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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राजनीतिक दल हुए मुखर, कहा देश के 11 लाख से ज्यादा आदिवासी उजड़ जायेंगे, सरकार हस्तक्षेप करे

रांची : वन क्षेत्र में रहनेवालों के अधिकार को लेकर राजनीतिक दल मुखर हो रहे हैं. वन क्षेत्रों में जिन लोगों का पट्टा निरस्त कर दिया गया है, उन्हें खाली कराने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक दल सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं. राजनीतिक दलों का कहना है कि वन पट्टा […]

रांची : वन क्षेत्र में रहनेवालों के अधिकार को लेकर राजनीतिक दल मुखर हो रहे हैं. वन क्षेत्रों में जिन लोगों का पट्टा निरस्त कर दिया गया है, उन्हें खाली कराने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक दल सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं. राजनीतिक दलों का कहना है कि वन पट्टा निरस्त होने से देश भर में 11 लाख आदिवासी उजड़ जायेंगे. झारखंड में भी हजारों की संख्या में वन क्षेत्र में रहने वालों को बेदखल होना होगा़
28 हजार आदिवासी-मूलवासी परिवार को वन पट्टा दिलाये सरकार : झामुमो
झामुमो ने सरकार से मांग की है कि वनाधिकार अधिनियम से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल करे, ताकि राज्य के वंचित लगभग 28 हजार आदिवासी-मूलवासी परिवारों को वनाधिकार पट्टा मिल सके.
केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को वन अधिकार अधिनियम 2006 के मामले में एक आदेश पारित किया है. इस आदेश से झारखंड समेत देश के 11 लाख से अधिक वन अाधारित परिवार प्रभावित होंगे. झारखंड सरकार की अकर्मण्यता का परिणाम है कि उनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र देकर यह स्वीकार किया गया कि राज्य के एक लाख सात हजार 187 जनजाति समुदाय व तीन हजार 569 मूलवासी परिवारों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत अपना दावा पेश किया. इसमें से सरकार ने 27 हजार 809 आदिवासी परिवार व 298 मूलवासी परिवार के दावों को निरस्त कर दिया.
उन्होंने कहा कि सरकार ने राज्य के कोयला, लौह अयस्क एवं बॉक्साइट जैसे खनिज संपदा के इलाके के परिवारों को इस नीयत से खारिज किया, ताकि वहां पर निजी पूंजीपति उद्योग समूह को जमीन आवंटित कर खनन का कार्य शुरू हो सके. खनन कार्य के लिए ग्रामसभा के निर्णय व 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के सामाजिक प्रभाव आकलन की अनिवार्यता को समाप्त कर सरकार सीधे निजी उद्योगों को लाभान्वित करना चाहती है.
सारंडा, पोड़ाहाट, नेतरहाट, बेतला, लातेहार, हेंदेगिर व संताल परगना के जंगलों को समाप्त करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष गंभीरता से पक्ष नहीं रखा. राज्य सरकार जंगल के सामूहिक भूमि को भूमि बैंक में अधिसूचित कर लोगों के जीवन यापन, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्म-संस्कृति व मवेशियों के खाने-चरने के जगहों को शामिल कर रही है.
वन अधिकार अधिनियम 2006 की मूल भावना में यह सुनिश्चित था कि वनोपज पर सामुदायिक हक उस जंगल ग्राम के आदिवासी-मूलवासी का होगा एवं वनोपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी देय होगा.
वन भूमि खाली कराने से पहले सरकार अधिकारों की रक्षा करे : आजसू
आजूस अध्यक्ष सुदेश कुमार महतो ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले ने झारखंड समेत देश के 16 राज्यों के 11 लाख से ज्यादा वनों पर आश्रित आदिवासी परिवारों और अन्य परंपरागत समुदायों के समक्ष वन भूमि से बेदखली का संकट खड़ा कर दिया है.
इस आदेश के तहत वैसे सभी वनाधिकार दावे जिन्हें निरस्त किया गया है, उन्हें वन भूमि से खाली कराया जाना है. श्री महतो ने कहा है कि इससे झारखंड के जंगलों में गुजर-बसर कर रहे लगभग 30 हजार आदिवासी और परंपरागत समुदाय से जुड़े परिवार भी वन भूमि से बेदखल किये जायेंगे. जंगलों में रहने वाले लोगों की मुश्किलें बढ़ेगी. इसलिए राज्य सरकार मामले में तत्काल हस्तक्षेप करे़ आजसू नेता श्री महतो ने कहा है कि सरकार उच्चतम न्यायालय में इस पर दखल करे व पुनरावलोकन याचिका दायर कर वन भूमि पर रह रहे आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत समुदायों के अधिकारों की रक्षा करे.
दरअसल वनाधिकार कानून 2006 को सरकार अगर सख्ती और पारदर्शी तरीके से लागू करती, तो ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं होती. सरकार ने गंभीरता से इस मसले पर कदम नहीं उठाये, तो टकराव बढ़ सकते हैं. उन्होंने कहा है कि जानकारी के मुताबिक झारखंड राज्य में वनाधिकार के जो भी दावे निरस्त किये गये हैं, उसकी सूचना ग्राम सभाओं और दावेदारों को नहीं दी गयी है.
जबकि वनाधिकार कानून किसी भी स्तर पर आपत्ति होने की स्थिति में समीक्षा का उत्तरदायी ग्रामसभा को मानता है. दावेदारों को अपील करने के मौके दिये जायें और निरस्त दावों को ग्रामसभा भेजा जाये. इसके अलावा राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे सकती है कि राज्य की वन भूमि में रह रहे लोग अतिक्रमणकारी नहीं हैं. उन्होंने कहा कि ओड़िशा के नियामगिरी मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक वन भूमि से बेदखली की कार्यवाही व भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं चलायी जा सकती है़
झाविमो महासचिव बंधु तिर्की ने कहा है कि आदिवासियों को वन भूमि से बेदखल करने की साजिश हो रही है़ आदिवासियों के खिलाफ यह भाजपा सरकार का सबसे बड़ा हमला है. यह आदिवासी समाज व वन क्षेत्र में रह रहे आश्रितों के खिलाफ युद्ध है. श्री तिर्की ने कहा कि इसके खिलाफ वन क्षेत्रों में रह रहे लोगों को संघर्ष करना होगा. इस तरह से अपनी जमीन से किसी को बेदखल नहीं किया जा सकता है. दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में इस तरह का निर्णय नहीं हो सकता है.
यह वर्तमान सरकार की असंवेदनशीलता का परिणाम है. सरकार कॉरपोरेट परस्त है और संसाधन की लूट मचाना चाहती है. झाविमो नेता ने कहा कि सरकार ने इस मामले में मजबूती के साथ आदिवासी व वन क्षेत्रों में रह रहे लाेगों का पक्ष नहीं रखा. दूसरी ओर कॉरपोरेट व कॉरपोरेट फंड से संचालित एनजीओ की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही. इनका मूल मकसद जंगल पर कब्जा करना है. ये संसाधन पर गैर काूननी हक जमाना चाहते है़ं
उन्होंने कहा कि फैसले के बाद वन अधिकारियों को वन क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों का भयादोहन करने का मौका मिलेगा. ऐसा हुआ, तो झाविमो चुप नहीं बैठनेवाला है़ वन अधिकार कानून की वैधता पर अविलंब अध्यादेश लाया जाये. वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों की दावेदारी निरस्त नहीं की जाये. ग्रामसभा के माध्यम से पट्टे की पहचान हो. इस फैसले से वन क्षेत्र में भय का माहौल बन रहा है. इस पर सरकार अविलंब विचार करे. झाविमो वन अधिकार कानून के पक्ष में खड़ा है.
इसका पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए. जंगल के संसाधन पर वहां रहने वाले आदिवासी व परंपरागत समाज को अधिकार मिलना चाहिए. श्री तिर्की ने कहा कि वह सरकार की नीतियों के खिलाफ वन क्षेत्रों में अभियान चलायेंगे. वन क्षेत्रों में रहने वालों को उजड़ने नहीं दिया जायेगा़

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