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‘प्रभात उत्सव’ में ‘मौजूदा दौर की पत्रकारिता’ पर देश के दिग्गज पत्रकारों ने किया मंथन

रांची : ‘प्रभात खबर’ के 34वें स्थापना दिवस पर आयोजित दो दिवसीय ‘प्रभात उत्सव’ के दूसरे दिन सोमवार को मीडिया कॉन्क्लेव का आयोजन किया गया.दूसरे दिन देश के दिग्गज पत्रकारों ने मीडिया की दशा, दिशा, चुनौतियां और खतरे पर अपना विचार रखा. कार्यक्रम का आयोजन रांची स्थित सीसीएल के कार्यालय परिसर दरभंगा हाउस में किया […]

रांची : ‘प्रभात खबर’ के 34वें स्थापना दिवस पर आयोजित दो दिवसीय ‘प्रभात उत्सव’ के दूसरे दिन सोमवार को मीडिया कॉन्क्लेव का आयोजन किया गया.दूसरे दिन देश के दिग्गज पत्रकारों ने मीडिया की दशा, दिशा, चुनौतियां और खतरे पर अपना विचार रखा. कार्यक्रम का आयोजन रांची स्थित सीसीएल के कार्यालय परिसर दरभंगा हाउस में किया गया. कॉन्क्लेव का विषय था ‘मौजूदा दौर की पत्रकारिता’. ‘प्रभात खबर’ के मंच पत्रकारिता की दिग्गज हस्तियां मृणाल पांडे, राहुल देव, सिद्धार्थ वरदराजन, जहीरुद्दीन अली खान, चंदन मित्रा, संकर्षण ठाकुर ने अपने विचार रखे. कार्यक्रम को प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी एवं प्रबंध निदेशक केके गोयनका ने भी संबोधित किया. आयोजन में प्रभात खबर के परिवार केवरिष्ठ सदस्यों सहित अन्य लोग मौजूद थे. कार्यक्रम में झारखंड के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव संजय कुमार भी शामिल हुए.

सत्ता में बैठे लोग फेक न्यूज का सहारा लेने लगे हैं, जो घातक है :सिद्धार्थ वरदराजन

सबसे अंत में देश के सबसे चर्चित न्यूज पोर्टल ‘दवायर’ के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा कि अब तक मीडिया के नकारात्मक पहलुओं पर ज्यादा चर्चा हुई है. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि 20-30 साल पहले कोई सुनहरा दौर था. मैं आपको एक छोटा सा किस्सा सुनाना चाहता हूं. मैंने सबसे पहले टाइम्स ऑफ इंडिया ज्वाइन की. वहां एडिटोरियल पेज पर मैं था. 1995 में मैंने नौकरी शुरू की. हमारी लड़ाई होती रहती थी टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिक से. जर्नलिज्म का स्तर गिर रहा है. टाइम्स का बहुत ज्यादा डमिंग डाउन हो रहा है. इस पर समीर जैन हंसने लगे. उन्होंने अपने एक मुलाजिम को आर्काइव्स में भेजा और 30 साल पुराना कोई भी अखबार लाने के लिए कहा. 70 या 80 का कोई इश्यू हमारे पास आया. हमने देखा कि फ्रंट पेज सरकारी खबरों से भरा था. उसमें जर्नलिज्म कम था. आज अगर आप आर्काइव्स में देखेंगे, तो 1984 के दंगों के बारे में दिल्ली के अखबारों ने क्या छापा? सभी जानते हैं कि सरकारी और सियासी एनकरेजमेंट के साथ 3000 लोगों का देश में कत्ल-ए-आम हुआ. कांग्रेस पार्टी के बड़े-बड़े नेता उसमें शामिल थे. मुश्किल से किसी अखबार में इससे जुड़ी खबरें मिलेंगी. लेकिन, जिस स्पष्टता के साथ हम सरकार और पार्टियों की चीजों को जान-पहचान सकते हैं, तब नहीं कर सकते.

यदि हम 2002 में गुजरात के कत्ल-ए-आम के बारे में देखेंगे, तो मीडिया की भूमिका ज्यादा अच्छी थी. तेजी से तथ्य लोगों के सामने आये. ओल्ड इज गोल्ड ठीक है, लेकिन 30 साल पहले बहुत अच्छी पत्रकारिता होती थी और आज उसमें गिरावट आयी है, यह ठीक नहीं है. एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि मीडिया में बड़े उद्योगपतियों का कंट्रोल एक मसला है, लेकिन उनका कंट्रोल पहले भी था. 50-60 के दशक में जूट प्रेस आदि की बात होती थी. आज अगर हम अमेरिका की मीडिया की बात करें, तो हिंदुस्तान से कई गुना ज्यादा ग्लोबलाइजेशन हो चुका है. यहां रांची के कई अखबार मिलेंगे. हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में भारतीय भाषाओं के अखबार हैं. अमेरिका में कम संस्थान हैं, लेकिन वे ट्रंप के खिलाफ प्रोफेशन के मानक पर खरे उतर रहे हैं.हमारे लिए लोग गोदी मीडिया फ्रेज का इस्तेमाल करते हैं. इसके लिए मालिकों का कमर्शियल इंटरेस्ट जिम्मेदार है, लेकिन समस्या अलग है. इसके लिए कहीं न कहीं एक इंस्टीट्यूशनल कंप्रोमाइज हो चुका है और यह लंबे समय से हो रहा है. जिसका अंजाम हम भुगत रहे हैं.

श्री वरदराजन ने कहा कि नयी प्रौद्योगिकी की वजह से विकल्प तैयार करना नयी तरह की चीजों को लोगों के सामने पेश करना आसान हो चुका है. वायर की आज जो टीम है, यदि हमने 10-15 साल पहले प्रिंट मीडिया से हट कर कुछ करने की सोची होती, तो अखबार या पत्रिका ही विकल्प होता. हमने वायर को 6 लाख रुपये में शुरू किया. बहुत से ऐसे वेबसाइट्स हैं, सोशल मीडिया का पूरा एक फील्ड है. हमारी जो रिपोर्टिंग है, स्टोरीज हैं, ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच जाती हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया की स्टोरी शायद उतने लोगों तक नहीं पहुंच पाती. यह न्यू टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया की वजह से है.

उन्होंने का कि जिस तरह से राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया का संगठित तरीके से इस्तेमाल कर रही हैं. गोरखपुर में बच्चों की मौत के बाद सोशल मीडिया के जरिये गलत सूचनाएं प्रसारित की जा रही हैं. इसके जरिये सरकार को बचाने की कोशिश हो रही है. यानी सोशल मीडिया को भी प्रभावित करने की कोशिश हो रही है. उन्होंने कहा कि मीडिया के धर्मसंकट की बात करें, तो हकीकत को पहचानना जरूरी है. उन्होंने कहा कि बड़े संस्थानों पर जिस तरह से सरकार और कॉरपोरेट घरानों का दबाव बढ़ा है, इमरजेंसी के अलावा कभी ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि एक अखबार में यह समाचार छप सकता है कि अमित शाह की संपत्ति में 300 गुना का इजाफा हुआ. भाजपा को यह खबर नागवार गुजरी और वेबसाइट से इन समाचारों को हटा दिया गया. लोगों ने ट्विटर पर क्लिक किया, तो खुलना ही बंद हो गया. हमने अखबार में लोगों को सच्चाई का पता लगाने के लिए कहा. किसी संपादक ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली. कहां से आदेश आया, किसने समाचार को वेबसाइट से हटा दिया, इसका कोई जवाब नहीं मिला. सोशल मीडिया पर हंगामा हुआ, तो भाजपा को स्पष्टीकरण देना पड़ा.

श्री वरदराजन ने कहा कि यदि सोशल मीडिया नहीं होता, तो शायद यह बात दब जाती. इसी तरह कॉरपोरेट घराने हैं. कुछ साल पहले एक रेसिंग कार लैम्बोर्गिनी कामुंबई शहर में एक्सीडेंट हुआ. यह कार रिलायंस ग्रुप के नाम से रजिस्टर्ड थी. लेकिन इसकी खबर नहीं बनी. सोशल मीडिया में शोर मचा, तो टाइम्स ऑफ इंडिया और मुंबई मिरर जैसे अखबारों में छोटी सी खबर छपी. लेकिन, ड्राइवर के बारे में किसी को नहीं मालूम. 65 साल के एक ड्राइवर को पेश किया गया और उसने मान लिया कि वही कार चला रहा था. सोशल मीडिया और न्यू टेक्नोलॉजी की वजह से यह समाचार बन पाया. उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया दबी हुई चीजों को बाहर निकालने में अहम भूमिका निभा रहा है. उन्होंने कहा कि स्थिति बहुत खराब भी नहीं है. मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी भूमिका नहीं निभा रहा, लेकिन न्यू मीडिया उभर कर आ रहा है. जो काम बिग मीडिया नहीं कर रहा. जिन विषयों पर वह डिबेट नहीं करना चाहता, उसके लिए हम तैयार हैं.

उन्होंने कहा कि एक जमाने में सीबीआइ को पिंजड़े में बंद तोता (केज पैरट) कहा जाता था. सरकार के कहते ही रेड करती थी और सरकार के कहने पर रेड बंद कर देती थी. आज इसका कैसे इस्तेमाल हो रहा है, इस पर बिग मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती. हम सोहराबुद्दीन या अमित साह के रोल को रफा-दफा करने पर चर्चा करते हैं. उसे लोगों तक पहुंचा पाते हैं. हमें कोई दबा नहीं सकता. सच्ची पत्रकारिता में जो भरोसा करते हैं, उनके लिए सोशल मीडिया अहम भूमिका निभाता है.

यदि हम मीडिया में धर्मसंकट की बात करें, तो खबरों और विचारों को अलग करने की सबसे बड़ी चुनौती है. किसी भी अखबार या चैनल की अपनी सियासी विचारधारा हो सकती है. पायनियर यदि भाजपा को सपोर्ट करना चाहता है, तो संपादकीय पन्नों में और विचारों में पूरी तरह से कर सकता है. एक जमाने में हिंदुस्तान टाइम्स कांग्रेस का समर्थक अखबार माना जाता था, जो कहना मुश्किल है. उन्होंने कहा कि कोई भी अखबार अपने विचारों से अपनी विचारधारा को सपोर्ट कर सकता है. लेकिन समाचारों में उसकी विचारधारा की छाप नहीं दिखनी चाहिए. लेकिन एडिटोरियलाइजेशन अखबारों के साथ-साथ टीवी चैनलों पर भी स्पष्ट दिखती है. संपादकों को छोड़ दें, छोटे-छोटे रिपोर्टर भी अपने विचार और ख्याल से रिपोर्ट को कलर कर देते हैं. स्टूडियो डिस्कशन में तमाम चीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है. यह एक तरह से इंटरटेनमेंट है. खास तरह के लोगों को बुलाया जाता है, ताकि आप जो चाहते हैं, वह उससे बुलवा लें. इसमें बड़ा मसाला होता है.

उन्होंने कहा कि 1920-30 में जब यहूदियों के खिलाफ प्रचार को बहुत बढ़िया माना जाता था. जब कोई समाचार नहीं होता था, यहूदियों के खिलाफ समाचार प्रकाशित कर देते थे. इसी तरह आज मुसलिमों के खिलाफ मुद्दे खड़े करते हैं, डिबेट करते हैं. इसका मकसद हिंदू और मुसलिमों के बीच भेद खड़ा करना होता है. यह साबित करने की कोशिश होती है कि वे सच्चे भारतीय नहीं हैं. उन्होंने कहा कि चैनलों पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मदरसों को वंदेमातरम् गाने के आदेश पर चर्चा होती है. लेकिन, डिबेट के एक मेहमान ने जब गोरखपुर में बच्चों की मौत पर चर्चा करने की बात एंकर से कही, तो उसे टोका गया कि मुद्दा मदरसों में वंदेमातरम् का है. यानी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संसदीय क्षेत्र की कोई गलत बात सामने नहीं आना चाहिए.

वरदराजन ने कहा कि फेक न्यूज एक बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि कोई संपादक अपने अखबार में छपनेवाले कंटेंट पर नजर रख सकता है. लेकिन, किसी के व्हाट्सएप या किसी अन्य साइट्स पर क्या आता है, उसे रेगुलेट नहीं कर सकते. फेक न्यूज की फैक्टरी हिंदू-मुसलिम को लड़ा रहे हैं. किसी नेता को बड़ा दिखा रहे हैं, तो किसी को नीचा दिखाने में लगे हैं. बांग्लादेश का एक दो साल पुराना वीडियो पेश किया गया, जहां बीएनपी कार्यकर्ता अवामी लीग के लोगों की हत्या करता है, उसे बिहार में एक व्यक्ति की हत्या के रूप में दिखाया जा रहा है. बताया जाता है कि एक हिंदू को कितनी बेरहमी से एक मुसलमान मार रहा है.

उन्होंने कहा कि सत्ता में बैठे लोग यदि फेकन्यूज का सहारा लेने लगें, तो यह बहुत घातक होगा. उन्होंने झारखंड सरकार द्वारा प्रकाशित एक विज्ञापन का हवाला देते हुए कहा कि बिल के संबंध में गांधी जी के कोट को तोड़-मरोड़ कर धर्मांतरण बिल के लिए इस्तेमाल किया गया. उन्होंने कहा कि गांधीजी का जो संवाद है, वह गांधी आर्काइव्स में उपलब्ध है. संघ के एक व्यक्ति ने इसे अपने राजनीतिक हित में तोड़-मरोड़ कर पेश किया और झारखंड की सरकार ने कर दाताओं के पैसे से उसे अखबारों में सर्कुलेट करवाया.

उन्होंने कहा कि जब तक इस्तेहार देनेवाले अखबारों और मीडियावालों को सपोर्ट करेंगे, तब तक मीडिया पर अखबार पर उनका दबाव रहेगा. उन्होंने मीडिया हाउस से अपील की कि वे गंभीरता से सोचें कि वेस्ट और जापान में सर्कुलेशन गिर रहे हैं. भारत में जिस तेजी से अखबारों की पाठक संख्या बढ़ रही थी, उसकी रफ्तार धीमी हुई है. अखबारों का सर्कुलेशन गिर नहीं रहा है, लेकिन आनेवाले दिनों में यह गिरेगा. अंबानी जिस तरह से लोगों को सस्ता डेटा दे रहे हैं, हिंदुस्तान का न्यू रीडर अखबार छोड़ कर सीधे अपने फोन पर पढ़नेवाला है. आज अगर अखबारों पर वित्तीय दबाव है, तो आनेवाले दिनों में यह और बढ़ेगा.

उन्होंने कहा कि जब तक लोग अखबार के लिए वाजिब मूल्य नहीं चुकायेंगे, तो पैसे कहीं और से आयेंगे. यहीं से पेडन्यूज की शुरुआत होती है. उन्होंने द वायर के बिजनेस मॉडल पर भी चर्चा की. उन्होंने कहा कि अच्छे दिनों में सब साथ देते हैं. द वायर ने रीडर का सपोर्ट लेने का निश्चय किया. उन्होंने लेखकों, पत्रकारों से अपील की कि इसे सपोर्ट करें. बड़ी संख्या में लोगों ने श्रमदान दिया. एक साल तक किसी ने पैसे नहीं लिये. पाठकों से डोनेशन लेते हैं. उन्होंने कहा कि आमतौर पर अखबारों के लिए लोग पैसे नहीं देना चाहते हैं. ऐसे में जब इंटरनेट मुफ्त में उपलब्ध है, तो कोई वेबसाइट को पैसे क्यों देगा. उन्होंने कहा कि आनेवाले दिनों में वे अपने रीडर्स से अपील करेंगे कि वे साल में 2,000 रुपये देना सुनिश्चित करें, ताकि हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता जारी रहे. यदि आप चाहते हैं कि आपको निष्पक्ष और प्रभावी समाचार मिलता रहे, तो द वायर के लिए डोनेशन दें.

उन्होंने कहा कि न्यूजरूम में दलित और आदिवासी पत्रकार नहीं के बराबर हैं. इस पर भी बहस की जरूरत है. उन्होंने कहा कि यदि भारतीय पत्रकारिता पूरी तरह से हिंदुस्तान को कवर नहीं करता, तो इसकी बड़ी वजह यह है कि हमारे पास वे पत्रकार नहीं हैं, जो दलित या आदिवासी समुदाय से आते हैं. इन मुद्दों पर कभी चर्चा ही नहीं होती. इनके मुद्दों को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया जाता है. उन्होंने कहा कि जिस तरह से 70 के दशक में अमेरिकी पत्रकारिता संस्थान ने अपने गिरेबां में झांक कर देखा कि अफ्रीकन-अमेरिकन की बड़ी आबादी है अमेरिका में, लेकिन अमेरिकन न्यूजरूम्स में इनकी संख्या नहीं के बराबर है. इसके बाद तय किया गया कि जब तक उन्हें न्यूजरूम में शामिल नहीं किया जायेगा, उनके मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पायेगी. उनकी समस्याएं मीडिया में नहीं आ पायेंगी. मेरा मानना है कि जब तक अच्छी-खासी संख्या में दलित, आदिवासी, मुसलमान पत्रकार नहीं होंगे, हम उनके मुद्दों पर स्वस्थ बहस नहीं कर पायेंगे. उन्होंने कहा कि इनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन जिम्मेवार पदों पर इन्हें कोई भूमिका नहीं दी जाती. उन्होंने कहा कि बिजनेस के लिए ऐसे लोगों का मीडिया में आना जरूरी है.

उन्होंने कहा कि समाचार उद्योग के समक्ष कई संकट हैं, लेकिन न्यूजरूम में विविधता, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की सहभागिता पर गंभीरता से मीडिया संस्थानों और संपादकों के बीच चर्चा होनी चाहिए.

पत्रकारों को सही चीज के लिए लड़ना और अड़ना सीखना होगा : मृणाल पांडे

वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने कहा कि हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम क्या कर रहे हैं. कम लोगों को क्या परोस रहे हैं. उन्होंने कहा कि 1886 में राजाराम मोहन राय ने अखबार निकाला, जिसकी दृष्टि साफ थी. समाज सुधार करना इसका उद्देश्य था. इसके बाद राजा-रजवाड़ों ने भी अखबार निकालने शुरू किये. अखबारों के आने से धीरे-धीरे संवाद बढ़ा. जब नालंदा को उजाड़ा गया, तब सेनापति ने कहा कि हम लाइब्रेरी को तो जला रहे हैं, लेकिन यह तो पता कर लें कि इसमें कौन-कौन सी किताबें हैं. इस बारे में आसपास के लोगों से मालूमात की गयी कि किसी को नहीं मालूम कि लाइब्रेरी में कौन-कौन सी किताबें हैं. इसके बाद उसे जला दिया गया. समस्या यह है कि हम देखते बहुत कुछ हैं, समझते कुछ नहीं.

इमरजेंसी के वक्त मैं पत्रकार नहीं थी, लेकिन चीजों को समझती थी. इमरजेंसी लगी तो पहला पन्ना सेंसर से पास करवा कर प्रकाशित करना होता है. पंजाब केसरी ने कहा कि जोक्स वगैरह छापेंगे. कुछ दिनों बाद ही सेंसर ऊब गये और पंजाब केसरी का पहला पन्ना मंगवाना बंद कर दिया. उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में बाइपास बन जाता है. जब कोई रुकावट पेश करता है, तो नया रास्ता भी तैयार हो जाता है. मैं जैसा लिखती हूं, जितना लिखती हूं, बहुत से लोगों की पसंद का नहीं है. मेरे अपने परिचित लोग बहुत से ऐसे हैं, जो हिंदी पढ़ते भी नहीं. उनके लिए कई बार मुझे अंगरेजी में भी लिखना पड़ता है. फायदा यह होता है कि हिंदी में लिखने के 2,500 रुपये मिलते हैं, तो अंग्रेजी लिखने के लिए 8,000 रुपये मिल जाते हैं. उन्होंने कहा कि फ्रीलांस पत्रकार इज्जत के साथ मीडिया में टिका रह सकता है.

उन्होंने कहा कि अंग्रेजी मीडिया को नेशनल मीडिया कहा जाता है. हमें इस बात पर निर्ममता से विचार करना होगा कि हम हिंदी के लेखकों को कितना पैसा देते हैं. अंग्रेजी लेखकों को हिंदी लेखकों से चार-पांच गुना अधिक पैसे मिलते हैं. मृणाल पांडे ने कहा कि चार दशक की पत्रकारिता में मैंने पाया कि किसी ने इस मुद्दे पर चर्चा नहीं की कि भारतीय भाषा लिखनेवाले पत्रकारों को कितने पैसे मिलते हैं. मुझे लगता है कि हिंदी के लेखकों, पत्रकारों को भी बेहतर पैसे मिलें. उन्होंने कहा कि पत्रकारों को अड़ना सीखना होगा. उन्हें इस पर सोचना होगा कि जब उनके बाल सफेद हों, तो उनका वेतनमान सम्मानजनक हो. उन्होंने कहा कि पत्रकारों को सही चीज के लिए लड़ना और अड़ना सीखना होगा.

उन्होंने कहा कि आज पाठक वर्ग हर तरह की चीज और ताजातरीन खबरें चाहता है. इसलिए खबरों की शैली बदलनी होगी. खबरों का टेस्ट बदलना होगा. कभी 2000 शब्दों की स्टोरी आती थी. आज लोगों को शार्प, फोकस्ड, चुटीली खबरें चाहिए. इसके लिए भाषा की जरूरत होती है. पहले अपने हाउस की हैंडबुक्स होती थी, जिसकी मदद से समाचार लिखे जाते थे. हिंदी पट्टी के 11 राज्यों की अपनी अलग-अलग हिंदी है. फिर भी भाषा का एक स्टैंडर्ड होना चाहिए. उन्होंने कहा कि प्रखंड मुख्यालय का एक संवाददाता पूरा का पूरा पन्ना बना कर भेजता है. जिला मुख्यालय में बैठे किसी व्यक्ति के पास समय नहीं है कि वह उसकी भाषा ठीक कर सके. सभी समाचार पत्रों में इसकी व्यवस्था किये जाने की जरूरत है.

श्रीमती पांडे ने कहा कि हमारा पाठक पहले गाय के समान था. हम जो समाचार देते थे, वह उसे ही देखता, सुनता और पढ़ता था और हम उनसे प्रशंसा की अपेक्षा भी करते थे. आज समय बदल गया है. अब दोतरफा संवाद हो रह है. क्यों न उसका एक हिस्सा अखबार में बनाया जाये. क्यों इन अखबारों में प्रवासियों का कोई कोना नहीं है. पंजाब केसरी में हमेशा से यह रहा है. कनाडा, बेल्जियम से लोग अपना यात्रा वृत्तांत लिखते हैं और अखबार में छपते हैं. बिहार, झारखंड से पलायन हो रहा है. गांव से लोग अनय् राज्यों में पलायन कर रहे हैं. नौकरी घटने की वजह से बड़ी आबादीवाले राज्यों से पलायन और बढ़ेगा.

उन्होंने कहा कि नया पाठक सिर्फ वही नहीं है, जो रांची में बैठा है. वह पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में भी बैठा होगा. हमें खबरों के आयोजन से लेकर शीर्षक तक पर सोचना होगा. हमें स्थानीय जरूरतों के अनुरूप तो सोचने की जरूरत है ही, सिंहावलोकन करने की भी जरूरत है. उन्होंने कहा कि ग्रामीण पत्रकार किसी अखबार में नहीं हैं. श्रम विभाग के लिए कोई विशेषज्ञ पत्रकार नहीं हैं. श्रम कानून को जाननेवाले पत्रकार नहीं हैं. इन क्षेत्रों में तेजी से बदलाव आनेवाले हैं, उसके विश्लेषण के लिए पत्रकारों की जरूरत होगी, मीडिया को इसके लिए तैयार होना चाहिए.

मीडिया में महिलाओं को प्रमुखता नहीं मिलती. मैं अकेली आयी और अकेली गयी. पता नहीं मेरे बाद कब कोई महिला संपादक आयेगी. आज तक किसी महिला किसान की आत्महत्या की खबर कहीं प्रकाशित नहीं हुई. नेपाल के बाद सबसे ज्यादा कृषि कार्य करनेवाली महिलाएं भारत में हैं, लेकिन उनके मुद्दों पर कभी चर्चा नहीं हुई. किसानों की आत्महत्या के मामले में लिंग आधारित कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है.

कई मामले हैं, जिसे हम देखते हैं, लेकिन उसे प्रकाशित नहीं करते. उसका विश्लेषण नहीं करते. जिस दिन हम यह सब करने लगेंगे, नये पाठक हमसे जुड़ने लगेंगे. एनडीटीवी का मसला जब सामने आया, तो चैनल की महिलाओं ने जगह-जगह जाकर लोगों से कहा कि आप आइए और यह बतायें कि सरकार मीडिया को दबा रहा है. इसमें कोई बड़ी महिला पत्रकार नहीं थीं. ऐसी कोई पत्रकार नहीं थीं, जिन्होंने इमरजेंसी में सरकार के दमन को झेला.सिर्फ वीमेंस प्रेस क्लब की अध्यक्ष को बुलाया गया, उन्हें भी सिर्फ धन्यवाद ज्ञापन का मौका दिया गया.

उन्होंने कहा कि संस्थाओं में नयी पौध आ रही है. चीजें बदल रही हैं, लेकिन कुछ बुनियादी चीजें हैं, जिनका संरक्षण बहुत जरूरी है. मैं कहती रह गयी हिंदुस्तान टाइम्स की लाइब्रेरी का डिजिटाइजेशन होना चाहिए, लेकिन नहीं हुआ. अंग्रेजी संस्करण का हो गया, लेकिन हिंदुस्तान का नहीं हुआ. आपने भी 33 साल का सफर पूरा कर लिया है. अपने समाचार पत्रों के डिजिटाइजेशन की दिशा में काम करना शुरू कर दें.

उन्होंने कहा कि हर धंधे के बुनियादी वसूल होते हैं. उनके संस्थागत स्मृति के संरक्कोषण की जरूरत होती है. उन्होंने कहा कि अखबारों का मालिकाना हक बदल रहा है. पहले अखबार के मैनेजरों ने संपादकों को शेयर देना शुरू किया. मेरा मानना है कि घोड़े को घास से दोस्ती नहीं करनी चाहिए. इसी तरह संपादकों की नेता और मैनेजरों से गहरी दोस्ती नहीं होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि आज कई औद्योगिक घराने हैं, जो बड़े मीडिया घराने बन चुके हैं. टीवी18 ने रामोजी राव का इनाडू खरीदा. दोनों में अंबानी ने निवेश किया. यह विचित्र प्रकार का लोन था, जो बाद में इक्विटी में तब्दली हो गया. इसी तरह लिविंग मीडिया में हिस्सेदारी खरीदी गयी. डिफेंस में निवेश करनेवाले एक राज्यसभा के सांसद ने कई मीडिया ग्रुप्स खरीद लिये हैं. इसी तरह कई लोगों ने दक्षिण के मीडिया हाउसेज को खरीदे हैं.

शुरू से लगता रहा है पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न : राहुल देव

वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने कहा कि सभी मुद्दों पर पत्रकारिता के हर पहलू पर चर्चा हो चुकी है. प्रभात खबर को लंबी, कठिन और गौरवशाली यात्रा पूरी करने के लिए बहुत-बहुत बधाई. मैं इस अखबार का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं. मुझे प्रभात खबर से प्रेरणा मिलती रही है. यह अखबार पत्रकारिता के भविष्य को भी आशान्वित करता है. उन्होंने काह कि समय बहुत कठिन है. पुरानी व्यवस्थाओं की याद हमें आज भी आती है. सब अपने जमाने में जीने में यकीन रखते हैं. मैं मानता हूं कि जब हम युवा पत्रकार थे, तब चुनौतियां थीं, उसके पहले भी थीं. पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न पहले भी थी, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी. और यह रहना भी चाहिए. उन्होंने कहा कि आज मीडिया में प्रवेश की कीमत बहुत बड़ी हो गयी है. यह कीमत लोगों को हतोत्साहित करती है. किसी शहर से नया अखबार या पत्रकारिता शुरू करने का जोश तो खूब जोर मारता है, युवाओं के मन में भी मारता होगा, लेकिन अब यह संभव नहीं है. यह समय का दौर का बड़ा परिवर्तन है. दबाव भी उसी तरह के हैं. उन्होंने कहा कि हम पत्रकारिता को लेकर बहुत निराशा से भर जायें, उस दौर में यह देखना सुखद है कि देश में टेलीग्राफ, सियासत, हिंदू और प्रभात खबर जैसे कई अखबार हैं, जो बाजार में टिके हुए हैं. कठिन पत्रकारिता कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि ये सभी वही अखबार हैं, जो 30, 35, 40, 50 साल पुराने हैं. उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ और उनके मित्रों ने नयी शुरुआत की है. हम उसका बिजनेस मॉडल जानना चाहेंगे. पुराने बिजनेस मॉडल से अब कुछ नया नहीं हो सकता. उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में किसी नयी शुरुआत के लिए फंडिंग करनेवाले मिल जाते हैं, लेकिन भाषायी पत्रकारिता को फंड उपलब्ध करानेवाला कोई नहीं होता.

राहुल देव ने कहा कि हमारे देश का माहौल अंग्रेजी को सिर पर बिठाता है और देशी भाषाओं को कमतर आंकता है. उन्होंने काह कि आज देश में हम जितना दबाव महसूस करते हैं, उससे कहीं ज्यादा दबाव प्रेस के लिए इसी देश में इमरजेंसी के दौर में थी. लेकिन, मुझे भरोसा इस बात से मिलता है कि कितनी ही ताकतवर हो निजाम किसी पार्टी का, व्यक्ति का, सरकार कितनी ही निरंकुशतावादी हो, वह अस्थायी होती है. 5, 10 या 15 साल में उसे जाना होता है. एक अच्छे अखबार या चैनल की उम्र उससे ज्यादा होती है.

उन्होंने कहा कि इस फील्ड में आनेवालों को लंबी तैयारी के साथ आना चाहिए. आज जो दबाव दिख रहा है, पहले नहीं था, वह है सोशल मीडिया. समाज की एक ऐसी लहर चली है कि पाठक और दर्शक का दबाव शायद सरकारी दबाव से भी ज्यादा ताकतवर हो गया है. अब स्थिति यह है कि अधिकांश चैनलों में यह हिम्मत नहीं है कि वे अपने दर्शकों की भावना के खिलाफ कोई समाचार चला सकें. अभी आप मोदी के खिलाफ खबरें चलायेंगे, तो लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. अभी आलोचना इस निजाम की किसी तरह की आलोचना लोगों को बर्दाश्त नहीं है. जिस तरह की गालियां मिलती हैं, प्रतिरोध होता है कि कोई रास्ता नहीं दिख रहा. दिमागों की खिड़कियां बंद हो गयी हैं. ये दौर मैंने नहीं देखा. और यह भी एक बहुत बड़ा दबाव है, जो मीडिया महसूस कर रहा है.

उन्होंने कहा कि पुराने मीडिया घराने का अपने पाठकों से गहरा संबंध है, तो वे टिके हैं. आजकल के मीडिया के साथ ऐसा नहीं है. उन्होंने एड वर्ल्ड के किंगमार्टिन सॉरेल का हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने एक बार कहा था कि अच्छे पत्रकारों को लीक से हट कर मदद की जरूरत है. राहुल देव ने कहा कि एक चैनल में मुश्किल से 10-12 खबरें मिलती हैं, जिसमें कई खबरें पुरानी होती हैं. लेकिन, समाचार पत्र देख कर यह संतोष होता है कि हर पन्ने पर अलग-अलग तरह की, अलग-अलग जगह की खबरें होती हैं. चैनलों पर अखबार की तुलना में बहुत कम खबरें होती हैं और उसका दायरा भी सीमित होता है.

उन्होंने कहा कि टीवी और सोशल मीडिया ने एक बड़ी चुनौती पैदा की है. नयी पीढ़ी की जरूरतें और उन्हें पूरा करने का दबाव बढ़ा दिया है. उन्होंने कहा कि लाइफस्टाइल जर्नलिज्म की खूब चर्चा होती है. इसलिए गांवों की पत्रकारिता खत्म हो रही है. किसान जब आत्महत्या करता है, तभी समाचार बनता है, क्यों? गरीब महिला का बलात्कार होता है, तभी वह खबर बनती है, क्यों? हम लुभावनी चीजों की ओर आकर्षित होते हैं, बदसूरती से हम दूर भागते हैं. हम चमकदार, प्यारी-सी दुनिया में जीने की कोशिश करते हैं, जिसकी वजह से पलायनवाद का नया लुभावना संसार बनाने में मीडिया हिस्सेदार बन गया है.

हिंदी का ‘द हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ है ‘प्रभात खबर’ : जहीरुद्दीन अली खान

सियासत केप्रबंध संपादक जहीरुद्दीन अली खान ने कहा किविज्ञापन से हीमीडिया नहीं चलता. 80 के दशक में भी मीडिया को एड बैन था. आज भी यही स्थिति है. उन्होंने कहा कि जब अाप अवाम के मुद्दे को लेकर आगे बढ़ते हैं, तो आपको कोई बढ़ने से रोक नहीं सकता. उन्होंने कहा कि हमारा उर्दू अखबारउन चुनिंदा अखबारों में है, जो अपने पैरों पर खड़ा है. उन्होंने कहा आज हर अखबार किसी न किसी घराने से या किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि वे लोग दहेज के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. कई सामाजिक कार्यक्रमों के जरिये लोगों से जुड़ रहे हैं. उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज में नकारात्मक सोच है. वे छोटे-मोटे काम करके जीने के बारे में ही सोचते रहते हैं. उन्हें लगता है कि सरकारी नौकरी मिलेगी नहीं, तो कुछ करके कमा-खा लेंगे.

लेकिन हैदराबाद के साइबराबाद बनने के बाद उनकी मानसिकता धीरे-धीरे बदल रही है. उन्होंने कहा कि आसपास की समस्या के बारे में लिखना होगा. सोशल मीडिया इतना फास्ट है कि उस पर तत्काल किसी मुद्दे पर झगड़े शुरू हो जाते हैं. उन्होंने कहा कि आर्मी पब्लिक स्कूल पेशावर में जब हमला हुआ, तो पाकिस्तान के लोगों ने कहना शुरू किया कि सब रॉ ने करा है. इसके बाद हमले के खिलाफ मुंबई में कैंडल लाइट मार्च शुरू हुआ.

मीडिया का भविष्य क्या है. हैदराबाद से निकलते समय प्रभात खबर के बारे में पता किया. तो पता चला कि प्रभात खबर हिंदी का द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस है. यानी सबसे विश्वसनीय हिंदी अखबार है. उन्होंने कहा कि एक बार अंबानी के स्कूल के कार्यक्रम में गये थे. वहां सब नीता अंबानी से हाथ मिला रहे थे. मुकेश अंबानी के हाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधों पर थे. इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया. उन्होंने कहा कि यह तसवीर मुझे मिली, लेकिन ऊपर से दबाव आने लगे कि इसे प्रकाशित न करें. लेकिन, हम झुके नहीं.

उन्होंने कहा कि वे अपने अखबारों में डेटिंग साइट्स, पोर्न साइट्स के विज्ञापन नहीं लेते. इसका कारण यह है कि ऐसे विज्ञापन देख कर बच्चों के भविष्य पर बुरा असर होगा. हम अपने ईमान से समझौता नहीं कर सकते. हम छोटे-छोटे लोकल विज्ञापन छाप कर अखबार चला लेते हैं. उन्होंने आइएसआइएस को पैंसेवालों की जंग करार दिया. कहा कि भारत में आइएसआइएस की बात की जाती है, लेकिन उसकी तीन या चार तसवीरें आज तक सामने नहीं आयीं. उन्होंने कहा कि भारत को सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने की जरूरत है.

उन्होंने कहा कि मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में जा रहा है. उनका एजेंडा पैसा कमाना है. देश और अवाम से उनका कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने कहा कि आज हमें रोजगार की जरूरत है. पास-फेल होने की जरूरत नहीं है. उन्होंने कहा कि वक्त पर काम करें, सही काम करें, तो डिग्री या विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होगी. उन्होंने कहा कि दुनिया भर के देशों से हमारे बच्चे लौट रहे हैं. उन्हें भी रोजगार देने की चुनौती हमारे सामने होगी. उन्होंने कहा कि हम चीन और अमेरिका दोनों को चैलेंज कर सकते हैं, क्योंकि हमारे पास संभावनाएं हैं.

सोशल मीडिया के आने पर सब लोग पत्रकार बन गये : चंदन मित्रा

पायनियर के प्रधान संपादक चंदन मित्रा ने कहा कि मीडिया को आज पाठक के साथ कदमताल करने की सबसे बड़ी चुनौती है. दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया के आने पर सब लोग पत्रकार बन गये हैं. हम जब पत्रकारिता में आये थे, तब समाचार इतनी आसानी से नहीं मिलते थे. हर किसी के काम के आधार पर उनका ओहदा तय होता था. सोशल मीडिया में कोई खराबी नहीं है. लेकिन, किसी घटना या दुर्घटना का सूत्रपात होने से पहले ही मामला बाजार में फैल जाता है. कुछ ऐसी एजेंसियां हैं, जो समाचारों की पुष्टि किये बगैर उसे प्रसारित कर देती हैं. कई साइट ऐसे हैं, कई चैनल ऐसे हैं, जो किसी भी सूचना को प्रसारित कर देते हैं, बिना उसकी पुष्टि किये. ट्विटर, फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स पर चलनेवाली खबरों को ही सही मान लेते हैं आजकल के पत्रकार.

उन्होंने कहा कि पहले कमेंटेटर कोई संपादक स्तर का व्यक्ति होता था. आज हर कोई कमेंटेटर हो गया है. मैं एक बार गार्जियन में काम करनेवाले अपने एक मित्र को मिलने गया. मैंने देखा कि संपादक दूसरी बिल्डिंग में बैठे थे. इसकी वजह मैंने पूछी, तो बताया कि रिपोर्टर और एडीटर को अलग-अलग रखा जाता है, ताकि कोई संपादक किसी रिपोर्टर से प्रभावित न हो जाये. उन्होंने कहा कि अखबार का संवाददाता घटना को देख कर प्रभावित हो जाता है, लेकिन संपादक को प्रभावित नहीं होना है. यदि किसी मुद्दे पर टिप्पणी लिखनी है, तो एक दिन का इंतजार कर लें. यह कई साल पहले की बात है. हाल में उसी मित्र से मिला, तो पूछा कि वही व्यवस्था कायम है, उसने बताय कि आज सब कमेंटेटर हो गये हैं. पुरानी व्यवस्था खत्म हो गयी.

उन्होंने कहा कि इस सिद्धांत पर सोचने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि पत्रकारों को धैर्य रखना चाहिए. खासकर नये पत्रकारों को. पहले ही दिन उन्हें विश्लेषक की भूमिका में नहीं आ जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि आज यदि कहीं दंगा होता है, तो अलग-अलग चैनल के रिपोर्टर वहां पहुंच जाते हैं. सब अलग-अलग विचारधारा के होते हैं और समाचार उसी विचारधारा के अनुरूप करते हैं. जल्दी और ज्यादा से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बोलने की प्रवृत्ति बढ़ गयी है. टेलीविजन ने इसे शुरू किया. यह घातक है.

उन्होंने कहा कि प्रिंट में कई खामियां हैं. बावजूद इसके समाचार फिल्टर होकर पाठक तक पहुंचते हैं. इसलिए यह ज्यादा शुद्ध है. कम से कम पहले यह व्यवस्था थी. पहले रिपोर्टर की कॉपी को चीफ रिपोर्टर या ब्यूरो चीफ पढ़ते थे, कुछ सवाल-जवाब होते थे. इससे कई सवालों के जवाब मिल जाते थे, स्पष्टीकरण आ जाता था. फिर डेस्क पर बैठे लोग उसकी कुछ चीजों को ठीक करते थे. इसके बाद समाचार प्रकाशित या प्रसारित होता था. इस तरह खबर पुष्ट हो जाती थी. लेकिन, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप के जमाने में सारे बांध टूट गये. अब तो हमें इसके साथ ही जीना होगा. उन्होंने कहा कि कई कंपनियां मुफ्त में टेलीफोन बांट रही हैं और देश के तमाम उपभोक्ताओं पर कब्जा करना चाहते हैं. ऐसे लोग खाली समय में समाचार देखते हैं और उसी के आधार पर फेसबुक या ट्विटर पर टिप्पणी कर देते हैं.

उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया सामाजिक अशांति फैलाने में अहम भूमिका निभाता है. मैं मीडिया पर बंदिश का आलोचक हूं. उन्होंने बताया कि आपातकाल के दौरान सभी अखबारों में एक सेंसर बैठा होता था. समाचार संपादकों को अपने समाचार को संपादित करने के बाद उसे उस सेंसर से पास कराना होता था. उसके बाद ही अखबार में प्रकाशित किया जाता था. उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा मीडिया पर नियंत्रण बेहद खतरनाक है. उन्होंने पत्रकारों की साख के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि आज कोई मकान मालिक पत्रकार और वकील को मकान नहीं देना चाहता. कोई अपनी बेटी की शादी भी पत्रकार से नहीं करना चाहता. इसे सुधारना होगा. मीडिया की जो स्थिति है, वह चिंता का विषय है, लेकिन इस स्थिति को मीडिया के लोग ही बदल सकते हैं.

चीयरलीडर्स की भूमिका में आ गया है मीडिया : संकर्षण ठाकुर

टेलीग्राफ के रोविंग एडीटर संकर्षण ठाकुर ने अपने संबोधन में कहा कि पाठकों तक हर तरह का समाचार पहुंचाने के लिए दिमाग की बत्ती जली रहनी चाहिए. यह बुझनी नहीं चाहिए. मुझे मूल रूप से दो ही बातें कहनी है. उन्होंने कहा कि किसी चीज की सराहना करना मेरा काम नहीं. मैं अपनी बात बोलूंगा. यदि आप मुझे दीवार दिखाने ले जायेंगे, तो मैं उसे मुक्का मार कर देखूंगा कि यह कहां से गिरनेवाली है. आजकल पॉजिटिव जर्नलिज्म की खूब बात हो रही है. हमारे यहां एक संस्था है सूचना और प्रसारण मंत्रालय. हर राज्य मे पीआरडी नाम की एक संस्था है, जिससे हर पत्रकार परिचित होगा. हर मंत्री का भी एक सूचना कार्यालय है. मंत्रियों के लिए प्राइवेट एड एजेंसियां भी काम कर रही हैं, जो पॉजिटिव न्यूज देती रहती हैं. फिर पत्रकारों को उस तरफ क्यों सोचना चाहिए. मौलिक बात है कि पत्रकारिता कंट्रोल होना चाहिए. पीआरडी से आपके टेबल पर शाम को कागज की मोटी गठरी पहुंच जाती है. क्या हमें इसे सिर्फ छाप देना चाहिए. या हमें यह पता करना चाहिए कि इसमें जो चीजें कही गयी हैं, वह सही हैं या गलत. तथ्यों की जांच करने की जरूरत नहीं है. आज मीडिया चीयरलीडर्स बन गये हैं. दो दिन पहले गोरखपुर में जो दुर्घटना हुई, उसमें मीडिया प्लेटफॉर्म पर क्या चर्चा थी और दो दिन बाद वही चर्चा किस दिशा में मुड़ गयी, सबने देखा. हम सब जानते हैं कि सही क्या है, गलत क्या है. सब जानते हुए हम चुप रहते हैं. उन्होंने कहा कि लोग पढ़े-लिखे हैं, सब जानते हैं. जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे टीवी देख कर सब समझ जाते हैं.

श्री ठाकुर ने कहा कि कई सालों से पश्चिम बंगाल सरकार को विज्ञापन नहीं मिला. केंद्र सरकार से कुछ-कुछ विज्ञापन मिलता है. वह भी 5-10 फीसदी तक ही सीमित है. वह भी इसलिए ताकि कोई केस न बन सके कि आपने हमारा बहिष्कार कर रखा है. हम अपने पाठकों के दम पर बाजार में टिके हुए हैं. भविष्य में क्या होगा, नहीं जानता, लेकिन ईमानदारी से हम काम कर रहे हैं. हम सिर्फ आपकी बात मान कर उसे छापने के लिए नहीं हैं. उन्होंने कहा कि दुनिया के गिने-चुने देशों में भारत है, जो पत्रकारों को मान्यता देती है. पत्रकारों को सरकार का मान्यताप्राप्त पत्रकार नहीं होना चाहिए. उसे अपने संस्थान से, पाठकों से मान्यताप्राप्त होना चाहिए. सरकार का नहीं.

उन्होंने कहा कि मेरे पत्रकार साथी कहते हैं कि कहां गांव-गांव घूमते रहते हैं. रहिये दिल्ली में आराम से. उन्होंने कहा कि हमारे देश में जहां इतनी असमानता है, वहां हमने इतना बड़ा दुस्साहस किया है. दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसे शहरों के पाठकों को देश के अन्य हिस्सों की खबरें नहीं पहुंचायेंगे, तो आप अपने काम से बेईमानी कर रहे हैं. देश में विषमता तेजी से बढ़ रही है. अमीर जिस तेजी से अमीर हो रहा है, उस तेजी से कोई गरीब अमीर नहीं हो रहा है. समाचार की जो प्रकृति है, वह सत्ताकेंद्रित है. कभी-कभी सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ समाचार मीडिया मे आते हैं.

उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोरखपुर के संसदीय क्षेत्र गोरखपुर में इतनी गंदगी फैली है. इसकी जानकारी अब मीडिया में आ रही है. न्यूजरूम में फीलगुड न्यूज की चर्चा होती है. बाथटब में बैठी किसी हीरोइन के पास किसी की लाश की तसवीर कैसे लगा देंगे, गांव के गरीब की तसवीर कैसे लगा देंगे, इस पर चर्चा होती है मीडिया के न्यूजरूम में. फीलगुड की जितनी चर्चा हमारे देश में हो रही है, उतना फीलगुड आज है नहीं. पहले यह ऐड बन कर आता था, अब खबर के रूप में आता है.

उन्होंने कहा कि सरकार के मंत्रियों के बयानों पर हम स्टोरी करते हैं. उन्होंने पहले क्या कहा था, अब क्या कह रहे हैं. बिहार में 15 साल के लालू प्रसाद यादव के राज के बाद बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी, तो लोगों को लगा शहर में गाड़ी चला सकते हैं. सड़कें बनने लगीं. लोगों में उम्मीद की किरण जगी, तब मैंने एक किताब लिखी थी. पिछले दिनों बिहार में जो हुआ, उस पर एक अखबार लिखा. तब लोगों ने सवाल उठाये कि आप ऐसा कैसे लिख सकते हैं? लालू का राज खत्म हुआ, तो आपने नीतीश की तारीफ की थी. मैंने कहा कि नीतीश ने अच्छा काम किया, तो तारीफ की. गलत काम करेंगे, तो पटक देंगे. यही मेरा काम है. मेरे दिमाग की बत्ती बुझी नहीं है, जल रही है.

उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री पत्रकारों के साथ विमान में नहीं जाते, ताकि लोग उनसे सवाल न कर सकें. ऐसा लोकतंत्र में नहीं होना चाहिए. उन्होंने कहा कि मीडिया की छवि बन गयी है कि यह बिकाऊ है, किसी की दलाली करने आया होगा. हमने खुद को इतना भ्रष्ट बना लिया है. सोशल मीडिया में लोग हर दिन हमारा पोस्टमार्टम करते हैं. इस स्थिति को हमने खुद पैदा किया है. यह सब होता है कुछ पाने की चाह में.

श्री ठाकुर ने कहा कि आज ऐसे पत्रकारों की भरमार है, जो सब कुछ जानते हैं. लेकिन, वे अपनी जिम्मेदारियों से दूर रहते हैं. उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियों के नेता इसका आनंद लेते हैं. वे अपनी गाड़ी में बैठा कर सब कुछ बोलते हैं. कैबिनेट में क्या-क्या हुआ. पार्टी की बैठक में क्या-क्या हुआ. साथ ही ताकीद कर देंगे कि छापियेगा मत. फिर हमारा दो घंटा बरबाद क्यों किया? सिर्फ नेता की न सुनें, अपने दिमाग की बत्ती जलाये रखिये, ताकि कोई आपका इस्तेमाल न कर सके.

पत्रकारिता के साथ प्रिंट मीडिया को बचाये रखने की चुनौती पर भी हो चर्चा : केके गोयनका

प्रभात खबर के एमडी केके गोयनका ने कहा किमेरे लिए यह गौरव की बात है कि पूरी तरह पत्रकारिता को समर्पित कार्यक्रम में मुझ जैसे गैर-पत्रकार को बोलने का अवसर दिया. प्रभात खबर के 33 वर्ष पूरे करने के लिए प्रभात खबर के सभी साथियों को बधाई. 34 साल पहले जिस छोटे से पौधे को लगाया गया था, आज यह वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है. 1989 में अखबार बंदी की कगार पर आ गया था. वर्तमान प्रबंधन ने अखबार को टेकओवर किया और अखबार को बंद होने से बचाया. जब हम यहां काम करने आये थे अखबार की 300 प्रतियां बिकती थीं. आज हम 8 लाख से अधिक प्रतियां बेचते हैं. देश के तीन राज्यों में हमारे 10 संस्करण हैं. देश के टॉप-10 अखबारों में हम 7वें नंबर पर हैं. उन्होंने कहा कि ईश्वर के साथ और अखबार में काम करनेवाले साथियों की बदौलत हमने हर चुनौती को पार किया और अखबार की साख बनायी. पत्रकारिता पर विशेषज्ञ अपनी राय रखेंगे. उन्होंने कहा कि आज के दौर में अखबार निकालने के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत है. उन्होंने कहा कि अखबार 10-12 रुपये में तैयार होता है और उसकी बिक्री 3 रुपये में करनी होती है. ऐसे में यदि विज्ञापन न हो, तो अखबार नहीं बच पायेंगे. हमारे सबसे बड़े विज्ञापनदाता सरकार हैं. केंद्र सरकार, राज्य सरकार. हमारे कुल विज्ञापन रेवेन्यू का 30 फीसदी केंद्र और राज्य सरकारों से आता है. अखबार विज्ञापनदाताओं पर टिका है. ऐसे में आप विज्ञापनदाताओं के खिलाफ नहीं जा सकते. बाजार मीडिया पर किस तरह हावी हो सकता है, उसे आप इस तरह समझें कि बड़े मीडिया घराने कहते हैं कि वे एड बिजनेस में हैं, न्यूज बिजनेस में नहीं. उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में प्रभात खबर दूसरे नंबर पर है, लेकिन सात सालों से सरकार ने विज्ञापन बंद कर रखा है. उन्होंने कहा कि अखबार अब कंज्यूमर प्रोडक्ट हो गये हैं. उन्होंने कहा कि पाठक डिमांडिंग हो गये हैं. उन्हें मुफ्त का अखबार भी चाहिए, साथ में तरह-तरह के गिफ्ट भी चाहिए. उन्होंने कहा कि बिहार में इन दिनों कवर प्राइस की लड़ाई चल रही है. अगर हॉकर अखबार को किलो के भाव बेच दे, तो वह फायदे में रहता है.

उन्होंने कहा कि मीडिया की क्रेडिबिलिटी धीरे-धीरे घट रही है. टीवी मीडिया को देख लें, तो हर चैनल किसी न किसी विचारधारा से जुड़ा है. सोशल मीडिया फॉल्स और फेक चीजें दे रहा है, प्लांटेड चीजें दे रहा है. लोगों को भरमा रहा है. श्री गोयनका ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की साख अभी भी थोड़ी सी बची हुई है. यदि इस साख को बचाये रखेंगे, पाठकों का भरोसा कायम रखेंगे, तभी हम बाजार में बचे रह पायेंगे. उन्होंने कहा कि रांची में प्रभात खबर की कीमत 5 रुपये है. बाकी बड़े अखबार 3 रुपये में बिक रहे हैं. यह अखबार की क्रेडिबिलिटी ही है कि लोग ज्यादा पैसे देकर भी प्रभात खबर खरीद रहे हैं.

उन्होंने कहा कि कॉन्क्लेव में पत्रकारिता पर चर्चा तो होनी ही चाहिए, मीडिया के बुनियादी सवालों पर भी चर्चा होनी चाहिए. यदि आनेवाले दिनों में अच्छी पत्रकारिता करनी है, तो इस पर चर्चा होनी ही चाहिए. उन्होंने कहा कि अखबार चलाना है, तो संपादकीय और गैर-संपादकीय विभाग को मिल कर काम करना होगा. संपादकीय अखबार की आत्मा है. उस आत्मा को बचाये रखना है, उसे बचाते हुए ऐसा बिजनेस मॉडल बनाना पड़ेगा, जिससे आप बचे भी रहें, आगे भी बढ़ें और जनहित की पत्रकारिता भी कर सकें. उन्होंने कहा कि हमने इन सब चीजों पर ध्यान दिया है. इसलिए मुझे विश्वास है कि दुनिया का कोई भी अखबार झारखंड में आ जाये, हम शीर्ष पर बने रहेंगे.

पिछड़े व सुदूर क्षेत्र से निकल कर प्रभात खबर ने देश में हासिल किया मुकाम : आशुतोष चतुर्वेदी

अतिथियों का स्वागत करते हुए प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने कहा कि हम सबके लिए गर्व की बात है कि हमने 33 साल पूरे कर लिये हैं. आज हम 34वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं. कई बाधाओं को पार करते हुए प्रभात खबर ने देश की पत्रकारिता में अपना अहम मुकाम स्थापित किया है. एक सुदूर और पिछड़ा माने जानेवाले क्षेत्र रांची से शुरुआत कर प्रभात खबर ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना मुकाम बनाया है. यह पूर्व प्रधान संपादक हरिवंश जी, प्रबंधन और प्रबंधकीय सहयोगी केके गोयनका, आरके दत्ता, अनुज कुमार सिन्हा जैसे लोगों की मेहनत का यह परिणाम है. प्रभात खबर का सूत्र वाक्य है ‘अखबार नहीं आंदोलन’. सामाजिक सरोकार के मुद्दों को प्रभात खबर ने प्रमुखता से उठाया. उन्होंने कहा कि जिन घपलों, घोटालों को शासन-प्रशासन ने दबाने की कोशिश की, इस अखबार ने उन मुद्दों को उठाया, उन घोटालों का खुलासा किया. इसके लिए अखबार को सत्ता का कोपभाजन भी बनना पड़ा. चारा घोटाले का खुलासा प्रभात खबर ने सबसे पहले किया. मुख्यमंत्री और कई मंत्री इसमें फंसे थे. उनके खिलाफ आवाज उठाना छोटी बात नहीं थी. लेकिन प्रभात खबर ने हिम्मत दिखायी और खोजी पत्रकारिता के जरिये एक-एक घोटालों को उजागर किया. परिणाम यह हुआ कि सत्ता में बैठे लोगों को जेल जाना पड़ा.

उन्होंने कहा कि प्रभात खबर पाठकों की कसौटी पर भी खरा उतरा है. उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का बड़ा संकट दिख रहा है. आज सोशल मीडिया में कई सही और गलत खबरें चल रही हैं. पिछले दिनों साहित्यकार काशीनाथ सिंह का एक पत्र सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जो कथित तौर पर प्रधानमंत्री को लिखी गयी थी. इसमें पाकिस्तान की तारीफ की गयी थी. बाद में उन्हें इसका खंडन करना पड़ा. बाद में एक पत्रकार सामने आया और कहा कि उसने यह पत्र लिखा था. लेकिन इसे किसने काशीनाथ सिंह के नाम से वायरल कर दिया. मुझे भी नहीं मालूम. इसके बाद मामला शांत हुआ.

पिछले दिनों रांची की एक तसवीर वायरल हुई थी, जिसमें कहा गया कि मंदिर में आग लग गयी है. पता किया गया, तो मालूम हुआ कि कहीं और की तसवीर थी, जिसे रांची की तसवीर बता कर वायरल कर दिया गया.प्रधानसंपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने शाम को टेलीविजन चैनल पर होनेवाले पैनल बहस के बारे में कहा कि ऐसे कार्यक्रमों में चोटीकटवा पर बहस होती है. इससे अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है.

उन्होंने कहा कि अखबारों ने भी जनसरोकार के मुद्दे उठाने बंद कर दिये हैं. किसानों, गरीबों और मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ताओं की खबरें दब जाती हैं. बाजार के दबाव में समाचार शहर केंद्रित हो गये हैं. गरीब तबके की खबरों को सभी ने दरकिनार कर दिया है. लेकिन प्रभात खबर हर वर्ग की सूचना देता है. यहां तक कि हम पंचायत स्तर तक की खबरें जुटाते हैं और उसे वहां तक पहुंचाते हैं. प्रभात खबर ने पिछले दिनों दो कार्यशाला का आयोजन किया. इसके तहत ग्रामीण महिलाओं को बुलाया. उन्हें बताया कि उनके अधिकार क्या हैं, उन्हें कौन-कौन सी सुविधाएं मिलनी चाहिए, इसके बारे में वे कैसे सूचना जुटा सकते हैं,इसका प्रशिक्षण दिया गया. प्रशिक्षण के बाद उन्होंने ग्रास रूट की खबरें देनी शुरू की, जिसका फायदा अब हमें मिल रहा है.

बिहार-झारखंड के चार-चार गांवों को प्रभात खबर ने गोद लिया है. हम कोशिश करेंगे कि जनप्रतिनिधियों की मदद से लोगों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवायें. शिक्षा के क्षेत्र में हमसे जो भी योगदान बन पड़ेगा, हम करेंगे. मीडिया के सामने कई और चुनौतियां हैं. समाचारों में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है. उन्होने कहा कि देश के प्रतिष्ठित पत्रकार यहां आये हैं, हम इन सभी लोगों से नयी तकनीक के बारे में और मीडिया में हो रहे बदलावों के बारे में जानेंगे.

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