झारखंड की राजनीति में ज्यादातर सांसद हैं सेल्फ मेड, जयंत सिन्हा, विजय हांसदा व सुमन महतो हैं अपवाद
संजय, रांची : देशज राजनीति वंशवाद व परिवारवाद को लेकर बदनाम रही है. देश भी इससे पीड़ित है तथा इस वाद से राजनीति व राजनीतिज्ञ दोनों को निजात नहीं मिल रहा. पर झारखंड में विधानसभा चुनावों को छोड़ दें, तो कुछ अपवाद को छोड़ कम से कम लोकसभा की राजनीति पर यह दोनों वाद हावी […]
संजय, रांची : देशज राजनीति वंशवाद व परिवारवाद को लेकर बदनाम रही है. देश भी इससे पीड़ित है तथा इस वाद से राजनीति व राजनीतिज्ञ दोनों को निजात नहीं मिल रहा. पर झारखंड में विधानसभा चुनावों को छोड़ दें, तो कुछ अपवाद को छोड़ कम से कम लोकसभा की राजनीति पर यह दोनों वाद हावी नहीं रहे हैं.
झारखंड गठन के बाद से अब तक हुए तीन आम चुनाव में जीतनेवाले सांसदों ने अपने दम पर ही राजनीति की है. उन्हें किसी की विरासत या राजनीतिक जमीन उपहार में नहीं मिली.
वह अपनी पीढ़ी के अकेले नेता रहे हैं. शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, सुबोधकांत सहाय, कड़िया मुंडा, अर्जुन मुंडा तथा भाजपा से अलग हुए रामटहल चौधरी तक इसी विरासत का हिस्सा रहे हैं. झारखंड में यह परंपरा बनी रहे यही कामना की जानी चाहिए.
कुछ अपवाद भी हैं, जिन्हें विरासत में मिली है राजनीति
हजारीबाग के सांसद जयंत सिन्हा तथा राजमहल के सांसद विजय हांसदा इस मामले में अपवाद हैं, जिन्हें राजनीति उनके पिता के विरासत के रूप में मिली है. एक दूसरा अपवाद भी है.
झामुमो के सुनील महतो ने 2004 में जमशेदपुर सीट से जीत हासिल की थी. वर्ष 2007 में उनकी हत्या हो जाने के बाद उनकी पत्नी सुमन महतो ने झामुमो के टिकट पर ही यहां से चुनाव जीता था. इस तरह सुमन की राजनीति सेल्फ मेड न होकर अपनी दिवंगत पति की जमीन पर आधारित थी.