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झारखंड : मरना मंजूर है, लेकिन तुम बंदरों की गुलामी स्वीकार नहीं

जयंती : शहीद पांडेय गणपत राय, जिन्हें अंग्रेजों ने देशभक्ति के लिए सजा में फांसी का फंदा दिया और उन्होंने स्वीकार किया कनकलता सहाय यूं तो शहीदों का न अपना कोई परिवार होता है और न अपना कोई स्वार्थ. वे होते हैं तो सिर्फ देश के लिए, सोचते हैं तो सिर्फ देश के लिए और […]

जयंती : शहीद पांडेय गणपत राय, जिन्हें अंग्रेजों ने देशभक्ति के लिए सजा में फांसी का फंदा दिया और उन्होंने स्वीकार किया
कनकलता सहाय
यूं तो शहीदों का न अपना कोई परिवार होता है और न अपना कोई स्वार्थ. वे होते हैं तो सिर्फ देश के लिए, सोचते हैं तो सिर्फ देश के लिए और जीते या मरते हैं तो सिर्फ देश के लिए. एेसे ही एक वीर पुरुष थे : शहीद पांडेय गणपत राय. अंग्रेजी सत्ता से लोहा लेनेवाले झारखंड के सपूत गणपत राय को अंग्रेजों ने देशभक्ति के लिए सजा में फांसी का फंदा दिया और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया. जब अंग्रेज कमिश्नर गाल्टन ने नियमत: उनकी अंतिम इच्छा पूछी, तो उनके अंतिम बोल थे-अंग्रेजों तुम्हें तो यहां से भागना ही पड़ेगा, क्योंकि हमें मरना स्वीकार है, पर तुम बंदरों की गुलामी हमें स्वीकार नहीं.
ऐसी विभूतियां किन परिवारों से आयी हैं यह जानना हमें जरूरी है. पांडेय गणपत राय का जन्म 17 जनवरी 1809 में लोहरदगा जिले के भौंरो नामग ग्राम में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुअा था. उनके चाचा सदाशिव राय पालकोट के महाराज जगन्नाथ शाहदेव के यहां दीवान थे. अत: गणपत राय को अच्छी शिक्षा-दीक्षा के लिए अपने पास पालकोट ले आये थे. वहां पर उन्होंने महलों की शान-शौकत के बीच रहते हुए हिंदी, उर्दू, फारसी भाषाअों का ज्ञान, तीर, भाला व बंदूक चलाना, घुड़सवारी तथा अन्य वीरता के गुणों की शिक्षा पायी थी.
वह बहुत ही तीव्र बुद्धिवाले और हाजिरजवाब थे. उनकी शादी के विषय में एक बहुत ही रोचक घटना है. 15-16 वर्ष की उम्र में गणपत राय अपने एक संबंधी की बारात में गया जिले के एक ग्राम कदवा गये थे. वहां एक रस्म होता था-सरातियों के प्रश्नों का सही उत्तर बारातियों को देना होता था. उनके हर प्रश्न का उत्तर गणपत राय तुरंत छंदों में बांध कर देते जा रहे थे. उनकी हाजिरजवाबी से प्रसन्न होकर दुल्हन के एक रिश्तेदार ने उनके पिता से, अपनी बेटी के लिए गणपत राय का रिश्ता मांगा और आनन-फानन में उसी मंडल में उनका भी ब्याह हो गया. वह गये थे अकेले, पर लौटे डोली में दुल्हन के साथ.
चाचा सदासिव राय की मृत्यु के बाद सब तरह से उपयुक्त समझ कर महाराजा जगन्नाथ शाहदेव, गणपत राय को दीवान पद की जिम्मेवारी सौंप कर अपनी मौजमस्ती में डूबे रहते. बचपन से ही उन्होंने अंग्रेजों को अपने देश के लोगों पर अत्याचार करते देखा था. अधिकतर जमींदार अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बने उनकी हर आज्ञा का पालन करने में गर्व महसूस करते थे.
उनके कहने पर रैयतों को हंटरों से पिटवाते, बंधुआ मजदूर बना कर बेगारी करवाते, लगान न दे पाने पर उसकी पूरा फसल कटवा कर अपने घर मंगवा लेते और गरीब किसानों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती. उनकी बहू-बेटियों की इज्जत सरेआम लूट ली जाती. यह सब गणपत राय ने बचपन से देखा था. उनका मन विद्रोह से भर उठता था, वह तब बालक थे, पर अब वह वहां के दीवान थे. अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बने जगन्नाथ शाहदेव को गणपत राय ने बहुत समझाया-बुझाया कि वे अंग्रेजों का साथ न दें और अपने रैयतों पर अत्याचार न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी. तब क्रुद्ध होकर वह दीवान पद से इस्तीफा देकर भौरों लौट आये, क्योंकि उनमें बचपन से ही देशप्रेम का जज्बा भरा हुआ था.
ग्यारह गांवों की उनकी जमींदारी थी. रैयतों के लिए उनके हृदय में दया और प्यार का भंडार था. अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए वह खुद की सेना तैयार करने में जुट गये. एक अगस्त 1857 को डोरंडा छावनी में सिपाहियों ने बगावत कर दी और दो अगस्त को रांची विद्रोहियों के कब्जे में आ गया. गणपत राय भी सिपाहियों के विद्रोह के प्रेरणा-स्रोत थे. अत: उन्हें बहुत खुशी हुई.
गणपत राय ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के साथ मिल कर अंगरेजों के प्रति वफादार जमींदारों, अफसरों को लूटने और दंड देने का काम किया. डोरंडा छावनी के सिपाहियों ने भी सर्वसम्मति से गणपत राय को सेनानायक बना दिया. विद्रोह की क्रांति पूरे बिहार और झारखंड में फैल गयी. अंग्रेजों के बीच उनका आतंक बढ़ता गया. एक अंधेरी रात में वह गंतव्य से रास्ता भटक गये और अपने ही संबंधी के घर उस रात रुक गये.
उनके बढ़ते आतंक और उन्हें गिरफ्तार करने में असफल अंग्रेज अफसरों ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़वाने वाले को 500 रुपये इनाम देने की घोषणा कर दी थी. शायद इसी इनाम के लालच या आपसी दुश्मनी की वजह से उनके संबंधी ने गणपत राय के सोते ही उनके कमरे में बाहर से ताला लगा दिया और लोहरदगा थाना में जाकर इसकी सूचना दे आये. फिर क्या था, तुरंत दल-बल के साथ पुलिस आयी और उन्हें गिरफ्तार कर रांची ले आयी.
नियम के विरुद्ध उनका मामला कोर्ट में न ले जाकर, वहीं रांची के थाने में कोर्ट बैठा कर दूसरे ही दिन फांसी की सजा सुना दी गयी. 21 अप्रैल 1858 को वर्तमान जिला स्कूल में कदंब के पेड़ की डाली पर उन्हें फांसी दे दी गयी, जो अभी शहीद स्थल के नाम से जाना जाता है. उनकी फांसी की सजा की जानकारी उनके परिवारवालों को भी नहीं दी गयी थी.
(लेखिका पांडेय गणपत
राय की प्रपौत्री हैं)

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