यह संगीन अपराध है : दर्द से बिलबिला रहे बच्चे, डॉक्टर साहेब हड़ताल पर
II साकेत कुमार पुरी II अस्पतालों में पहुंचे छोटे-छोटे बच्चे दर्द से बिलबिला रहे थे. मां दर्द से कराह रहे बच्चों को छाती से लगाये खुद भी दर्द में डूबी जा रही थी. अस्पताल पहुंच कर भी इन्हें इलाज मयस्सर नहीं हुआ, क्योंकि डॉक्टर साहेबों ने हड़ताल कर रखी थी. इनकी मांगें चाहे कितनी भी […]
II साकेत कुमार पुरी II
अस्पतालों में पहुंचे छोटे-छोटे बच्चे दर्द से बिलबिला रहे थे. मां दर्द से कराह रहे बच्चों को छाती से लगाये खुद भी दर्द में डूबी जा रही थी. अस्पताल पहुंच कर भी इन्हें इलाज मयस्सर नहीं हुआ, क्योंकि डॉक्टर साहेबों ने हड़ताल कर रखी थी.
इनकी मांगें चाहे कितनी भी जायज हों, पर मरीजों को मरने के लिए छोड़ कर अपनी बात मनवाने का यह तरीका सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग है. पूरी व्यवस्था को हाइजैक कर अपनी मांगें मनवाने को किसी भी तर्क से कैसे उचित ठहराया जा सकता है? इधर, एक हड़ताल खत्म हुई नहीं कि, रिम्स के जूनियर डॉक्टरों ने हड़ताल पर जाने की बात कह दी है. इनकी जो भी मांगें हैं उन्हें मनवाने के लिए निरीह मरीजों के कंधे पर बंदूक रखने की जरूरत क्यों पड़ रही है इन्हें?
ऐसे समय में देश के महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु याद आते हैं. अंग्रेजों का राज था और जिस कॉलेज में वे पढ़ाते थे, उसमें उनकी तनख्वाह अंग्रेज प्रोफेसरों से कम थी. इस अन्याय का उन्होंने विरोध किया, वह भी एक-दो दिन नहीं, पूरे तीन साल तक. लेकिन विरोध के लिए उन्होंने पढ़ाना बंद नहीं कर दिया.
अपने कर्तव्य से कोई समझौता नहीं किया. इस महान वैज्ञानिक ने तीन साल तक लगातार एक हाथ पर विरोध स्वरूप काली पट्टी बांधी और बिना तनख्वाह लिये पढ़ाते रहे. हार कर अंग्रेजी हुकूमत को झुकना पड़ा. ऐसे उदाहरण जिस देश में हों, वहां निरीह लोगों की आह और दर्द को ढाल बना कर अपना हित साधने को जायज नहीं ठहराया जा सकता.