रांची : सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के मुद्दे पर आज दिन में 12 बजे होनेवाली ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) की बैठक से पहले आजसू प्रमुख सुदेश महतो ने मुख्यमंत्री रघुवर दास से मुलाकात की. सुदेश महतो ने कहा कि इस संवेदनशील विषय पर राज्य सरकार को जल्दबाजी में फैसला लेने से बचना चाहिए.
सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन से जुड़े विधेयक काे राज्यपाल की ओर से लौटाये जाने के बाद सरकार उसमें बदलाव कर विधानसभा में पेश करना चाहती है. इसलिए सभी आदिवासी नेताअों के साथ-साथ टीएसी के साथभी बैठक कर रही है. जब सरकार ने इस एक्ट में संशोधन किया था, तब मुख्य विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोरचा, कांग्रेस, झारखंड विकास मोरचा के अलावा सरकार की सहयोगी पार्टी आजसू ने भी संशोधन के प्रस्तावों का विरोधकिया था.
यही वजह है कि सरकार इस विषय पर अब फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. सरकार चाहती है कि उसके संशोधनों को जनजातीय सलाहकार समिति की भी सहमति मिल जाये, ताकि उस पर आदिवासी विरोधी होने का ठप्पा न लगे. बहरहाल, प्रोजेक्ट भवन के सभागार में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में होनेवाली बैठक में कई मुद्दों पर चर्चा होगी. इसमें वे मुद्दे भी शामिल होंगे, जिसका सामाजिक संगठन और विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं.
पिछले दिनों रांची में जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के बैनर तले एक्ट में संशोधन के कुछबिंदुअों का पुरजोर तरीके से विरोध किया गया था. सरकार के जिन संशोधनों का विरोध हो रहा है, उसमें प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैंः
प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी)
सरकार के खिलाफ खड़े लोगों का कहना है कि पीपीपी एक भ्रमजाल है, जो भविष्य में गरीब किसानों को उसकी भूमि से वंचित कर देगा. सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आॅफ इंडिया (कम्युनिस्ट) की झारखंड राज्य सांगठनिक कमेटी ने एक पुस्तिका जारी कर कहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में कहा गया था कि 70 फीसदी सर्वसम्मति के बाद ही किसी गांव में जमीन का अधिग्रहण हो सकेगा. लेकिन वर्ष 2014 के कानून में इस प्रावधान को हटा दिया गया. यह किसानों के हित में नहीं है.
लैंड पूलिंग (भूमि संग्रहीकरण)
बताया जा रहा है कि लैंड पूलिंग के नाम पर गरीब किसानों को भूमिहीन बनाने की साजिश रची जा रही है. कहा जा रहा है कि अमरावती में आंध्रप्रदेश की नयी राजधानी के लिए लैंड पूलिंग के नाम पर विजयवाड़ा और गुंटूर में 12,200 हेक्टेयर भूमि किसानों से ले ली गयी. इसकी वजह से करीब 90,000 छोटे एवं भूमिहीन किसान और खेतिहर मजदूर विस्थापित हो गये. जिनकी भूमि सरकार ने ली है, उन्हें तो आवासीय प्लाॅट या मकान मिल जायेंगे, लेकिन जो खेतों में मजदूर करते थे, उनका सब कुछखत्म हो गया.
राज्यस्तरीय भूमि अधिग्रहण कानून एवं विधेयक
एसयूसीआइ (कम्युनिस्ट) का आरोप है कि राज्य सरकारों को भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की अनुमति देकर केंद्र सरकार ने राज्यों को मनमानी करने की खुली छूट दे दी है. किसान आंदोलन से जुड़े लोगों को राज्य सरकारों द्वारा बनाये गये कानून में कई खामियां दिख रही हैं, जो इस प्रकार हैंः
भूमि वापसी की नीति : भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में यह व्यवस्था थी कि यदि एक निश्चित समय तक जमीन का उपयोग नहीं किया जाता है, तो भूमि उसके स्वामी को वापस कर दी जायेगी. लेकिन, झारखंड समेत कई राज्यों ने भूमि वापसी के प्रावधान को बेहद पेचीदा बना दिया है. इससे अधिग्रहीत भूमि के लैंड पूल में चले जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है. यह किसानों के हितों पर कुठाराघात है.
सिंचित बहुफसली कृषि भूमि का अधिग्रहण : भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में स्पष्ट प्रावधान था कि बहुफसली भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जायेगा, लेकिन कई राज्यों ने ऐसी भूमि के अधिग्रहण को भी सरल बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. संशोधनों का विरोध करनेवालों का कहना है कि यदि किसानों की बहुफसली जमीन चली जायेगी, तो वह खेती कहां करेगा. उसकी आजीविका कैसे चलेगी?
मुआवजा और विस्थापितों का पुनर्स्थापन और पुनर्वास : भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में भूमि देनेवालों के लिए न्यायोचित और पारदर्शी मुआवजा के साथ-साथ पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास की व्यवस्था का भी स्पष्ट प्रावधान था. लेकिन, राज्य सरकारें इस कानून में अपने-अपने हिसाब से बदलाव कर रही हैं. इससे किसानों और छोटे भू-स्वामियों का जीना दूभर हो जायेगा.
भूमि अधिग्रहण में ग्राम सभा की भूमिका : वर्ष 2013 में जब भूमि अधिग्रहण कानून बना था, तो उसमें स्थानीय संस्थाओं को बहुत सशक्त किया गया था. अब राज्य सरकारें इसे कमजोर कर रही हैं. मध्यप्रदेश जैसे राज्य ने ग्राम सभा से मनोनीत होनेवाले सदस्य के चयन का अधिकार जिलाधिकारी को दे दिया है. इससे साफ हो जाता है कि जिलाधिकारी द्वारा चुना गया व्यक्ति ग्रामीणों के हित की बात करेगा या प्रशासन की.