नक्सलवाद की विचारधारा से दूर हुए झारखंड के नक्सली, पैसे के लिए बन गये ‘कांट्रैक्ट किलर’!
मिथिलेश झा @ रांची नक्सलवाद एक विचारधारा है. ऐसी विचारधारा, जो समानता की बात करता है. अमीरी और गरीबी की खाई को मिटाने की बात करता है. लेकिन, झारखंड में नक्सलवाद वह अपनी विचारधारा से भटक गया है. रमेश सिंह मुंडा की हत्या की जांच के दौरान कुंदन पाहन और उसके साथियों ने एनआईए को […]
मिथिलेश झा @ रांची
नक्सलवाद एक विचारधारा है. ऐसी विचारधारा, जो समानता की बात करता है. अमीरी और गरीबी की खाई को मिटाने की बात करता है. लेकिन, झारखंड में नक्सलवाद वह अपनी विचारधारा से भटक गया है. रमेश सिंह मुंडा की हत्या की जांच के दौरान कुंदन पाहन और उसके साथियों ने एनआईए को जो जानकारी दी है, उससे पता चलता है कि झारखंड के नक्सली न केवल विचारधारा से दूर हो गये हैं, बल्कि वे वस्तुत: ‘कांट्रैक्ट किलर’ बन गये हैं.
दरअसल, अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के बाद भारत में विकास का जो दौर शुरू हुआ, उसमें गरीब पिछड़ते चले गये. बिहार, ओड़िशा जैसे राज्योंकेसुदूर इलाकों में आज भी विकास की किरण नहीं पहुंची.बिहारसे अलग होने के बाद अस्तित्वमें आये झारखंडखनिजसंपदा से परिपूर्ण होने के बावजूद आज भीअतिपिछड़े राज्यों में गिनाजाताहै. समाजमेंजो असमानता है, उसके लिए नक्सलवादी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं. वे वैचारिक लड़ाई लड़ने की बात करते हैं,लेकिन विचारधारा से अब उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
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दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में,जहां संविधान ने सबको समान अधिकार दिये हैं, आज भी बड़ी विषमता है. देश की बड़ी आबादी रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जद्दोजहद कर रही है. इस विषमता को दूर करने के लिए समाज का एक तबका बागी हो गया.
ऐसे ही बागी लोगों में शामिल थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चारू मजुमदार और कानू सान्याल. इनका मानना था कि मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है. दोनों ने 1967 में पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से एक आंदोलन की शुरुआत की. नक्सलबाड़ी गांव से आंदोलन शुरू होने की वजह से उसका नाम नक्सलवाद पड़ गया.
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सबको समान अधिकार दिलाने और विकास की एकतरफा आंधी को रोकने के लिए शुरू किया गया यह आंदोलन कुछ ही दिनों में बिहार, ओड़िशा, आंध्रप्रदेशऔरमध्यप्रदेश तक फैल गया. बाद में बिहार, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश से क्रमश: झारखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना अलग राज्य बन गये. नये राज्यों में नक्सलवाद तेजी से फैला. लेकिन, नक्सलवादकेरास्ते पर चले लोग आंदोलन की मूल भावना से भटक गये.
कम से कम झारखंड के नक्सली तो नक्सलवाद के सिद्धांतों पर नहीं चल रहे. झारखंड के नक्सली गरीबों और मजलूमों के हक की लड़ाई लड़ने की आड़ में मोटी कमाई कर रहे हैं. ये पैसे लेकर उठाईगिरी और हत्या केकारोबार में संलिप्त हो गये हैं. ये विकास में बाधक तो बन ही रहे हैं, गरीबों, शोषितों को भी सता रहे हैं.
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संसाधनों के अभाव और लालफीता शाही में फंसी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर लोगोंके शोषणऔरउनके अधिकारों के हननकेखिलाफ जो सशस्त्र आंदोलन शुरू हुआ था, उसके नाम पर अबझारखंडमें हत्या, लूट मची हुई है. बड़ी संख्या में बेगुनाह नक्सलवाद की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन गांव के गरीब और पिछड़ों को कुछ हासिल नहीं हुआ. नक्सलवाद के नाम पर कुछ लोग सामंत बन बैठे हैं और गरीबोंकोनक्सली बनाकर उनका शोषण और उत्पीड़न कर रहे हैं.
नक्सलवाद की ‘राजधानी’ बन चुके झारखंड में नक्सली वारदातों पर गौर करें, तो पता चलेगा कि वे राज्य के कई बड़े नेताओं की हत्या कर चुके हैं. इनमें से किसी भी हत्या की वजह उनकी विचारधारा का टकराव नहीं था. ये हत्याएं पैसे के लिए की गयी. जमशेदपुर के सांसद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) नेता सुनील कुमार महतो की हत्या हो, निरसा के विधायक गुरुदास चटर्जी, बगोदर के विधायक महेंद्र सिंह, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी या तमाड़ के जदयू विधायक और झारखंड के पूर्व मंत्री रमेश सिंह मुंडा की हत्या.
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इनमें से कई लोगों की हत्या में नक्सलियों की संलिप्तता के प्रमाण नहीं मिले हैं. लेकिन, रमेश सिंह मुंडा हत्याकांड की जांच के दौरान नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) की पूछताछ में पूर्व नक्सलीकमांडरकुंदन पाहन जो खुलासे किये हैं, उससे नक्सलियों का मूल चरित्र पूरी तरह उजागर हो गया है. जेल में बंद कुंदन पाहन ने कहा है कि रमेश सिंह मुंडा की हत्या के लिए भाकपा माओवादी के पोलित ब्यूरो ने 5 करोड़ रुपये की सुपाड़ी ली थी.
इतना ही नहीं, वर्षों से यह बात कही जा रही है कि नक्सली चुनावों में पैसे लेकर लोगों को किसी एक खास पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए लोगों पर दबाव बनाते हैं. यानी,शोषितों और वंचितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए लड़ने की बात करनेवाले नक्सली, आम लोगों को अपनी इच्छा के अनुरूप अपने मताधिकार का भी इस्तेमाल नहीं करने देते.