परिचय
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आज रांची आयेगा फादर बुल्के का ”पवित्र अवशेष” ….जानें इनके बारे में
विश्राम के लिए अपनी कर्मभूमि लौट रहा हिंदी का मनीषी परिचय जन्म : 01 सितंबर, 1909 मृत्यु : 17 अगस्त 1982 फादर बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट के एक गांव रामस्केपेल में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ व माता का नाम मारिया बुल्के था. अभाव अौर संघर्ष भरे अपने […]
विश्राम के लिए अपनी कर्मभूमि लौट रहा हिंदी का मनीषी
जन्म : 01 सितंबर, 1909
मृत्यु : 17 अगस्त 1982
फादर बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट के एक गांव रामस्केपेल में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ व माता का नाम मारिया बुल्के था. अभाव अौर संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन गुजारने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी. बुल्के ने पहले ल्यूवेन विवि से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी की डिग्री हासिल की.
1930 में ये एक जेसुइट बन गये.1932 में नीदरलैंड के बलकनवर्ग में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद 1934 में भारत के लिए निकले. नवंबर 1936 में मुंबई होते हुए दार्जिलिंग पहुंचे. इसके बाद झारखंड में गुमला में पांच साल तक गणित पढ़ाया.
1938 में हजारीबाग के सीतागढ़ा में पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से इन्होंने हिंदी अौर संस्कृत सीखी. 1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग में विशारद की परीक्षा पास की. 1941 में इन्हें पुजारी की उपाधि दी गयी. शास्त्रीय भाषा में रुचि के कारण इन्होंने कोलकाता विवि से संस्कृत में मास्टर डिग्री अौर इलाहाबाद विवि में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की.
1950 में इन्हें भारत की नागरिकता मिली. इसी वर्ष वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुए. केंद्रीय हिंदी समिति के सदस्य भी रहे. 1973 में इन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया. इनकी हिंदी-अंग्रेजी व अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश काफी प्रसिद्ध हैं. इनके मुख्य प्रकाशन मुक्तिदाता, नया विधान व नीलपक्षी हैं. इन्हें भारत सरकार द्वारा 1974 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.
हिंदी के मनीषी पद्मभूषण डॉ फादर कामिल बुल्के विश्राम के लिए अपनी कर्मभूमि रांची लौट रहे हैं. 13 मार्च को उनका पवित्र अवशेष नयी दिल्ली से हवाई मार्ग से रांची आ रहा है. 14 मार्च को उनका पवित्र अवशेष संत जेवियर्स कॉलेज में स्थापित किया जायेगा. यहां उन्होंने कुछ समय हिंदी व संस्कृत के विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य किया था.
कॉलेज में बुल्के शोध संस्थान व पुस्तकालय की स्थापना भी की गयी है़ पांच मार्च को उनका अवशेष दिल्ली के कश्मीरी गेट स्थित सिमेट्री से निकाला गया. एम्स में इलाज के क्रम में 17 अगस्त 1982 को मृत्यु होने पर उन्हें इसी सिमेट्री में दफनाया गया था़
मनोज लकड़ा
रांची : कश्मीरी गेट, दिल्ली के संत निकोलसन कब्रिस्तान से फादर कामिल बुल्के का अवशेष निकालने की प्रक्रिया पांच मार्च को पूरी हुई़
इस प्रक्रिया की शुरुआत विद्या ज्योति कॉलेज ऑफ थियोलॉजी के प्राध्यापक फादर मिलियानुस ने कब्र की आशीष व प्रार्थना से की थी़ सोसाइटी आॅफ जीसस, दिल्ली के प्रोविंशियल फादर सेबस्टियन जेरकास्सेरी ने खुदाई कार्य की शुरुआत की़ उनका अवशेष रांची लाने पर सोसाइटी ऑफ जीसस में दो वर्षों से चर्चा चल रही थी़ मृत्यु के बाद उन्हें दिल्ली में ही दफनाया गया था़ तब कुछ व्यावहारिक समस्याओं के कारण उनका अवशेष रांची नहीं लाया जा सका था.
सोसाइटी ऑफ जीसस रांची के प्रोविंशियल फादर जोसफ मरियानुस कुजूर कहते हैं कि फादर बुल्के के एक भक्त ने दिल्ली में उनकी दफन क्रिया के समय ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि फादर बुल्के का पार्थिव शरीर जरूर रांची ले जाया जायेगा़ इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट, नयी दिल्ली के एचओडी फादर रंजीत तिग्गा ने फादर बुल्के के अवशेष को कब्र से निकालने और इसे रांची भेजने के कार्यों में अहम भूमिका निभायी.
श्रद्धासुमन अर्पित किया जायेगा : एयर इंडिया के फ्लाइट नंबर 417 से अवशेष का कास्केट (मंजूषा) बिरसा मुंडा एयरपोर्ट पहुंचेगा़ वहां फादर जोसेफ मरियानुस कुजूर इसे फादर तिग्गा से ग्रहण करेंगे़ इसके बाद एयरपोर्ट से रांची जेसुइट्स के मूल मठ मनरेसा हाउस (इस मठ में फादर बुल्के इलाज के लिए एम्स ले जाने से पूर्व लंबे समय तक कार्यरत रहे) तक एक कारवां निकलेगा.
जगह-जगह उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया जायेगा़ कारवां के संत जॉन स्कूल पहुंचने पर वहां के छात्र व शिक्षक श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. मनरेसा हाउस में एक छोटी श्रद्धांजलि सभा होगी. उसके बाद अवशेष को मनरेसा हाउस के प्रार्थनालय में रखा जायेगा़
संत जेवियर्स कॉलेज में होगा समाधि स्थल
बुधवार को मनरेसा हाउस से सुबह 9़ 30 बजे संत जेवियर्स कॉलेज के लिए शोभायात्रा निकाली जायेगी. यहां फादर मरियानुस कॉलेज के प्राचार्य फादर निकोलस टेटे व रेक्टर फादर हेनरी बारला को फादर बुल्के का अवशेष सौंपेंगे. इसके बाद कार्डिनल तेलेस्फोर पी टोप्पो अपना संदेश देंगे, प्रार्थना करेंगे व समाधि स्थल की आशीष करेंगे़
साहित्यिक क्रियाकलाप को धार्मिक कर्तव्य का हिस्सा माना
फादर पी पोनेट्ट एसजे
फादर कामिल बुल्के के जीवन में दो महत्वपूर्ण बिंदु रहे हैं- जेसुइट होने का उनका आह्वान एवं उनका हिंदी आह्वान और ये दोनों अानुषांगिक नहीं थे़
भारत पहुंच कर दार्जिलिंग में कुछ समय रहने के बाद वे गुमला में पढ़ाने के लिए नियुक्त हुए, जहां वे फौरन हिंदी का अध्ययन करने लगे. जैसे उपर्युक्त लेख में वे लिखते हैं: मैं सोचता हूं कि हिंदी और भारतीय संस्कृति के प्रति मैंने जो इतना आकर्षण अनुभव किया, इसके लिए मैं अपने विद्यार्थी जीवन का आभारी हू़ं मेरे स्वदेश बेल्जियम में दो भाषाएं प्रचलित हैं:
उत्तर में फ्लेमिश और दक्षिण में फ्रेंच़ बहुत वर्षों तक समूचे देश में फ्रेंच भाषा का वर्चस्व था- प्रशासन में, सेना में, स्कूल और यूनिवर्सिटी स्तर पर और उत्तर में शिक्षित जन अपने बीच में फ्रेंच बोलना और फ्रेंच संस्कृति अपनाना अपनी शान समझते थे़ मैं 1935 में भारत पहुंचा. मुझे आश्चर्य और खेद भी हुआ जब मैंने देखा कि बहुत से शिक्षित जनों को अपनी सांस्कृतिक परंपरा का बोध नहीं है और वे अंग्रेजी बोल सकना और विदेशी संस्कृति के मुलम्मे में मांजा जाना गर्व की बात मानते है़ं इसलिए हिंदी पर अधिकार पाने का उनका संकल्प उनके चरित्र के अनुकूल था़
उन्होंने वर्ष 1938 में सीतागढ़ा, हजारीबाग में श्री बद्रीदत्त, बनारस यूनिवर्सिटी के संस्कृत स्वर्णपदक भूषित के मार्गदर्शन में हिंदी का अध्ययन किया, उन्होंने उन्हें संस्कृत के मूल तत्व भी सिखाये. 1939 में उन्होंने कर्सियोंग जाकर ईश शास्त्रीय अध्ययन आरंभ किया, जिसके क्रम में उन्होंने द सेवियर, चारों सुसमाचारों का समन्वय रचा, जिसके अनेक संस्करण निकले़ बाद में उन्होंने इसका हिंदी में अनुवाद भी किया़ ईश शास्त्र में एमए के लिए उन्होंने न्याय वैशेषिका पर एक लंबा शोध निबंध लिखा, जो 1947 में प्रकाशित हुआ़
1941 में पुरोहित अभिषिक्त होकर वे कर्सियोंग से चले गये और एक वर्ष बाद उन्होंने कोलकाता से संस्कृत में बीए किया़ दो वर्ष बाद वे हिंदी में एमए के लिए इलाहाबाद गये़ पीएचडी के लिए उन्होंने अपना शोध प्रबंध ‘रामकथा, उत्पत्ति और विकास’ हिंदी में लिखा. बिहार अकादमी के लिए उन्होंने मेटरलिंक के ल्वजो ब्ल्यू का भी अनुवाद नील पंक्षी शीर्षक से किया था़ विशेष अवसरों पर रांची व दिल्ली में करीब 50 रेडियो भाषण भी दिये़
तुलसीदास के प्रति समर्पण की स्वीकारोक्ति
उनके हिंदी श्रोताओं में कुछ यह विश्वास करना चाहते थे कि वे उनकी धार्मिक प्रतीति में भाग लेने आये है़ं इस आभास को दूर करने के लिए वे साहसपूर्वक कहते: मैं रामभक्त नहीं, तुलसी भक्त हू़ं शायद इसी भ्रममूलक धारणा को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने उपर्युक्त प्रबंध लिखा, जिसका शीर्षक उन्होंने ‘ईसाई की आस्था- हिंदी और तुलसी भक्ति’ रखा़
यह उनके कट्टर ख्रीस्तीय विश्वास और हिंदी तथा तुलसीदास के प्रति उनके समर्पण की स्वीकारोक्ति है़ इनमें वे उस आजीवन प्रतिबद्धता की गहरी धार्मिक प्रेरणा भी प्रकट कर देते है़ं
उन्होंने कहा ‘ मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरा अंग्रेजी-हिंदी कोश एक सेवा कार्य है, जो मैं इस देश के लिए कर सका. क्योंकि मैं अपने साहित्यिक क्रियाकलाप को अपने धर्मसंघीय कर्तव्य का ही एक भाग मानता हू़ं ईसा के प्रति अपनी भक्ति से ही मुझे भारत और भारतीयों की जितनी हो सके सेवा करने की प्रेरणा मिली है.
धर्मसंघीय जीवन में प्रवेश करने के बाद इस समर्पित अस्तित्व के पूर्व पांच वर्षों के प्रयत्न सतत रूप से मेरे हृदय में प्रभु के प्रति अनन्य भक्ति पोषित करने में लगाये गये़ ईश्वर में आस्था और भक्ति अब कम हो गयी है यह बात नहीं- कम से कम ऐसी आशा करता हूं- परंतु मैं अपने हृदय में जन- जन के प्रति अनुराग और सहानुभूति पोषित करने की विशेष चिंता करता हू़ं वस्तुत: मेरे मधुरतम अनुभवों में एक यह है कि मैं किसी का बोझ हलका कर सका़ ‘
(‘छोटानागपुर के सप्रेम सेवार्थ’ में प्रकाशित लेख के अंश)
1993 में बेल्जियम से रांची लाकर दफनाया गया था फादर कांस्टेंट लीवंस का अवशेष
लीवंस ने लड़ी थी आदिवासी गरिमा की लड़ाई
रांची : फादर कामिल बुल्के से पूर्व बेल्जियन मिशनरी फादर कांस्टेंट लीवंस (11 अप्रैल 1856- 07 नवंबर 1893) का पवित्र अवशेष बेल्जियम से लाकर नवंबर 1993 में पुरुलिया रोड स्थित संत मरिया महागिरजाघर में दफनाया गया था़
छोटानागपुर में आदिवासियों के लिए उनके कार्यों ने उन्हें ‘छोटानागपुर के प्रेरित’ का दर्जा दिलाया़ लोयला मैदान में प्रार्थना सभा का आयोजन हुआ था, जिसमें कार्डिनल तेलेस्फोर पी टोप्पो, बिशप स्टीफन तिड़ू, बुर्ग बेल्जियम के बिशप आर वेंगलुवे, बिशप रोजर, बिशप ऑलिवर वानेस्ट व फादर लीवंस के रिश्तेदार गिलबर्ट मौजूद थे़ तत्कालीन पोप जॉन पाॅल द्वितीय का संदेश भी पढ़ कर सुनाया गया था़ फादर लीवंस वर्ष 1885 में छोटानागपुर आये थे़
उसी साल नवंबर में उन्होंने तोरपा में मुंडा आदिवासियों के बीच अपनी सेवकाई शुरू की़ वहां उन्होंने कर्ज और जमींदारों के शोषण के चक्रव्यूह में फंसे आदिवासियों की दुर्गति देखी़ उन्होंने आदिवासियों के पारंपरिक कानूनों का अध्ययन किया और न्यायालयों में आदिवासियों को उनका हक-अधिकार दिलाने की वकालत शुरू की़ अंग्रेज मजिस्ट्रेटों को आदिवासियों के अलिखित पारंपरिक कानूनों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया़ इसके बाद आदिवासियों को कानूनी मामलों में लगातार जीत मिलने लगी़
इसके साथ ही उस क्षेत्र में मसीही धर्म स्वीकार करने वालों की तादाद लगातार बढ़ने लगी़ कहा जाता है कि उनके सात साल के कार्यकाल में लगभग 70 हजार लोग मसीही बने़ बाद में उन्हें मिशन डायरेक्टर बना कर रांची भेजा गया, जहां से वे सामाजिक, न्यायिक, शिक्षा व धर्मप्रचार से जुड़े कार्यों का समन्वय करने लगे़
इस बीच वह टीबी के शिकार हो गये़ डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें दार्जिलिंग भेजा गया, पर कुछ महत्वपूर्ण काम निबटाने के लिए वे जल्द ही रांची लौट आये़ बीमारी के गंभीर होने पर उनके सुपीरियर्स ने उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए वापस बेल्जियम भेजा. वहां लुवेन में सात नवंबर 1893 को उनका निधन हो गया.
किसने क्या कहा
बाइबल का हिंदी में अनुवाद संभवत: सबसे बड़ी उपलब्धि
फादर बुल्के की संभवत: सबसे बड़ी उपलब्धि बाइबल का हिंदी में अनुवाद है़ अपने ईश शास्त्र अध्ययन के दौरान उन्होंने बाइबल के चार सुसमाचार का एकीकृत रूप हिंदी में ‘मुक्तिदाता’ व ‘सेवियर’ लिखी़ उन्होंने नये मसीही धार्मिक पाठ संग्रह का संपूर्ण अनुवाद किया़ साथ ही सुसमाचार, प्रोरितों के कार्य, बाइबल के नया नियम और स्त्रोत ग्रंथ का हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया़ उन्होंने बाइबल के पुराने नियम के अनुवाद का काम लगभग पूरा कर लिया था़
रांची विवि के एक हिंदी विद्वान के सहयोग से किया गया अनुवाद काफी लोकप्रिय हुआ़ हिंदी को देश व उत्तर भारत के चर्च में प्रमुखता दिलाने के लिए वे इस भाषा के विकास व वृद्धि के लिए सतत प्रयत्नशील रहे़ फादर कामिल बुल्के अपने लेखन, संभाषण व बुद्धिजीवियों से संपर्क के प्रति हमेशा समर्पित रहे़ महाकवि तुलसीदास के सम्मान में पूरे उत्तर भारत में आयोजित वार्षिक कार्यक्रमों में उन्होंने कई व्याख्यान दिये.
– फादर जोसफ मरियानुस कुजूर, सोसाइटी ऑफ जीसस रांची प्रोविंस के प्रोविंशियल
फादर बुल्के अपना हर काम पूरी निष्ठा से करते थे
जब फादर कामिल बुल्के संत जेवियर्स कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे, तब मैं उनका छात्र था़ जब दिल्ली से एमए की पढ़ायी कर लौटा, तब उनसे संपर्क बढ़ा़ उन्हें दमा की शिकायत थी. इसलिए जब उन्हें बढ़ी टोली स्थित डॉ दिनेश्वर प्रसाद के घर या कहीं और जाना होता था, तब वह मुझे साथ ले जाते थे़ इसी क्रम में उन्होंने मुझे दो नसीहत दी थी़ पहला, कई जगह एक साथ खुदाई करोगे, तो पानी मिलने में कठिनाई होगी़ इसलिए एक ही जगह गहरी खुदाई करो़ दूसरा, किसी बागीचे के लिए माली का कदम सबसे अच्छा खाद है़ जहां माली के कदम पड़ते हैं, वहां की फसल लहलहाती है़
वे अपना हर काम पूरी निष्ठा से करते थे़ उनकी मृत्यु के बाद सोसाइटी ने शोध संस्थान व पुस्तकालय बनाने का निर्णय लिया, ताकि हिंदी के प्रेमी व शोधार्थियों को उनकी किताबों का लाभ मिल सके़ इसकी स्थापना मनरेसा हाउस में की गयी, जिसे अब संत जेवियर्स कॉलेज में स्थानांतरित कर दिया गया है़
– फादर इमानुएल बाखला, कामिल बुल्के शोध संस्थान व बुल्के पुस्तकालय के निदेशक
‘भारत मेरी कर्म भूमि है मुझे विदेशी मत कहो’
जब भी तुलसी दास से संबंधित कोई जानकारी लेनी होती, हम मनरेसा हाउस स्थित उनके आवास चले जाते थे़ फादर बड़े उत्साह से हमारी बात सुनते. कहीं संदेह होने पर पुस्तकें पलटते और तब तक हमें बताते जब तक हम संतुष्ट न हो जाते़ उदाहरण देकर बताते व कथा शैली में पढ़ाते थे़ तुलसी दास की कोई बात बताते हुए उनमें असीम आत्मिक संतोष का अनुभव होता था़
शुरू-शुरू में आदतवश जब हम उनसे कोई बात अंग्रेजी में पूछते, तब डांट कर कहते थे- यही बात कह पाने की क्षमता हिंदी में नहीं है क्या? हम झेंप जाते थे़
उनकी डांट हमें अच्छी लगती थी़ हिंदी के प्रति उनकी निष्ठा देख हमें सुखद आश्चर्य होता था़ एक बार तुलसी जयंती के अवसर पर भाषण देने के लिए जब मैंने ‘विदेशी फादर’ शब्द से संबोधित किया, तो फादर आहत हुए़ कहा मैं किसी भी भारतीय से कम भारतीय नहीं हू़ं यह मेरी कर्म भूमि है, मनोभूमि है़ मुझे विदेशी मत कहो़
– डॉ कमल कुमार बोस, हिंदी विभागाध्यक्ष, संत जेवियर्स कॉलेज
महाकवि तुलसीदास के भक्त थे फादर बुल्के
फादर बुल्के महाकवि तुलसीदास के भक्त थे. वे देश के महान विद्वानों में से एक थे. उनका जीवन शिक्षण प्रशिक्षण और शोध कार्यों में ही बीता. वे संस्कृत-हिंदी के जाने माने लेखक व शोधकर्ता थे.
वे बहुत अच्छे प्राध्यापक थे. उनका व्यवहार बहुत सरल था.अपने संस्थान में वे सभी का स्वागत दिल से करते थे. सबकी एक समान इज्जत करते थे. लाखों युवक उनसे प्रेरणा लेकर आज उनके संस्थानों से जुड़े हुए हैं. उन्होंने रामायण व गीता का गहन अध्ययन किया.
-विंसेंट बरवा, सिमडेगा धर्मप्रांत के बिशप
जात-पात से ऊपर उठ कर दलितों के लिए चिंता करते थे
फादर बुल्के इतने वत्सल थे कि मुझे उन्हें फादर कहना अच्छा लगता था़ एक बार उनके कक्ष में उनकी कुर्सी पर बैठने में मैं संकोच कर रहा था, तो उन्होंने मुझे बलपूर्वक अपनी कुर्सी पर बैठा कर कहा था कि आप मेरी जगह लीजिए़ जात-पात के सारे बंधनों को लांघ कर दलितों के लिए चिंता करते दिखते थे और यही उन्हें तुलसी से जोड़ता है़ ईसाई दृष्टिकोण और तुलसी की मानवीयता, करुणा, इनमें कोई अंतर नहीं है़ फादर का पुस्तकालय विद्यार्थियों के लिए हमेशा खुला रहता था़ एक बार मैंने उनसे कहा कि फादर पार्लर की हिंदी क्या होती है?
जबकि मैं उनका कोश देख चुका था़ उन्होंने पूछा- मैंने क्या लिखा है, फिर पलट का देखा तो उसमें बैठक, बैठकखाना लिखा था़ मैंने पूछा यदि ऐसा है, तो ड्राइंग रूम क्या है? पार्लर और ड्राइंग रूम में व्यक्ति अंतर कैसे करे? उन्होंने कहा कि हमारे देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिनके घराें में ड्राइंग रूम और पार्लर अलग-अलग हैं? इसलिए हमारे लिए यह दोनाें अर्थ ठीक है़ इस तरह की अनेकों यादें है़ं फादर नहीं हैं, पर अपने असंख्य श्रद्धालुओं व प्रेमियों के हृदय में जीवित है़ं
– डॉ अशोक प्रियदर्शी, साहित्यकार व रांची विश्वविद्यालय में हिंदी के पूर्व प्रोफेसर
द छोटानागपुर से विशेष लगाव था फादर बुल्के का
फादर कामिल बुल्के का दक्षिणी छोटानागपुर से विशेष लगाव था. संत जेवियर कॉलेज रांची में उन्होंने काफी समय बिताया. विशेष रूप से उन्होंने तीन क्षेत्रों में काम किया. रामचरित मानस पर रिसर्च किया, इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी की रचना की व बाइबल का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया. हिंदी के प्रति उनका विशेष लगाव था़ उन्होंने अपना जीवन छोटानागपुर में बिताया. उनका जीवन सबों के लिए अनुकरणीय है. समाज के प्रत्येक तबके के लोगों को उन्होंने समान दृष्टि से देखा. वे बहुत ही सरल स्वभाव के थे़ सभी से दिल से मिलते थे़
-फादर सीप्रियन कुल्लू, गुमला धर्मप्रांत के विकर जेनरल
मुख्य प्रकाशन
1. रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
2. हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
3. अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
4. मुक्तिदाता, (हिंदी, 1972)
5. नया विधान, (हिंदी, 1977)
6. नीलपक्षी, (हिंदी, 1978)
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