पलामू, संतोष कुमार : पलामू प्रमंडल की आर्थिक समृद्धि का आधार रहे पलाश के पेड़ों पर संकट मंडरा रहा है. लाह का उत्पादन कम होने के बाद लोग पलाश को बेकार मानते हुए खेत बनाने के नाम पर इसके जंगलों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं. साथ ही इन पेड़ों को सुखाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं. लाह उत्पादन के लिए बेर का पेड़ दूसरे नंबर पर आता है. लोग इन्हें भी बेकार मानते हुए काट रहे हैं. नतीजतन, जिन जगहों पर पहले बेर के जंगल हुआ करते थे, वहां आज मैदान नजर आने लगे हैं. सबसे अहम बात यह है कि इन पेड़ों को काटने से पहले वन विभाग से इजाजत भी नहीं ली जाती, क्योंकि ज्यादातर पेड़ किसानों के खेते में हैं.
वर्ष 2005 के बाद बदलने लगे हालात, लाह के बाजारों की रौनक हुई फीकी
2005 के बाद पलामू प्रमंडल के मौसम में काफी बदलाव आया है, जिसकी वजह से लाह का उत्पादन कम होने लगा. एक समय आया जब लाह का उत्पादन लगभग समाप्त हो गया. आंकड़ों के अनुसार, क्षेत्र के हर गांव में 1500 से 2000 तक पलाश के पेड़ हुआ करते थे. लेकिन, आज यहां गिनती के पेड़ नजर आते हैं. उधर, बरवाडीह, मंडल, गारू, बारेसाढ़, छिपादोहर सहित अन्य जगहों के बाजारों में लाह के कारण रौनक रहती थी. लाह का उत्पादन बंद होने के बाद से इन बाजारों की रौनक भी फीकी हो गयी है.
फिक्स डिपॉजिट थे पलाश, बचाने को लड़ाई-झगड़े पर उतारू हो जाते थे लोग
पलाश के पेड़ का हर हिस्सा कामयाब माना जाता है. लाह उत्पादन के अलावा पलाश के पत्तों से दोने-पत्तल, फूलों से रंग व औषधि और जड़ से मजबूत रस्सी बनती है. इसकी सूखी टहनियां जलावन के काम आती हैं. एक वक्त था, जब लोग पलाश को मां लक्ष्मी का रूप मानते थे. इस पेड़ को किसान का फिक्स डिपाजिट कहा जाता था. चैत-बैसाख में जब लाह का उत्पादन होता था, तब लोग लाह बेच कर अपनी बेटियों का ब्याह और बीमारी का इलाज कराते थे.
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