Jharkhand News : इंटरनेट की दुनिया में विलुप्त होती बहरुपिया कला, आजीविका को लेकर ये है अनिल बहरूपिया का दर्द
अनिल बहरूपिया कहते हैं कि बहरूपिया कला लुप्त होने के कगार पर है. वे दोनों भाई इस कला को आज भी जीवित रखे हुए हैं. वे शायद इस कला की आखिरी पीढ़ी हैं. उनके बाद परिवार में इस कला को किसी ने नहीं अपनाया. वे अपनी कला का प्रदर्शन झारखंड समेत अन्य राज्यों में घूम-घूमकर करते हैं.
Jharkhand News, लातेहार न्यूज (वसीम अख्तर) : आज के आधुनिक युग में जब दुनिया इंटरनेट के माध्यम से मनोरंजन में व्यस्त है. ऐसे में पुरानी परंपराओं-कलाओं को बनाए रखना काफी कठिन हो गया है. पहले लोग मनोरंजन के लिए गांव की विभिन्न पौराणिक कलाओं का सहारा लेते थे. इन्हीं में से एक बहरूपिया कला है, लेकिन अब ये बहरूपिया कला विलुप्त होने के कगार पर है. हालांकि आज भी जब बहरूपिया कभी-कभी गांव की गलियों में घूमते नजर आ जाते हैं, तो उन्हें देखकर बड़े और बच्चे आह्लादित हो उठते हैं. अनिल बहरूपिया बताते हैं कि वे इस कला की आखिरी पीढ़ी हैं.
दो दशक पूर्व गांव में काफी प्रचलन में रही इस कला को अब प्रदर्शित करने वाले कलाकार दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं. कभी-कभार गांव में यह चले आए तो कला का प्रदर्शन करके मनोरंजन करते हैं. पूर्व में तो ये कलाकार साल भर में दो से तीन बार गांव में आते थे. 12 दिन तक अलग-अलग वेश में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे, किंतु अब चार-पांच दिन ही बहरूपिया अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. पागल, वैद्य, मजनू, महापुरूष समेत अन्य का रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन कराते हैं.
बहरूपिया कला में माहिर झारखंड के पलामू जिले के चैनपुर निवासी अनिल बहरुपिया इन दिनों लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि 20 वर्षों से वे बहरूपिया कला दिखाते आ रहे हैं. पांच साल के बाद वे महुआडांड़ आये हैं. हमारे पूर्वज भी इसी कला के सहारे अपना जीवन-यापन करते थे. अनिल बहरूपिया कहते हैं कि वर्तमान में इस कला से परिवार का पालन पोषण कर पाना मुश्किल हो गया है. पहले गांव के गली-मोहल्लों में बहरूपियों को देखकर ग्रामीण खुशी से झूम उठते थे. बच्चे पीछे-पीछे घूमा करते थे, लेकिन इंटरनेट से मनोरंजन की आदी होती नई पीढ़ी उन्हें नोटिस करना करीब-करीब छोड़ ही दी है.
अनिल बहरूपिया कहते हैं कि बहरूपिया कला लुप्त होने के कगार पर है. वे दोनों भाई इस कला को आज भी जीवित रखे हुए हैं. वे शायद इस कला की आखिरी पीढ़ी हैं. उनके बाद परिवार में इस कला को किसी ने नहीं अपनाया. वे अपनी कला का प्रदर्शन झारखंड समेत अन्य राज्यों में घूम-घूमकर करते हैं. इसके बदले स्थानीय लोगों एवं दुकानदारों के माध्यम से जो कुछ भी पारितोषिक के रूप में प्राप्त होता है. वे अपनी आजीविका चलाने के लिए रख लेते हैं. उनके नाना स्व. बहादुर बहरूपिया देश के विभिन्न राज्यों में अपनी कला दिखा चुके हैं.
Posted By : Guru Swarup Mishra