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समय के साथ बदलता गया आम चुनाव, बैलगाड़ी से सोशल मीडिया तक पहुंच गया कैंपेन वार

मनोज लाल 1980 में 10 हजार से भी कम खर्च में लड़ते थे चुनाव, अब दो-चार करोड़ भी पड़ रहे हैं कम रांची : समय के साथ आम चुनाव भी बदलता गया. मत पत्रों के माध्यम से होनेवाले चुनाव इवीएम से होने लगे. इवीएम के साथ अब पहली बार लोकसभा चुनाव में वीवी-पैड भी आ […]

मनोज लाल
1980 में 10 हजार से भी कम खर्च में लड़ते थे चुनाव, अब दो-चार करोड़ भी पड़ रहे हैं कम
रांची : समय के साथ आम चुनाव भी बदलता गया. मत पत्रों के माध्यम से होनेवाले चुनाव इवीएम से होने लगे. इवीएम के साथ अब पहली बार लोकसभा चुनाव में वीवी-पैड भी आ गया है, जो मतदाता को बतायेगा कि उसने किसे वोट दिया है.
अगर वे चाहें, तो अपना वोट कैंसिल भी कर सकेंगे. वोट करने की पद्धति में तो बड़ा बदलाव हुआ ही है, चुनाव प्रचार के तरीके में भी बड़े परिवर्तन हुए हैं. इस बार पूरे देश के साथ झारखंड में भी लोकसभा चुनाव में इस नयी पद्धति से चुनाव होने की तैयारी कर ली गयी है. रांची लोकसभा चुनाव भी इस बदलाव के साथ चलता रहा है. यहां भी धीरे-धीरे चुनाव हाइटेक होता गया है. शहर ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है.
कभी चुनाव प्रचार पैदल, साइकिल, बैलगाड़ी से किया जाता था, जो अब डिजिटल रथ तक पहुंच गया. सोशल मीडिया में कैम्पेन वार शुरू हो गया है. टीवी चैनल सशक्त माध्यम हो गया है.
दीवार लेखन था बड़ा माध्यम : 1971 से लेकर 1996 तक के चुनाव में दीवार लेखन व पंपलेट का प्रयोग बहुत हो रहा था. तब चुनाव प्रचार में बड़े खर्च नहीं हो रहे थे. बैनर-पोस्टर बन रहे थे. तब लाउडस्पीकर से भी जीप या टेंपो में प्रचार हो रहा था.
नैतिक मूल्यों से जुड़ते थे कार्यकर्ता : दयाल नगर के वीर बाबू कहते हैं कि उन्होंने 1967 से सारे चुनाव को बहुत नजदीक से देखा है. लोग अपने जनप्रतिनिधि या नेता के साथ बिना लालच के जुड़ते थे. अपना ही खर्च करके चुनाव प्रचार करते थे. किसी को कुछ नहीं मिलता था. पैसा तो कोई जानता ही नहीं था. नीति व सिद्धांत से नेता के साथ हम जुड़ते थे.
व्यक्तिगत आरोपों पर नहीं जाते थे : हेहल के जे चौधरी कहते हैं कि तब एकीकृत बिहार था. हर जगह चुनाव एक ही तरह से होता था. नेताअों के बीच परस्पर संबंध बेहतर होते थे. व्यक्तिगत आरोपों का खेल नहीं चलता था. चुनाव प्रचार एक दायरे में रह कर पब्लिक इश्यू पर होता था.
बेतहाशा बढ़ा खर्च, पैसे का बोलबाला : रांची लोकसभा चुनाव में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले अलग-अलग दलों के नेता-कार्यकर्ता कहते हैं कि चुनावी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई है.
अब पैसे का बोलबाला है. सुदूर गांव में भी प्रचार के लिए जानेवाले नेता को कुछ न कुछ देना ही पड़ता है. सबको यह आस होती है कि जो वोट के लिए आया है वो खाने-पीने का खर्च जरूर देगा. बूथ मैनेजमेंट में भी बड़ा खर्च हो रहा है. जो बूथ मैनेजमेंट पर खर्च नहीं किया, उसके लिए बूथ में बैठने वाला कोई नहीं मिलता है.
क्या कहते हैं सुबोधकांत : कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय कहते हैं कि पूर्व में किसी भी दल के लिए मूलत: चुनाव का एक ही पैटर्न था. अब बदलाव आ गया है.
वह बताते हैं कि सबसे पहले उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए 1978 में मोरारजी देसाई ने 2000 रुपये दिया था. तब चुनाव सात-आठ हजार में हो गया था. फिर 1981 में उप चुनाव में 13 हजार लगा था. फिर 1984 में 20-25 हजार खर्च आया था. 1989 में करीब पांच लाख रुपये खर्च आये थे.
2004 का चुनाव नॉर्मल था. 2009 में थोड़ा ज्यादा खर्च हुआ. 2014 का चुनाव सोशल मीडिया, इवेंट, टीवी, मार्केटिंग, एलइडी, कैम्पेन, एक्सपर्ट का प्रयोग शुरू हुआ. इसके बाद बेतहाशा चुनाव का खर्च बढ़ा है. बड़े पैसे का खेल हो गया है. सारी चीजों के लिए कांट्रेक्ट कीजिए. वर्कर भी पेड हो गये. यह दौर राजनीति व चुनाव में केवल पैसे का ही हो गया. इसके कारण चुनाव में ठेकेदार किस्म के लोग अब आ रहे हैं और सफल भी हो रहे हैं.
आम आदमी के इश्यू पर चुनाव नहीं लड़ा जा रहा है. मुद्दा भावनात्मक हो गया. पूरी प्रक्रिया में विकृति आयी है. बिना खाये-पीये कोई काम नहीं करता. दीवार लेखन व परचा बांटने का दौर चला गया. बड़ी-बड़ी एजेंसियां प्रचार-प्रसार में लगती है.चुनाव को कॉरपोरेट कल्चर, कंज्यूमर्स मार्केटिंग कल्चर के मोड पर लाकर खड़ा कर दिया गया है. वर्कर्स के लिए ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था करनी होती है. वो भी फोर व्हिलर दीजिए.
क्या कहते हैं रामटहल चौधरी : पहले मतदाता को कोई खरीद नहीं सकता था. वे जागरूक और ईमानदार होते थे. जो कह दिया, वो कह दिया. पहले लोगों का चरित्र था. ऐसे में हमलोगों को परेशानी नहीं होती थी. यह पता रहता था कि कौन हमारे तरफ है. ऐसे में चुनाव उनके ही भरोसे लड़ते थे. आज चरित्र में भारी कमी है. हम सबसे पहले प्रमुख बने.
बाद मे अटल बिहारी वाजपेयी आये, तब जनसंघ ज्वाइन किया. पहले कुछ खर्च ही नहीं था. 1980 के आसपास की बात है. साइकिल या पैदल चुनाव प्रचार करते थे. 500-1000 साइकिल से जुलूस निकाला जाता था. गांव-गांव पैदल घूमते थे. लोगों के घर-घर में जाते थे. पंपलेट देते थे. कोई एक भी पैसा नहीं लेता था. प्रचार का बड़ा माध्यम दीवार लेखन था. लोग अपने खर्च से भी काम कर देते थे.
यहां तक कि 1999 में भी चुनावी खर्च 10 से 15 लाख रुपये तक ही गया था. सबसे पहले एक-दो लाख रुपये में ही चुनाव हो गया था. अब सबको पैसा चाहिए. हर चीज में पैसा मांगता है. बूथ खर्च से लेकर प्रचार में पैसे दीजिए, तो काम करेगा. पहले एक जगह सब जमा हुए. सहभागिता से एक साथ सबका भोज बना. यही पार्टी था.

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