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अच्छी फसल की कामना और भाइयों की सलामती का पर्व है करम, यह है पूजा की विधि

आज प्रकृति से जुड़ा करम या करमा पर्व मनाया जा रहा है़ झारखंड के आदिवासी-मूलवासी इस त्योहार को धूमधाम से मनाते हैं. करम पर्व भादो महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है, किंतु इसके विधि-विधान सात दिन पहले से ही शुरू हो जाते हैं. आदिवासी समुदाय करम देव से अच्छे फसल की […]

आज प्रकृति से जुड़ा करम या करमा पर्व मनाया जा रहा है़ झारखंड के आदिवासी-मूलवासी इस त्योहार को धूमधाम से मनाते हैं. करम पर्व भादो महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है, किंतु इसके विधि-विधान सात दिन पहले से ही शुरू हो जाते हैं. आदिवासी समुदाय करम देव से अच्छे फसल की कामना करते हैं और बहनें अपने भाइयों की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं.

आदिवासी किसान समाज में सामाजिक, सांस्कृति और आर्थिक संवर्धन में स्त्री–पुरुष की बराबरी की परंपरा रही है, जिसे करम गीत में गाते हैं– सातो भाईया रे सातो करम गड़ाय, सातो भाईया रे सातो करम गड़ाय. अलग-अलग समुदायों की धर्म कथाओं में भिन्नता देखने को मिलती है, लेकिन मूल भावना एक है. इस पर्व पर जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची के पूर्व विभागाध्यक्ष गिरधारी राम गंझू और साहित्यकार महादेव टोप्पो से बुधमनी मिंज ने बातचीत की.

जब जब करम आवी, तब तब राउर याइद आवी
हर करम पर्व पर रामदयाल मुंडा की उपस्थिति लोगों में उत्साह भर देती थी. यह तस्वीर 2008 की है, जब उलिहातु में करम पर्व के मौके पर रामदयाल मुंडा ने गीतों से सबको थिरकाया था. (फाइल फोटो)
आज हम थिरक तो रहे हैं, लेकिन लोकगीतों को भूल गये हैं
महादेव टोप्पो कहते हैं : करम पर्व मनाने के तौर-तरीकों में काफी बदलाव आया है. नाच-गान आदिवासियों की संस्कृति रही है. आज हम थिरक तो रहे हैं लेकिन लोकगीतों को भूल गये हैं. रिकॉर्डिंग गानों पर लोगों ने झूमना शुरू कर दिया है. पारंपरिक गीतों का अस्तित्व खतरे में है. ढोल-मांदर की थाप पर थिरकना लोग भूलते जा रहे हैं.
आजकल लोग शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और अपनी संस्कृति को कहीं न कहीं भूलते जा रहे हैं. उन्हाेंने बेयर गिल्स के ‘मैन वर्सेज वाइल्ड’ का जिक्र करते हुए कहा कि कैसे मनुष्य जीने के लिए प्रकृति पर निर्भर रहता है.
यहां जानिए करम पर्व और विज्ञान का संबंध, जावा से होती है बीजों की जांच
करम पर्व केवल भाई-बहन के एकजुटता का संदेश नहीं देता. इस पर्व का वैज्ञानिक पक्ष भी है. बरसात के मौसम के बाद का समय रबी और दलहन की खेती का होता है. इसमें किसान का पूरा परिवार उसकी तैयारी में जुटा होता है.
पर्व के सात दिन पहले किसान पिछले साल के रखे हुए बीज की जांच करते हैं. कृषि वैज्ञानिक डॉ सूर्य प्रकाश का कहना है कि बरसात के मौसम में नमी ज्यादा होती है. इस दौरान वैसी चीजें, जो नमी को सोख सकती हैं उनके खराब होने की संभावनाएं बढ़ जाती है.
ऐसे में किसान करम पर्व और फसल की बोआई से पहले पिछले साल रखे गये बीजों की जांच करते हैं. अंकुरण विधि प्रक्रिया सात दिन तक चलती है. सात दिन के दौरान अगर बीज से फसल निकल आये, तो इसका मतलब है कि बीज सही सलामत है और उसे फसल के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
कर्तव्य और दायित्व बताता है करम जावा
करम में कुंवारी बालिकाओं द्वारा की जाने वाली विधियां सिर्फ धार्मिक रीति-रिवाज नहीं है, बल्कि यह कृषि कार्य और पौध संरक्षण के प्रशिक्षण का प्रारंभ भी है. कृषि कार्यों में झारखंड क्षेत्र की महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले अधिक बोझ उठाती हैं. पुरुष हल जोतकर रोपनी लायक खेत बनाते हैं.
उसके बाद रोपनी से लेकर कटनी तक, बल्कि फसल कूट-पीस कर भोजन बनाने का सारा काम तो महिलाएं ही करती हैं. फसल तैयार करने की पूरी प्रक्रिया में पुरुष सहायक भर ही होते हैं. उन व्रती बालिकाओं को करम जावा उनके भावी जीवन के कर्तव्यों और दायित्वों से परिचित कराता है और इन अवसरों पर गाये जाने वाले गीतों में होता है उनका प्रशिक्षण और कृषि दर्शन.
करम डाल देती है पर्यावरण संरक्षण का संदेश
करम पर्व का एक और वैज्ञानिक पक्ष है. आदिवासियों को प्रकृति पूजक माना जाता है. ऐसे में करम पर्व में एक बहन की ओर से तीन करम डाल को अखड़ा में गाड़ने की प्रथा है. जबकि यह तीन डाल प्रकृति प्रेम को चित्रित करती है.
एक बहन तीन डाल : परमेश्वर के नाम पर, गांव के नाम पर और परिवार के नाम पर गाड़ती है. ऐसे में एक समूह की ओर से अगर खाली जगह में करम की इन डाल को पूजा विधि के बाद सुरक्षित गाड़ दिया जाये, तो सैकड़ों पेड़ खड़े किये जा सकते हैं. इससे पर्यावरण संरक्षण की ओर से एक कदम बढ़ाया जा सकता है.
पतली डाली का ही क्यों होता है प्रयोग
करम पर्व के पूर्व भाई अपनी बहन को करम पेड़ की तीन डाली देता है. नियमत: यह डाली मोटी नहीं बल्कि पतली होनी चाहिए. डॉ सुशील प्रसाद का कहना है कि किसी भी पेड़ की पतली डाली जितनी जल्दी मिट्टी संपर्क में आकर अपनी जड़ फैला सकती है.
माेटी डाली को समय लगता है. बरसात के मौसम में मिट्टी में नमी प्रचुर मात्रा में होती है, जिससे पेड़ की डाली को सही जगह गाड़ने पर वह अपनी स्थिति तैयार कर सकता है. इससे भविष्य में पेड़ की संख्या बढ़ेगी.
यह है पूजा की विधि
गिरधारी राम गंझू बताते हैं : जैसे ही भादो का महीना शुरू होता है, भाई अपनी नवविवाहिता बहन को ससुराल से विदा कराकर मायके ले आता है. घर की कुंवारी बहनें करम से सात दिन पहले ‘करम जावा’ उठाती हैं. करम जावा में सात प्रकार के अनाजों (धान, गेहूं, मकई, चना, उड़द, कुर्थी और बोदी आदि) को मिलाकर, नयी टोकरी में बालू भरकर उसे बोती हैं. हर शाम उसे हल्दी के पानी से सींचती हैं. सातवें दिन उसमें सुनहरे पौधे निकल आते हैं.
यही करम जावा है. करम के दिन बहनें उपवास करती हैं और वह भाई भी उपवास करते हैं जो करम की डाली काटने जाते हैं. ढोल-मांदर के साथ गांव के लोग जंगल की ओर जाते हैं. करम पेड़ की पूजा करते हैं और फिर उसकी तीन छोटी डालियां काटते हैं. एक भाई पेड़ पर चढ़ता है और बाकी भाई उस डाल को पकड़ने के लिए नीचे खड़े रहते हैं.
ऐसी मान्यता है कि डाल एक ही प्रहार में टूटनी चाहिए. इसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ करम डाल को गांव में लेकर आते हैं और इसे सबसे पहले घर की छत पर रखा जाता है. इसके बाद पाहन तीनों डालियों को अखरा में गाड़ता है. उपवास की हुई बहनें पूजा की थाली लेकर आती हैं, जिसमें कई तरह के पकवान होते हैं. खीरा होता है जिसे बेटे के प्रतीक के रूप में माना जाता है.
इस दौरन पाहन करम की कहानी बताते हैं. सारी रात गांव के लोग करम को घेरकर नाचते-गाते हैं. पुरुष कानों में और महिलाएं अपने जूड़े में जावा खोंसती हैं. अगले दिन सुबह ही करम के विसर्जन का समय होता है. करम की डाल को सबके घर में घुमाने के बाद उसे नदी में विसर्जित कर दिया जाता है.
यह है करम की कहानी
झारखंड के एक गांव में ननका-ननकी नामक दंपती रहते थे. करम देव की कृपा से कई सालों बाद उनके घर में सात बेटे हुए, जिनका नाम करमा, धरमा, धनवा, रीझा, मंगरा, भंवरा और लीटा था. जब वे बड़े हुए तो उनका विवाह ऐसे घर में हुआ जहां सात बहनें थीं. एक बार अचानक अकाल पड़ता है और खाने के लाले पड़ जाते हैं.
धरमा को छोड़कर बाकी सभी भाई पैसा कमाने विदेश चले जाते हैं. सात साल बाद जब वे पैसा कमाकर लौटते हैं तो गांव की सीमा के पास रुक जाते हैं. करमा छोटे भाई लीटा को सूचना देने के लिए गांव भेजता है. लीटा गांव पहुंचकर देखता है कि सभी करम पर्व के जश्न में डूबे हैं. वह भी उनके साथ उत्सव मनाने जुट जाता है.
जब लीटा लौटकर नहीं आता, तो करमा एक-एक कर सभी भाइयों को भेजता है जो लौटकर नहीं आते. अंत में करमा सारा धन वहीं छोड़कर घर पहुंचता है और गुस्से में करम डाल को उठाकर फेंक देता है. सभी भाई उससे नाराज हो जाते हैं. करमा के जीवन में दुख आने लगता है. एक दिन करमा नदी किनारे बैठकर सोचता है कि मेरी ऐसी दुर्दशा क्यों हो रही है ?
अचानक एक बुजुर्ग महिला वहां आती है और करमा की परेशानी का कारण पूछती है. करमा कहता है : मैंने ऐसा क्या कर दिया है कि मेरी जिंदगी में दुर्गति आ रही है, मैं सोना छूता तो वह मिट्टी बन जाता है और मेरे भाई राख भी छूते हैं तो वह सोना बन जाता है. महिला कहती है : तुमने करम देव को अपमानित किया है.
अगर तुम उन्‍हें अपने आंगन में स्थापित करोगे और निस्वार्थ भावना से पूजा-अर्चना करोगे, तो सब ठीक हो जायेगा. इसके बाद कई मुश्किलों को पार करते हुए कर्मा करम डाली को लेकर आता है, विधिवत पूजा अर्चना करता है. इस तरह उसके जीवन में खुशियां लौट आती है.
करम पर्व सुख समृद्धि और खुशहाली का पर्व है़ यह पर्व बहन भाई की सुख-समृद्धि के लिए करती है़ यह पर्व सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए भी किया जाता है़ करम पर्व खुशियों का त्योहार है़
-प्रकाश मुंडा
भादो महीना नाजुक भरा होता है़ यह समय सुख और शांत से बीते इसलिए भी सामूहिक रूप से पूजा की जाती है़ गीत-संगीत सामूहिक नृत्य इस पर्व की खुशियों को और भी बढ़ा देता है़
-अमित मुंडा
पहले पुष्प का वितरण होता था, अब धान का वितरण किया जाता है. धान, उरद लाकर उपासकों की थाली में रखा जाता है, ताकि हरियाली छायी रहे. अच्छी फसल की कामना होती है.
-लक्ष्मण उरांव
कर्म पर्व आपसी संबंध को जोड़ता है़ यह संगठित होने का जरिया भी माना जाता है़ इसमें हर व्यक्ति नृत्य करता है. हर कोई पूजा में शामिल होता है. यह एकता को दिखाता है़ कर्म पर्व झारखंड की पहचान है़
-मंजू
करम पर्व को नयी फसल आने की खुशी में लोग नाच गाकर मनाते है़ं दिन भर उपवास रख कर शाम को सामूहिक रूप से पूजा की जाती है़ खेतों में बोई गयी फसलें बर्बाद न हों, इसलिए प्रकृति पूजा होती है़
-सुकेश

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