।। अरविंद मिश्रा ।।
रांची : ऐतिहासिक मुड़मा जतरा का गुरुवार को मुख्यमंत्री रघुवर दास ने विधिवत उद्घाटन किया. यह जतरा प्रत्येक वर्ष राजधानी रांची से करीब 28 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग- 75 पर स्थित मुड़मा गांव में लगाया जाता है. प्राय: मुड़मा जतरा दशहरा के 10वें दिन आदिवासी समुदायों की ओर से आयोजित किया जाता है.
* मुड़मा गांव और जतरा का इतिहास
मुड़मा जतरा का इतिहास बहुत पुराना है. जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के सह प्राचार्य डॉ हरि उरांव ने बताया कि मेला कब और कैसे शुरू हुआ इसकी कोई लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसे उरांव जनजाति के रोहतास गढ़ से आगमन और मुंडाओं के साथ आपसी भाईचारा के रूप में देखा जाता है.
उन्होंने बताया कि छोटानागपुर के इतिहास के अनुसार, जब मुगलों ने रोहतास गढ़ पर आक्रमण कर वहां कब्जा कर लिया, तो उरांव जनजातियों को वहां से पलायन करना पड़ा और उसी क्रम में वे सोन नदी पार कर पलामू होते हुए रांची जिला आये. रांची आने के उपरांत उनका मुंड़मा गांव में ही मुंडाओं से मुलाकात हुई. उरांव जनजातियों ने अपनी व्यथा उनसे सुनाई, तब मुंडाओं ने उन्हें पश्चिमी वन क्षेत्र में रहने का आदेश दिया. उस समय यहां मुंडाओं का राज हुआ करता था. चूंकि, यह समझौता उसी मुड़मा गांव में हुआ था, इसलिए प्रत्येक वर्ष उरांव जनजाति यहां उसी स्मृति में मुड़मा जतरा का आयोजन करते आ रहे हैं.
* जतरा खूंटा की होती है पूजा
मुड़मा जतरा के दिन सरना धर्मगुरुओं की अगुआई में शक्ति का प्रतीक जतरा खूंटा की पूजा-अर्चना की जाती है. पहान को लोग डोली या पालकी या फिर कंधे में बैठाकर मेला परिसर लाते हैं और फिर जतरा खूंटा की परिक्रमा करते हैं.उसके बाद पहान सरगुजा फूल और अन्य पूजन सामग्रियों के साथ खूंटा की पूजा करते हैं. पहान प्रतिक स्वरूप दीप जलाते हैं और इस प्रकार मेला का विधिवत उद्घाटन होता है.* सफेद और काला मुर्गा की दी जाती है बलिमुड़मा जतरा में पहान खूंटा की पूजा के उपरांत वहां काला या सफेद मुर्गे के बलि जरूर देते हैं. यह परंपरा से चली आ रही है.
* आदिवासियों का शक्ति पीठ मुड़मा
मुड़मा, उरांव जनजातियों के लिए केवल जतरा भर नहीं है, बल्कि इसे उरांव समुदाय शक्ति पीठ के रूप में मानते हैं. इसे उरांव और मुंडाओं के मिलन स्थल के रूप में भी जाना जाता है. यहां आदिवासी समुदाय के लोग आते हैं और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं.