!!अमित खरे!!
वह 27 जनवरी 1996 की तारीख थी, जब मैंने चाईबासा कोषागार सहित पशुपालन विभाग के विभिन्न कार्यालयों तथा पशु प्रक्षेत्रों (फार्म) पर छापा मारा था. पशुओं को चारा उपलब्ध कराने के नाम पर हो रही अवैध निकासी के मद्देनजर यह कार्रवाई हुई थी. दरअसल, तब तत्कालीन दक्षिण बिहार के विभिन्न जिलों में ऐसा हो रहा था. मैं ठीक तरह से याद कर पा रहा हूं वह जाड़े की सर्द सुबह थी, जब मैं चाईबासा कोषागार में घुसा, जो ब्रिटिश जमाने के एक पुराने भवन के कोने में स्थित था. मैं वहां पशुपालन विभाग से संबंधित बिल की जांच करने लगा. यह देख कर मैं हैरान रह गया कि वहां मौजूद सभी बिल एक ही अमाउंट (रकम) 9.9-9.9 लाख के थे. एक ही आपूर्तिकर्ता के नाम से जारी ये बिल प्रथम दृष्टया फरजी (बोगस) लग रहे थे.
मैंने इस मुद्दे पर बात करने के लिए जिला पशुपालन पदाधिकारी तथा उनके अधीनस्थ पदाधिकारियों को बुलाया. थोड़ी ही देर बाद मुझे बताया गया कि सभी अधिकारी अपने कार्यालय से फरार हो गये हैं. इसके बाद मैंने अपने मजिस्ट्रेट के साथ खुद जिला पशुपालन कार्यालय जाने का फैसला किया. वहां पहुंचने पर देखा कि बैंक ड्राफ्ट तथा बड़ी संख्या में फरजी बिल के साथ-साथ नकद राशि भी कार्यालय में बिखरी हुई थी. साफ था कि भागने वाले जल्दी में सब छोड़ कर भागे थे. दोपहर करीब 12 बजे मैंने मजिस्ट्रेट से कहा कि वह पशुपालन विभाग के सभी कार्यालयों को तत्काल सील करें. स्टेट बैंक की ट्रेजरी शाखा को भी अादेश दिया गया कि पशुपालन विभाग को सभी तरह का भुगतान रोक दिया जाये. वहीं सभी पुलिस थानों को भी सतर्क करने के आदेश दिये गये ताकि कोई सीलबंद कार्यालयों में जाकर किसी तरह के कागजात नष्ट न कर सके. बाद में महालेखाकार कार्यालय तथा वित्त विभाग से क्रॉस वेरिफिकेशन से यह स्पष्ट होने पर कि कोषागार से निकाली गयी रकम पशुपालन विभाग के कुल बजट से भी अधिक थी, मैंने विभिन्न मामले में एक के बाद एक लगातार प्राथमिकी दर्ज करानी शुरू की, जिसे बाद में कई लोगों ने इसे चारा घोटाला का नाम दिया.
तत्कालीन बिहार सरकार ने आश्चर्यजनक तरीके से इन फरजी निकासी की जांच तत्कालीन विकास आयुक्त, बिहार फूल सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी बना कर शुरू की, जो पहले पशुपालन विभाग के ही आयुक्त सह सचिव थे. कमेटी में तब के वर्तमान पशुपालन सचिव जूलियस बेक भी सदस्य थे. दरअसल कालांतर में उक्त दोनों अधिकारी चारा घोटाले में आरोपी भी बनाये गये. इस मामले में असली मोड़ तब आया, जब नेशनल मीडिया ने चारा घोटाले से संबंधित खबर छापनी शुरू की कि कैसे एक मुरगी क्विंटल भर दाना खा गयी तथा कैसे दोपहिया वाहनों पर पशुओं को ढोया गया. इसी दरम्यान पटना हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी तथा कोर्ट ने मार्च 1996 में इस मामले की जांच का जिम्मा सीबीआइ को सौंपने का आदेश दिया.
इसी के बाद सीबीआइ ने वरीय अधिकारियों व राजनीतिज्ञों की इस मामले में मिलीभगत की साजिश का पर्दाफाश किया. मेरे विचार से यदि सीबीआइ को यह केस और पहले सौंपा जाता, तो कहीं अधिक सरकारी संपत्ति की रिकवरी होती. पर जो भी हुआ, वह उन कई अज्ञात लोगों के सहयोग के बगैर नहीं होता, जिन्होंने जांच के दौरान हमेशा मेरी मदद की. इनमें एक तत्कालीन एडीसी, लाल श्याम चरण नाथ शाहदेव थे, जिन्होंने पूरे कोषागार लेखा की सावधानी से जांच की.
वहीं तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वीएस देशमुख, जिन्होंने सभी थानों को तत्काल एलर्ट किया तथा कागजात की हिफाजत के लिए सुरक्षा व्यवस्था बहाल की थी. इनके अलावा तत्कालीन एसडीओ सदर, फिदेलिस टोप्पो तथा एक दूसरे अधिकारी विनोद चंद्र झा, जिन्होंने पशुपालन विभाग के कार्यालयों तथा पशु प्रक्षेत्र (फार्म) आदेश के तत्काल बाद सील करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. विभिन्न प्रखंडों के बीडीओ तथा सीओ भी, जिन्होंने अहम सबूत जुटाये. इनमें से ज्यादातर राज्य सेवा के अधिकारी थे. मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि तत्कालीन बिहार में वैसे ईमानदार व न्याय प्रिय लोगों की भी कमी नहीं थी, जो राज्य की बेहतरी के लिए जोखिम उठाने को तैयार थे.
(लेखक वर्तमान में झारखंड के विकास आयुक्त हैं. तब वह चाईबासा के डीसी थे.)