मेदिनीनगर. निगम क्षेत्र के सिंगरा चातुर्मास व्रत कथा में श्री लक्ष्मीप्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने श्रीमद्भागवत कथा-प्रवचन के दौरान कहा कि ऋषभदेव जी के पश्चात राजर्षि भरत ने देश का शासन संभाला. उन्होंने वंश परंपरा के तहत संपत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बांट दिया व राजमहल का त्याग कर गंडक नदी तट स्थित वन में चले गये. वहां 10 हजार वर्षों तक कठिन तपस्या की. एक बार राजर्षि भरत गंडकी नदी में स्नान कर जप कर रहे थे. उसी समय एक गर्भिणी हिरणी प्यास से व्याकुल हो अकेली ही जल पीने के लिए नदी के तीर पर आयी. वह जल पी ही रही थी कि पास के जंगल से सिंह की दहाड़ सुनायी पड़ी. प्राणों पर बनी देख उसने ज्यों ही नदी पार करने के लिए छलांग मारी त्यों ही उसका गर्भ अपने स्थान से हट कर नदी के प्रवाह में गिर गया. अत्यंत पीड़ित वह हिरणी उस पानी में गिर पड़ी और मर गयी. नदी के प्रवाह में बहते उसके बच्चे को देखकर भरत जी को दया आ गयी. वे उसे बचाकर आश्रम ले आये. उसके खाने-पीने का प्रबंध किया. कुछ ही दिनों में मृग में आसक्ति के कारण उनके यम, नियम और भगवत पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अंत में सभी छूट गये. वे सोचते कि वह मृग उनका शरणागत है और वे ही उसके रक्षक हैं. स्वामी जी महाराज ने कहा कि एक दिन वह मृग का बच्चा खेलता-कूदता घने वन में चला गया. रात में भी वापस नहीं आया. तब भरत जी को चिंता होने लगी. उसी समय भरत जी को पकड़ने के लिए प्रबल वेगशाली काल आया. मृत्यु किसी पर दया नहीं करती. उस समय भी उनका चित्त उसी मृग शावक में लगा हुआ था. इस प्रकार उसकी आसक्ति में ही उनका शरीर छूट गया. जिसके कारण उन्हें अगले जन्म में मृग का ही शरीर मिला. बाद में पुन: जातिस्मर ब्राह्मण के रूप में इनका जन्म हुआ. राजर्षि भरत परम संत थे. अतः उनका तीसरा एवं अंतिम जन्म एक ब्राह्मण के घर में जड़भरत के रूप में हुआ. वे इस जन्म में बहुत कम बोलते थे. पिता ने उन्हें पढ़ाया. पंडिताई सिखायी. लेकिन वह जान बूझकर मंत्रोच्चार अच्छे ढंग से नहीं करते थे. क्योंकि वह अपना ज्ञान प्रसिद्ध नहीं करना चाहते थे. इसी कारण उनका नाम जड़भरत पड़ा. भरत जी तो सच्चे संत थे. अपमान व सम्मान दोनों में ही सम रहे.
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