें इसकी ऐतिहासिकता खत्म हो गयी, जबकि होना यह चाहिए था कि इतिहास बोध के साथ पुरातत्व विभाग इस काम को करता.

दरअसल, इस ऐतिहासिक टावर को लेकर जागरूकता का बड़ा अभाव रहा. सन् 1988-90 की बात है. तब मैं पाकुड़ में था. तब इस टावर के आस-पास झाड़ियां थीं और लोगों का कोई खास ध्यान इसकी ओर नहीं था. टावर के अंदर-बाहर कुछ लोग मल त्याग कर जाया करते थे. टावर के ठीक पीछे पत्थर खदान चल रहा था, जिसमें बारूद से विस्फोट कर पत्थर निकाले जाते थे. वहां किसी तरह की कभी कोई गतिविधि मैंने नहीं देखी, जो इस टावर के महत्व को दर्शाता हो. अलबत्ता, वाम दल के कुछ लोग मजदूर दिवस पर और 30 जून को इस टावर के सामने जुटते थे.

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ईंटों के सहारे डंडा खड़ा कर उसमें पार्टी का ध्वज लगाते थे और उसके नीचे ईंट रख कर उस पर फूल-माला चढ़ाते थे. इसमें आम लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती थी. इसने मुझे इस टावर के बारे में जानने के लिए प्रेरित किया. तब मुझे यह जानकार निराशा हुई थी कि स्कूल-कॉलेज में पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग भी इस टावर के बारे में या तो जानते नहीं थे, यह बहुत कम जानकारी रखते थे. तब पाकुड़ अनुमंडल था. मैंने एसडीओ से मिल कर पत्थर उत्खनन से इस टावर के ध्वस्त होने की आशंका जतायी. प्रयास था कि प्रशासन टावर के पास उत्खनन रोके, मगर एसडीओ उदासीन रहे. पत्थर उत्खनन और विस्फोट जारी रहा.

उन दिनों बड़हरवा से एक साप्ताहिक समाचार-पत्र निकलता था ‘लोकपक्ष’. रामनाथ विद्रोही इसके संपादक थे और हम सब इस पत्र से जुड़े हुए थे. तय हुआ कि ‘लोकपक्ष’ को केंद्र में रख कर मार्टेलो टावर को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाए. इसके बैनर तले पाकुड़ में स्कूली बच्चों के लिए मार्टेलो टावर पर चित्रांकन, भाषण और लेख प्रतियोगिताएं आयोजित की गयीं. इस प्रतियोगिता के बहाने बच्चों, उनके अभिभावकों और शिक्षकों को यह टावर देखने और उसके बारे में जानने के लिए प्रेरित किया गया. अखबारों में खबरें छपने लगीं. शहर में टावर को लेकर चर्चा शुरू हुई. इन सब में पाकुड़ के मशहूर चित्रकार बैद्यनाथ जायसवाल, वरिष्ठ पत्रकार ओंकारनाथ भगत, पत्रकार-मित्र दिगेशचंद्र त्रिवेदी, कृपा सिंधु बच्चन, चित्रकला से जुड़े तपन दास, साहित्यकार केदारनाथ वगैरह की हमारी एक टीम बन गयी. इससे मार्टेलो टावर को जानने-बचाने एक माहौल बन गया. उन्हीं दिनों बिहार विधान परिषद में इस टावर की उपेक्षा और पत्थर उत्खनन से उसके नष्ट होने की आशंका को लेकर सवाल उठवाया गया. विधान परिषद में सवाल उठा, तो बिहार सरकार के पुरातत्व विभाग की आंखें खुलीं. विभाग के पास इस टावर की कोई जानकारी नहीं थी. लिहाजा उसने अपने सहायक निदेशक अमिताभ कुमार (वर्तमान में रांची में पदस्थापित) को पाकुड़ भेजा. बरसा का दिन था.

अमिताभ कुमार अपर इंडिया ट्रेन से सबेरे-सबेरे पटना से पाकुड़ पहुंचे. मार्टेलो टावर कहां, यह जानने के लिए पाकुड़ से हिरणपुर, हिरणपुर से पाकुड़, फिर पाकुड़ से लिट्टीपाड़ा और फिर वहां से पाकुड़, जिसने जहां बताया, वे घूमते रहे. शाम में मेरे पास पहुंचे. टावर से जुड़ी जानकारी, कई दस्तावेज और सन् 1970 के दशक में चित्रकार बैद्यनाथ जायसवाल द्वारा टावर के मूल स्वरूप पर बनी पेंटिंग की तस्वीर मुझसे लेकर उसी शाम हावड़ा-दानापुर ट्रेन से पटना लौट गये. तब पुरातत्व विभाग, बिहार सरकार के निदेशक थे सत्यप्रकाश. तब यही योजना बनी थी कि जिस तरह विक्रमशिला को पुरातात्विक दृष्टि से उसके मूल स्वरूप में संरक्षित किया गया है, उसी तरह से इस चित्र के आधार पर मार्टेलो टावर को उसके मूल स्वरूप में संरक्षित किया जायेगा, मगर काफी प्रयास के बाद भी यह संभव नहीं हुआ. झारखंड बनने के बाद टावर के संरक्षण की जगह इसके सौंदर्यीकरण की योजना बनी और संताल हूल के इस इकलौती पुरातात्विक धरोहर के साथ न्याय नहीं हुआ. आज यहां एक शानदार छतदार टावर है, जिसकी दीवारों पर अत्याधुनिक रासायनिक रंग का लेप चढ़ा है. आसपास की जमीन संगमरमर से आच्छादित है. एक खूबसूरत स्थापत्य का सघन बोध है, किंतु इसमें न तो 1855 वाले मार्टेलो टावर की झलक है, न ऐतिहासिकता का एहसास है.

मार्टेलो टावर का निर्माण जुलाई 1855 के पहले सप्ताह में तब हुआ था, जब विद्रोही पाकुड़ के जमींदार पर हमला करने वाले थे. योजना थी कि रात में विद्रोही पाकुड़ के ठीक पहले जमा होंगे और भोर होते ही हमला कर देंगे. उस वक्त सर मार्टिन पाकुड़ के एसडीओ थे. ब्रिटिश सेना से एसडीओ आवास के ठीक बगल में एक रात में 30 फीट ऊंचा यह टावर बनाया, जिसके चारों ओर छोटी-छोटी 52 खड़कियां हैं. इसकी छत खुली थी और इसमें प्रवेश के लिए छोटा द्वार था. भोर में जब धनुष की पूजा कर संताल विद्रोही आगे बढ़े, तब टावर की इन्हीं खिड़ियों से ब्रिटिश सेना ने बंदूकों से उन पर गोलियां बरसायी थीं.

Posted By : Amitabh Kumar

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