विश्व रंगमंच दिवस : रंगकर्मियों का छलका दर्द, कहा- सरकार पैसे और कार्यक्रम की जगह एक ऑडिटोरियम दे
विश्व रंगमंच दिवस पर सरकार की बेरुखी से रंगकर्मियों का दर्द छलका है. कहा कि पूरे राज्य में एक अदद ऐसा ऑडिटोरियम नहीं है जहां नाटक मंचन की सुविधा हो. ऑडिटोरियम के नाम पर कुछ सेमिनार हॉल बना दिए गए हैं जिसको नाटक के अनुकूल बनाने में ही लाखों खर्च हो जाते हैं.
पलामू, सैकत चटर्जी : 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस पर प्रभात खबर राज्य के प्रमुख रंगकर्मियों से बात कर रंगमंचीय गतिविधियों का हाल जानने का प्रयास किया. इस दौरान रंगकर्मियों की पीढ़ा उभर कर सामने आयी. उनका दर्द छलका. सरकार की बेरुखी से इन्हे कितनी तकलीफ है इसका पता चला. अकादमी पुरस्कार से सम्मानित राज्य के जाने माने रंगकर्मी प्रो अजय मलकानी ने कहा कि झारखंड आज 22 साल का हो चुका है, पर जमशेदपुर की बात छोड़ दे, तो पूरे राज्य में एक अदद ऐसा ऑडिटोरियम नहीं है जहां नाटक मंचन की सुविधा हो. ऑडिटोरियम के नाम पर कुछ सेमिनार हॉल बना दिए गए हैं जिसको नाटक के अनुकूल बनाने में ही लाखों खर्च हो जाते हैं.
राज्य में संगीत अकादमी का गठन नहीं हो पाया
रंगकर्मी प्रो मलकानी ने कहा कि यह कितना दुर्भाग्य है कि संस्कृति जैसे संवेदनशील और गंभीर चीज के लिए सरकार असंवेदनशील बनी हुई है. राज्य गठन के 22 साल के बाद भी न साहित्य, न जनजातीय भाषा, न नाट्य, न ही संगीत अकादमी का गठन हो पाया. यह दुर्भाग्य ही है कि संस्कृति विभाग को पर्यटन, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग के साथ जोड़ दिया गया जबकि राज्य के सांस्कृतिक उन्नयन के लिए संस्कृति विभाग अलग होने चाहिए थे. उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में एक ही उम्मीद की लकीर है कि युवा लगातार नाटक से जुड़ रहे हैं. कुछ संस्थाएं पूरे राज्य में अपने प्रयासों से रंगमंच में सशक्त गतिविधि कर रहे हैं. यह एक शुभ संकेत है. उन्होंने युवाओं से कहा कि नाटक को फिल्म तक जाने का माध्यम बनाना बुरा नहीं है, पर इसके लिए चार से पांच साल रंगमंच पर बिताने के बाद फिल्म को ओर रुख करे तो अच्छा होता है.
नाटकों का मंचन महंगा होते जाना चिंता का विषय है
जमशेदपुर के रहने वाले वरीय रंगकर्मी सह रंग गुरु शिवलाल सागर मानना है कि नाटकों की प्रस्तुति लगातार महंगा होता जा रहा है, यह चिंता का विषय है. इसका मुख्य कारण है जिन ऑडिटोरियम को कभी कला संस्कृति के लिए बनाया गया था. उसमें अब शादी, बर्थडे का प्रोग्राम होता है. मुंहमांगी किराये मिलते हैं. ऐसे सभी हॉल के संचालक वैसे लोग बन बैठे हैं जिन्हे कला से कोई मतलब नहीं है. नतीजा वो नाटक करने वालों से भी उतनी ही भारी-भरकम किराया वसूल रहे हैं जो कॉमर्शियल कारणों से लेते हैं. यही वजह है कि नाटक महंगा और कमजोर आर्थिक स्थिति वाले दलों से दूर होता जा रहा है.
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साल में पांच प्रस्तुतियों के स्थान पर अब एक प्रस्तुति के लिए सोचना पड़ता है
एक समय था जब धनबाद में साल में पांच से छह प्रस्तुतियां होती थी. अब आलम यह है कि एक भी हो जाए तो बहुत है. यह कहना है धनबाद के वरीय रंगकर्मी, नाट्य लेखक, निर्देशक बशिष्ठ सिन्हा का. श्री सिन्हा झारखंड के एक ऐसे कलाकार हैं जिनके परिवार का हर एक सदस्य नाटकों के लिए समर्पित नाट्य कलाकार है. ये सालो भर अपनी संस्था कला निकेतन के माध्यम से नाटक करते हैं, लेकिन अब इन्हें अपने शहर धनबाद में ही नाटक करने में परेशानी हो रही है. कारण नाटकों के प्रस्तुति के लिए हॉल नहीं है, जो थे वो दूसरे काम में उपयोग हो रहे हैं. लाइट से लेकर साउंड हर चीज महंगा हो गया है. ऐसे में नाटक करना मुश्किल होता जा रहा है. उन्होंने कहा कि जब तक सरकार नाटक के लिए बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं करती है तबतक ऐसी ही दशा रहेगी. नाटक को लेकर संस्कृति विभाग के पास भी कोई ठोस विजन नहीं है. अलबत्ता साल में किसी किसी संस्था को कुछ कार्यक्रम करने के लिए एक बार आर्थिक सहयोग करती है, जो रंगमंच के संरक्षण के लिए पर्याप्त नहीं है.
सरकार रंगकर्मियों का रेलवे कन्सेशन तक छीन ली है
ऑल इंडिया थियेटर काउंसिल के राष्ट्रीय महासचिव सतीश कुंदन रंगमंच के सवाल पर सरकार से काफी खपा है. गिरिडीह के रहने वाले वरीय रंगकर्मी सतीश कुंदन ने कहा की कोरोना काल में जब रेलवे के सभी तरह के कन्सेशन बंद किए गए थे तब से रंगकर्मियों का कन्सेशन भी बंद है. अन्य कन्सेशन धीरे धीरे बहाल किया जा रहा है पर रंगकर्मियों के लिए यह अभी भी बंद है. जबकि रंगकर्मी अपनी जेब से पैसा लगाकर इस विधा को जीवित रखने के लिए देश के एक कोना से दूसरे कोना जा रहे है. सरकार को चाहिए कि रंगकर्मियों के लिए दिया जाने वाला रेलवे कंसेशन अविलंब बहाल करें.
महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से समृद्ध हुआ है रंगमंच
ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल की झारखंड की सचिव छवि दास जमशेदपुर की रंगकर्मी है. उनका मानना है कि पहले की अपेक्षा आज के दौर में नाटकों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. यह अच्छा संकेत है. इससे रंगमंच सशक्त और समृद्ध हुआ है. उन्होंने कहा कि पहले महिलाएं नाटक करने से कतराती थी. उन्हें घर से भी मना किया जाता था, पर अभी के अभिभावक रूढ़िवादी विचारों से ऊपर उठकर रंगमंच को बुरा नही मानते. इसलिए महिलाओं के लिए रंगमंच से जुड़ना सहज हुआ है.
पलामू जैसे जगह में हम प्रोफेशनल थियेटर करते हैं
पलामू के रहने वाले युवा रंगकर्मी कामरूप सिन्हा का मानना है कि नाटक को एक स्थाई दिशा देने के लिए उसको प्रोफेशनल बनाना भी जरूरी है. तभी युवा इसके लिए समय देंगे. उन्होंने कहा की पहले से अब समय काफी बदल गया है, आज को पीढ़ी हर चीज में प्रोफेशनल है तो नाटक में आने वाले भी पूछते है की इससे कितनी कमाई होगी. कला में शौख के साथ जब कमाई भी होती है तो वो ज्यादा समय तक टिकाऊ होता है. उन्होंने कहा की उन्हें गर्व है की वे एक प्रोफेशनल थियेटर आर्टिस्ट है. पलामू जैसे छोटे जगह में मासूम आर्ट ग्रुप के माध्यम से प्रोफेशनल थियेटर हो रहा है, यह बहुत बड़ी बात है. यह भी सच है को इससे किसी कलाकार का परिवार का भरण पोषण नहीं हो सकता पर यह भी सच है की अब हम जेब से पैसा लगाकर नाटक करने के दौर से बाहर आ चुके है.