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स्वायत्तता और सहजीविता का सहगान है पत्थलगड़ी

कला में सहजीविता जीवन में स्वयात्तता का सूचक है. अनुज स्वायत्तता को विविधता मानते हैं, जो धरती को सुंदर बनाती है. स्वायत्तता अलगाव नहीं है. आज की कविता पत्थलगड़ी करने वाली कविता होगी.

सावित्री बड़ाईक

हिंदी कविता को हूल जोहार कहने वाले कवि अनुज लुगुन का सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह ‘पत्थलगड़ी’ वाणी प्रकाशन से 2021 में प्रकाशित हुआ है. इस काव्य संग्रह को अनुज ने पूर्वजों को समर्पित किया है, जिन्होंने अपने अस्तित्व को पत्थरों पर अंकित किया, जो न धूप में पिघलता है और न बरसात में गलता है. वे भूमिका में अपने पूर्वजों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं. पूर्वजों ने ही सहजीविता की जीवनदृष्टि दी और पत्थरों को जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाया. वे यह भी मानते हैं कि कला में सहजीविता जीवन में स्वयात्तता का सूचक है. अनुज स्वायत्तता को विविधता मानते हैं, जो धरती को सुंदर बनाती है. स्वायत्तता अलगाव नहीं है. आज की कविता पत्थलगड़ी करने वाली कविता होगी.

कथित सभ्यता और विकास का क्रेशर केवल पहाड़ों पर नहीं चल रहा है, बल्कि वह कविताओं पर भी चला दिया गया है. संवेदनाओं को सहजने के लिए जरूरी है स्वायत्तता और यह बिना सहजीविता के अधूरी होगी. सहजीविता और स्वायत्तता ही मनुष्यता के सर्वोत्तम लक्ष्य हो सकते हैं और कविता उसका माध्यम. काव्य संग्रह में स्वायत्तता, सहजीविता, आदिवासियत को बेहद खूबसूरती से उदघाटित करने वाली कविताएं हैं. कवि की समझ है कि जो वर्चस्व चाहते हैं, वो स्वायत्तता नहीं चाहते, सेना हमेशा उनके लिए संविधान की जगह लेती है. स्वायत्तता आदमी के लिए हवा की तरह होती है, प्राणवायु से भरी हुई.

पत्थलगड़ी काव्य संग्रह में कुल 54 कविताएं हैं, जो दार्शनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना की कविताएं हैं. इस संग्रह में दार्शनिक कविताएं भी हैं और चिंतनपरक कविताएं भी. वस्तुत: ‘अघोषित उलगुलान’ अनुज लुगुन का प्रथम काव्य संग्रह होता, परंतु प्रकाशाधीन होने के कारण यह उनकी दूसरी कविता पुस्तक होगी. ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ कविता पुस्तक अनुज की लंबी कविता है, जो चर्चित और प्रशंसित हो चुकी है. इस सद्य प्रकाशित पत्थलगड़ी में कवि की चिंता, सरोकार, प्रति संसार रचने का स्वप्न शिद्दत से दिखाई देता है.

जो आदिवासियों के इतिहास से परिचित हैं, वे जानते हैं कि औपनिवेशिक काल में आदिवासियों ने जमीन के पट्टा के रूप में पत्थरों को अंग्रेजों की अदालत में प्रस्तुत किया था जिसे स्वीकार नहीं गया. पत्थलगड़ी पर निषेध लगाना वर्चस्ववादी सत्ता की पुरानी चाल है. यह दरअसल सहजीविता और स्वायात्तता को बलपूर्वक कुचलने का प्रयत्न है. आदिवासी से जब-जब जमीन का पट्टा मांगा जाएगा, जंगल पहाड़ के पत्थर गवाही देने के लिए उठ खड़े होंगे. उनका साथ देने के लिए अनुज लुगुन जैसे आदिवासी कवि भी उठ खड़े होंगे – कितनी अजीब बात है/ हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है/ न ही वे पत्थर फेकने का मुहावरा जानते हैं/ वे तो सिर्फ पत्थर गाड़ना जानते हैं/फिर भी वे पत्थर फेंकने के दोषी माने गए/ भाषा का यह फेर पुराना है/ सरकार आदिवासियों की भाषा नहीं समझती है/ वह उनपर अपनी भाषा थोपती है/आदिवासी पत्थलगड़ी करते हैं/ और सरकार को लगता है कि बगावत कर रहे हैं.

भूख, कुपोषण के आंकड़े किसी भी संवेदनशील कवि को बेचैन कर देती है. भूख पर केंद्रित कविताएं हैं – इतिहास की कब्र का भूखा आदमी, ‘हम गिनेंगे भूख के दांत’, ‘लाल कार्ड’. कवि भूख, कुपोषण से पीडि़त एवं एनीमिया ग्रस्त किशोरियों की ओर संवेदनशील पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं.

स्मृति आदिवासी कविता का एक प्रमुख घटक है. चाय बागान की अंग्रेजी मशीन कवि की महत्वपूर्ण कविता है. कोल विद्रोह के आसपास और हूल, उलगुलान के समय झारखंड क्षेत्र से बहुत से आदिवासियों को फुसलाकर चाय बागान ले जाया गया. भूख और जमींदारों की मार के भय से भी कुछ लोग यहां से चाय बागान की ओर गये. अनुज लिखते हैं – जमींदारों की मार से ज्यादा ठीक लगती थी/ चाय की हरियाली/ उन्हें चाय से ज्यादा पसन्त थी हंड़िया/ उन्होंने अपनी देह गला दी चाय की बागानों में/ यह अंग्रेजी मशीन आज भी है गवाह कि/ बागान में काम करने वालों को कहा गया ‘टी ट्राईब’/ उन्हें खेतों को कोड़ने वाला/गांवों को बसाने वाला कहा गया/ लेकिन उन्हें नागरिकता के सीमांतों पर ढेकेला गया/ वे अपने साथ मांदर भी ले आये थे और करम के गीत भी/अपने खून-पसीने के साथ उन्होंने इसे भी यहीं रोप दिया. वस्तुत: असम के चाय बागान लोग आज भी अपनी आदिवासी पहचान के लिए तरस रहे हैं.

सामूहिक सहजीवी जीवनशैली को बचाना आदिवासियत को बचाने के लिए आवश्यक है. वे लिखते हैं– तुम अखड़ा हो जाना/ बजनिया/नचनिया, गवैया, सहिया कुछ भी हो जाना/ सैन्य निगरानी के जवाब में/ संवाद की परिभाषा में शामिल हुये बिना/ संभव नहीं है गणतंत्र को होना. वस्तुत: आदिवासियत और लोकतंत्र को बचाने की चिंता वर्तमान दौर की वाजिब चिंता है, जिसमें इंसानियत के साथ पर्यावरण पारिस्थितिकी को बचाने के भी पाठ हैं. अनुज ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में गीतों का गुरिल्लापन प्रतिध्वनित होता है. वे जंगल पहाड़ की पगडंडियों के वंशज के रूप में स्वयं को देखते है, कंक्रीट के जंगल के लोगों का ध्यान आकर्षित करने में सफल होते हैं.

इस संग्रह की अंतिम कविता है– अबुआ: दिसुम वालों के बीच में. इस कविता में रांची क्षेत्र से आदिवासियों की लगातार कम होती संख्या और इतिहास से अपरिचित रहने पर चिंता व्यक्त की गई है– तुम्हें लगेगा सब कुछ तो अच्छा ही दिख रहा है/ सब कुछ सुंदर ही लग रहा है/ लेकिन जो अंदर है मेरी स्मृतियों में/ जो दफन में रांची के होने में/ उसपर खरोंच बहुत गहरे हैं./ यहां की नदी के गीतों तक की हत्या हुई है/ राजधानी होने की कीमत जनता की जमीन होती है/ यह तुम खुद ही जानो/ महसूस करो कि रेड इंडियंस की तरह/ समूल धकेले जा रहे हैं यहां के बाज पालक.

इस काव्य संकलन की अनेक कविताओं में पेड़ों की हरियाली से अपनी भाषा का व्याकरण गढ़ने, सवाल ठोंके गये सलीबों के साथ समूह में खड़े होने, धरती पर मदाईत की खेती करने के लिये कविता से हल चलाने, जंगल के हत्यारों के खिलाफ गवाही देने, घात लगाये शत्रुओंं से भिड़ने, सहजता से समूह में नाचने, मांदर की डोरी तानने, धनुष संभालने, गीत बुनने, मिट्टी का नागरिक बनने, चूल्हों का स्वाद देखने के बदले सबके घरों से आग ले जाने का संकल्प चित्रित हुआ है. दृश्यात्मक बिंब अनुज की अनेक कविताओं में है. ये कविताएं सौंदर्यबोध का विस्तार करने के साथ पाठकों के मन में नवीन चेतना जगाती हैं.

कवि के रूप में निरंतर आत्मसंघर्ष करने वाले अनुज आदिवासी जीवन दृष्टि और जीवनमूल्यों को हिंदी कविता में लाने में सफल रहे हैं. वे सिर्फ आदिवासी अस्मिता संघर्ष, चुनौतियों को ही स्वर नहीं देते बल्कि देश भर की समस्याओं को भी अपनी कविता का विषय बनाते हैं. मसलन खूंटी, रांची सहित सहारनपुर, गढ़चिरौली, बस्तर, कश्मीर, भीमाकोरेगांव, चांद-चौरा आदि को भी विविध विषयों के साथ अपनी कविता में लाते हैं, जो उन्हें बड़ा कवि बनाती है.

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