स्मृति शेष : डॉ केके सिन्हा इतिहास, संगीत के भी विलक्षण जानकार थे
हरिवंश,राज्यसभा उपसभापतिलाइब्रेरी में बैठा था. अचानक पत्नी की आवाज आई. बाहर निकला. बताया, डॉ केके सिन्हा(डॉ कृष्णकांत सिन्हा) नहीं रहे. प्राय: वह हर मौत, जो निजी संसार को स्पर्श करती है, स्तब्ध करती है. असहाय होने का बोध कराती है. युद्धिष्ठिर-यक्ष संवाद की स्मृति यक्ष ने युद्धिष्ठिर से पूछा— दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या […]
हरिवंश,राज्यसभा उपसभापति
लाइब्रेरी में बैठा था. अचानक पत्नी की आवाज आई. बाहर निकला. बताया, डॉ केके सिन्हा(डॉ कृष्णकांत सिन्हा) नहीं रहे. प्राय: वह हर मौत, जो निजी संसार को स्पर्श करती है, स्तब्ध करती है. असहाय होने का बोध कराती है. युद्धिष्ठिर-यक्ष संवाद की स्मृति यक्ष ने युद्धिष्ठिर से पूछा— दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युद्धिष्ठिर ने कहा— मौत. रोज हम कंधों पर शव लेकर जाते हैं, पर एक पल भी नहीं मानते, हमारा भी हश्र यही है) उभरी. पर डॉक्टर साहब के न रहने की खबर से कवि एमिली डिकिंसन (1830-1886 )की एक पंक्ति याद आयी— क्योंकि मैं मौत के लिए रुक नहीं सका.
डॉ केके सिन्हा अंत-अंत तक सक्रिय, जीवंत और अपने काम में डूबे रहे. उनकी ख्याति बड़ी थी. पर, उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलुओं को नजदीक से जानने का मौका मिला. डॉ सिद्धार्थ मुखर्जी के माध्यम से निमंत्रण आया.
रांची आने (22 अक्तूबर 1989) के पहले से डॉ सिद्धार्थ मुखर्जी का स्नेह था. उनके पिता डॉ जद्दुगोपाल मुखर्जी महान क्रांतिकारी, विख्यात डॉक्टर थे. सुभाष बाबू, पंडित जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों के निजी मित्रों में से. उन्हीं डॉ सिद्धार्थ मुखर्जी ने कहा, अगले रविवार को आपको मेरे साथ डॉ केके सिन्हा जी के यहां चलना है. डॉ केके सिन्हा फोन या मोबाइल का इस्तेमाल नहीं करते थे.
हालांकि वह विज्ञान, आधुनिक टेक्नोलाजी में गहरी आस्था रखनेवाले इंसान थे. इसके बाद कई रविवार की शामें डॉ केके सिन्हा के आवास पर गुजरीं. बल्कि कहूं कि जीवन में बहुत हद तक लोग लोनर (अकेलापन पसंद इंसान)मानते हैं, पर सच तो यह है कि ऐसी शामों की प्रतीक्षा रहती थी. कारण, डॉ केके सिन्हा गिफ्टेड न्यूरोलॉजिस्ट (आम बोलचाल की भाषा में प्रकृति प्रदत अद्भुत प्रतिभा के डॉक्टर) थे. उनकी ख्याति तो इसी रूप में थी कि जैसे बंगाल के पहले मुख्यमंत्री डॉ विधानचंद्र राय के संबंध में सुना या पढ़ा था कि वह इंसान को आते देखकर बीमारी का लक्षण बताते थे. डॉ केके सिन्हा की इस अद्भुत प्रतिभा का निजी अनुभव है.
डॉ केके सिन्हा के साथ गुजरी रविवार की शामें क्यों जीवन में न भूलनेवाले क्षण हैं? उनकी इतिहास, संगीत, लोककला वगैरह में गहरी रुचि ही नहीं थी, बल्कि उनके पास रेयर (दुर्लभ) संकलन भी थे. एक शाम उन्होंने औरंगजेब की न्यायप्रियता पर अद्भुत प्रसंग सुनाये. स्रोत पूछा. तुरंत उन्होंने जदुनाथ सरकार की किताब दिखायी — ए शॉट हिस्ट्री आफ औरंगजेब. कोई एक दूसरी पुस्तक भी, जिसका नाम स्मृति में नहीं है. फिर शाहजहां पर फरगुस निकॉल की किताब का उल्लेख किया.
वह इतिहासप्रेमी थे. मुझे पुस्तकें दीं. इस शर्त पर कि समय से वापसी हो. तत्काल उनकी वो पुस्तकें उपयोग कर वापस करता था. फिर बंगला संगीत, भोजपुरी संगीत पर 30-40 के दशक से लेकर अब तक के दुर्लभ संकलन उनके पास थे. उनकी चिकित्सकीय प्रतिभा की जानकारी तो थी ही, पर उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलुओं को जानने की उत्सुकता थी. सुना है कि विलक्षण लोगों की प्रतिभाएं बहुमुखी होती हैं. पटना के डॉक्टर शिवनारायण सिंह के बारे में सुना ही था कि वह अद्भुत संगीत प्रेमी थे. डॉ केके सिन्हा में भी संगीत के साथ इतिहास की अद्भुत जानकारी पायी. संगीत में भी बंगला, भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि की समृद्ध विरासत उनकी जुबान पर होती. उन शामों को वह खुद संगीत सुनते और उपस्थित मित्रों को सुनाते. साथ ही उसका इतिहास बताते.
रविवार गोष्ठियों की अघोषित शर्त होती थी कि कोई अपने प्रोफेशन की बात नहीं करेगा. वह अतिथियों को खिलाने के शौकीन थे. घर आनेवालों को समुचित सम्मान देना, विदा करने के लिए बाहर तक छोड़ना, यह सब उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था. वह पटना के मनेर में जनमे. 11 जनवरी 1931 को. उनके जीवन के बारे में पूछता.
वह बड़ी रुचि से उन दिनों को याद करते. उनके संस्मरणों में महज उनके घर के सदस्य, पिता, चाचा या गांव के लोग ही नहीं होते, उस दौर की बातों का उल्लेख होता. महात्मा गांधी के दौर का उन पर असर था. दुनिया में आ रहे बड़े बदलावों की आहट के जो स्वर गांवों तक पहुंच रहे थे, उनका चित्रण करते. उनकी स्मृति विलक्षण थी. उन्हें जानता तो रांची आने के पहले से था, पर मेरा परिचय नहीं था. वह कुछ दिनों के लिए चंपारण में डॉक्टर थे. 50-55 के बीच. मेरे अत्यंत करीबी रिश्तेदार के गांव-घर तब वह गये थे, जब न सड़क थी, न बिजली. वह हाथी से गये थे. उस जाने की घटना, तिथि, गांव के लोगों के नाम लगभग 30 वर्षों बाद मिलने पर हू-ब-हू उन्हें सुनाया.
वह निजी रिश्तों का सम्मान करते थे. जिन पुराने रिश्तों से उन्हें निमंत्रण जाता, वह जरूर समारोह में जाते. इस रूप में मैं उन्हें जानता था, पर यह औपचारिक परिचय था. सही रूप में उन्हें जाना रविवार के दिन होनेवाली उन मुलाकातों में. उसमें हमारे रांची के एक और मित्र विकासजी भी होते. तब उनसे, उनके छात्र जीवन के बारे में पूछता.
इसके पीछे एक मोह था. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1948 में पहली श्रेणी में इंटरमीडिएट की परीक्षा में निकले थे. वह मालवीयजी का जीवंत चित्रण सुनाते. उन दिनों वृद्ध मालवीयजी दिखाई देते तो किस रूप में छात्र उनका सम्मान करते. डॉ राधाकृष्णन के गीता प्रवचन सुनाते. उनके परिधान(सिर पर बड़ी पगड़ी, चुस्त पायजामा और बंद गले का पूरा जामा का कोट) वह सचित्र बताते. फिर बताते कि हम छात्रों ने किसी कार्यक्रम में उन्हें न्योता, तो वह समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते थे. फिर कहते कि मैं जाकर वापस आ रहा हूं. दुबारा, जो समय बताया जाता, ठीक उसी समय पर वे पहुंचते. ऐसे न जाने कितने प्रसंग उन्होंने सुनाये. इन प्रसंगों के पीछे एक संदेश होता था.