झारखंड आंदोलन के हीरो रहे ये 10 नेता, जिनके बिना पूरा नहीं हो पाता अलग राज्‍य का सपना

।। अमलेश नंदन ।। रांची : 2000 में अस्तित्‍व में आया झारखंड राज्‍य कई चरणबद्ध आंदोलनों की देन है. जंगल और प्राकृतिक संपदाओं से भरे-पूरे इस राज्‍य की मांग 1952 में सबसे पहले जयपाल सिंह मुंडा ने उठायी थी. उसी समय झारखंड पार्टी का गठन हुआ और बिहार की राजनीतिक में इस पार्टी की कद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 15, 2019 1:09 AM

।। अमलेश नंदन ।।

रांची : 2000 में अस्तित्‍व में आया झारखंड राज्‍य कई चरणबद्ध आंदोलनों की देन है. जंगल और प्राकृतिक संपदाओं से भरे-पूरे इस राज्‍य की मांग 1952 में सबसे पहले जयपाल सिंह मुंडा ने उठायी थी. उसी समय झारखंड पार्टी का गठन हुआ और बिहार की राजनीतिक में इस पार्टी की कद लगातार बढ़ती गयी. एक समय यह पार्टी बिहार में प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में भी रही.

आदिवासी बहुल इस क्षेत्र के लोगों को अपने लिए अलग राज्‍य मांगने की क्‍या आवश्‍यकता पड़ी, यह एक बड़ा प्रश्‍न है. अलग राज्‍य की मांग कई कारणों से हुई. कुछ इसे राजनीतिक नजरिए से तो कुछ सभ्‍यता संस्‍कृति के लिए जरूरी बताते हैं. जानकारों की मानें तो सम्मिलित बिहार में मौजूदा झारखंड के जो हिस्‍से शामिल थे, उनका उस अनुपात में विकास नहीं हो पा रहा था, जितना होना चाहिए था.

यहां से कई आदिवासी नेता बिहार की राजनीति में एक बड़े नाम तो जरूर हुए लेकिन जंगलों से घिरे इस भूभाग को सरकार की ओर से उतनी सुविधाएं नहीं दिला पाएं, जितनी यहां के आदिवासियों के जीवन स्‍तर को ऊपर उठाने के लिए जरूरी थी. ऐसे में अलग राज्‍य की मांग जोर पकड़ने लगी और आखिरकार 2000 में भाजपा नीत केंद्र सरकार को झारखंड को अलग राज्‍य का दर्जा देना पड़ा.

एक नजर आंदोलन के कारणों पर
आजादी के बाद भारत में एक बड़ी समस्‍या रोजगार थी. ऐसे में खनिजों का दोहन और कल-कारखानों की स्‍थापना सरकार की मुख्‍य नीतियों में शामिल किया गया. झारखंड शुरू से ही खनीज संपदा से संपन्‍न क्षेत्र था. यहां का अधिकतर क्षेत्र पठारी था. ज्‍यादातर जमीनें कृषि योग्‍य नहीं थी. उस समय इसे छोटानागपुर के पठार के नाम से जाना जाता था. आदिवासियों के कई प्रजाति यहां निवास करते थे.

वनों पर पूरी तरह निर्भर रहने वाले आदिवासियों के लिए सरकार ने योजना बनायी कि यहां उद्योग धंधे शुरू होंगे तो स्‍थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा. साथ ही बंजर भूमि के अधिग्रहण से उन्‍हें कोई समस्‍या भी नहीं होगी और उसके एवज में मिलने वाले मुआवजे से उनके जीवनस्‍तर में सुधार होगा. लेकिन हुआ इसके विपरित खनिजों के दोहन के लिए बाहरी लोगों का यहां आगमन हुआ.

आदिवासियों और स्‍थानीय लोगों की जमीन अधिग्रहण तो हुए, लेकिन उनको उसका उचित मुआवजा नहीं मिला. और न ही कल कारखानों में उन्‍हें नौकरियां ही मिलीं. ऐसे में स्‍थानीय लोगों में असंतोष बढ़ता गया और उस असंतोष ने एक आंदोलन को जन्‍म दिया. जिन नेताओं ने उस आंदोलन की अगुवाई की उन्‍हें ही झारखंड आंदोलन का नेता माना गया. हम ऐसे ही 10 आंदोलनकारियों के बारे में आपको बता रहे हैं…

जयपाल सिंह मुंडा
जयपाल सिंह मुंडा का नाम किसी के लिए नया नहीं है. मरांग गोमके यानी ग्रेट लीडर के नाम से लोकप्रिय हुए जयपाल सिंह मुंडा ने 1938-39 में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का गठन कर आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ने का निश्चय किया. जयपाल सिंह मुंडा ने 1952 में अलग राज्‍य के मांग के साथ झारखंड पार्टी की स्‍थापना की. गठन के बाद हुए पहले आम चुनाव में सभी आदिवासी जिलों में यह पार्टी उभरकर सामने आयी. जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो झारखंड की मांग तेज हुई. इसमें तत्कालीन बिहार के अलावा उड़ीसा और बंगाल के भी कुछ क्षेत्रों को मिलाकर झारखंड राज्‍य की स्‍थापना की बात उठी.

झारखंड में कई भाषाएं बोली जाती हैं. ऐसे में आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखंड के दावे को खारिज कर दिया था. 50 के दशक में झारखंड पार्टी बिहार में सबसे बड़ी विपक्षी दल की भूमिका में रही. जब 1963 में जयपाल सिंह ने झारखंड पार्टी ने बिना अन्य सदस्यों से विचार विमर्श किये कांग्रेस में विलय कर दिया. इसके परिणाम स्वरुप छोटानागपुर क्षेत्र में कई छोटे-छोटे झारखंड नामधारी दलों का उदय हुआ.

3 जनवरी 1903 को जन्‍मे जयपाल सिंह मुंडा का निधन 20 मार्च 1970में हुआ. वे भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे. वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद और 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे. उनकी कप्तानी में 1928 के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया था.

एन ई होरो
1963 में झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय बाद झारखंड आंदेलन की लौ एक बार फिर बुझती दिख रही थी. उसी समय उस लौ को जलाए रखने का जिम्‍मा एनई होरो ने लिया. एन ई होरो ने झारखंड पार्टी को दुबारा जीवित किया. उन्‍होंने पार्टी की पुनर्स्‍थापना की और कई युवा आदिवासियों का इससे जोड़ा. इनके समय में एक बार फिर यह पार्टी झारखंड अलग राज्‍य आंदोलन का पर्याय बन गया. होरो यहा राजनीति में वह एक मोटी लकीर थे, जिनके इर्द-गिर्द लोग जुड़ते थे.

आजादी के बाद पहली बार तोरपा विधानसभा का चुनाव 1957 में हुआ था. इस चुनाव में झापा के जूलियस मुंडा ने जीत दर्ज की थी. झारखंड पार्टी 1957, 1962, 1969, 1972, 1977, 1985, 1990 तथा 1995 में जीत हुई जिसमें पांच बार एनई होरो विधायक बने. होरो साहब अदम्य साहस वाले नेता थे. मुद्दा से असहमत हों तो वह किसी से भिड़ जाते थे. एक बार तो उन्होंने इंदिरा गांधी को रांची हवाई अड्डा पर उतरने नहीं दिया.

बिनोद बिहारी महतो
बिनोद बिहारी महतो का जन्म 23 सितंबर 1923 को धनबाद जिला के बालीपुर प्रखंड के बडवाहा गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम महेंद्र महतो और माता मंदाकिनी देवी था. उनका जन्म कुड़मी महतो परिवार में हुआ था. उनके पिता किसान थे. उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा बालीपुर से पूरी की. उन्होंने अपना मिडिल और हाई स्कूल झरिया डीएवी और धनबाद हाई इंग्लिश स्कूल से पूरा किया.

शिवाजी समाज का गठन कर जहां उन्‍होंने सामाजिक आंदोलन को एक मुहिम का रूप दिया. साथ ही झारखंड क्षेत्र को आंतरिक उपनिवेश बनाकर रखनेवाले माफिया और रंगदारों के प्रति धारदार आंदोलन किया. पढ़ो और लड़ो का नारा देकर बिनोद बाबू उत्पीड़ित वर्ग की ‘आवाज’ बने. शिवाजी समाज के संगठन के कारण उनकी जाति समाज में कई सुधार हुए. प्रखर मार्क्सवादी चिंतक एके राय, आदिवासी समाज में उस समय काफी लोकप्रिय हुए शिबू सोरेन के साथ मिल कर उन्होंने सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक रूप देने के लिए ही झामुमो का गठन किया.

बिनोद बिहारी महतो 25 साल तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. अखिल भारतीय दलों पर से उनका विश्‍वास टूट चुका था. उनका सोचना था कि अखिल भारतीय दल सामंतवाद और पूंजीवाद को बढ़ावा देता है. ये दल दलित और पिछड़ी जाति के लिए नहीं हैं. इसलिए इन दलों का सदस्य बनकर दलित और पिछड़ी जाति के लिए लड़ना मुश्किल है. उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाया. झारखंड मुक्ति मोर्चा के बैनर तले झारखंड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन हुए. 18 दिसंबर 1991 को उनका देहांत हो गया.

शिबू सोरेन
शिबू सोरेन जन्म 11 जनवरी 1944 में संयुक्‍त बिहार के हजारीबाग जिले के नामरा गांव में हुआ था. उन्‍होंने 1970 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन कर राजनीतिक जीवन की शुरुआत की. झारखंड नामधारी पार्टी के गठन के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्‍य अलग झारखंड राज्‍य की मांग था. वर्त्तमान में भी वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय अध्‍यक्ष हैं. उनकी पार्टी ने लगातार झारखंड अलग राज्‍य की मांग की. राज्‍य गठन के बाद भी उनकी पार्टी सक्रिय राजनीति में है और लोगों को एक एहसास दिलाते रहती है कि झारखंड अलग राज्‍य का गठन उनकी ही पार्टी की देन है.

2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में शिबू कोयला मंत्री बने. लेकिन चिरूडीह कांड जिसमें 11 लोगों की ह्त्या हुई थी, उस सिलसिले में उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद उन्‍होंने केंद्रीय मंत्रीमंडल से इस्‍तीफा दे दिया. वे झारखंड के दुमका लोकसभा सीट से छठी बार सांसद चुने गये हैं.

शिबू पहली बार 1977 में लोकसभा के लिये चुनाव में खड़े हुये लेकिन हार गये. 1980 में उन्‍हें पहली बार लोक सभा चुनाव में जीत मिली. इसके बाद क्रमश: 1986, 1989, 1991, 1996 में भी वे चुनाव जीते. सन 2005 में झारखंड विधानसभा चुनावों के पश्चात वे विवादास्पद तरीके से झारखंड के मुख्यमंत्री बने, परंतु बहुमत साबित न कर पाने के कारण कुछ दिन पश्चात ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.

एके राय
एके राय का जन्म पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के राजशाही जिला अंतर्गत सपुरा गांव में 15 जून 1935 में हुआ था. वह केमिकल इंजीनियर बनकर धनबाद आये थे. बाद में कोयला मजदूरों की पीड़ा और शोषण से व्यथित होकर आंदोलनकारी बन गये. उन्होंने बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के साथ झारखंड आंदोलन के लिए काम किया. झामुमो के संस्थापकों में राय दा का भी नाम आता है. शिबू सोरेन से अलग होने के बाद उन्होंने मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) नाम से राजनीतिक पार्टी बनायी.

राय बाबू तीन बार धनबाद के सांसद और तीन बार सिंदरी विधानसभा सीट से विधायक चुने गये. जेपी आंदोलन में भी उन्‍होंने हिस्सा लिया था. मार्क्सवाद और मजदूर आंदोलन पर इनके लेख विदेशों में भी प्रकाशित हुए. एके राय अपनी पूरी जिंदगी वामपंथ और इसकी विचारधारा को आगे ले जाने में जुटे रहे. संसद में और इसके बाहर भी राय वामपंथ तथा लोगों के लिए लड़ते रहे. लोगों के बीच राय दा के नाम से मशहूर एके राय कोयला माफियाओं के खिलाफ सबसे मुखर आवाज थे. राय दा अब हमारे बीच नहीं है. इनका निधन जुलाई 2019 में हुआ.

निर्मल महतो
निर्मल महतो झारखंड आंदोलन के प्रमुख नेता थे. 8 अगस्त, 1987 को महज 37 साल की उम्र में उनकी हत्‍या हो गयी. जिस समय उनकी हत्या हुई, उस समय वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष थे. 25 दिसंबर, 1950 को उलियान, जमशेदपुर में जन्‍में निर्मल महतो झारखंड आंदोलन के एक बड़े गैर आदिवासी नेता के रूप में जाने जाते हैं. 1980 में वे झारखंड मुक्ति मोर्चा से जुड़े. खुद शिबू सोरेन, निर्मल महतो से इतने प्रभावित हुए थे कि पार्टी से जुड़ने के तीन साल के भीतर ही उन्हें झामुमो का केंद्रीय अध्यक्ष बना दिया था और खुद महासचिव बन गये थे.

तीन साल में ही निर्मल महतो ने झारखंड आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने के लिए बड़े फैसले किये थे. इनमें एक था ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) का गठन करना. आजसू बनाने के पीछे निर्मल महतो का ही दिमाग था. वे जानते थे कि आनेवाले दिनों में झारखंड आंदोलन को और तेज करने के लिए आक्रामक रुख अपनाना पड़ सकता है. रणनीति यह थी कि राजनीतिक लड़ाई झामुमो लड़ेगा और जब कुछ कड़े व अप्रिय कदम उठाने पड़े, यह काम आजसू के जिम्मे होगा. इसे निर्मल महतो की दूरदृष्टि माना जाता है. निर्मल दा ने आजसू को झारखंड मुक्ति मोर्चा के छात्र संगठन के तौर पर तैयार किया था और इसका नेतृत्व दो तेज तर्रार युवा नेता प्रभाकर तिर्की व सूर्य सिंह बेसरा को सौंपा था.

बागुन सुंब्रुई
कोल्हान की राजनीति में लगभग 50 वर्षों तक अपनी बादशाहत कायम कर चुके बागुन सुंब्रुई का जन्म 1924 में पश्चिम सिंहभूम जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र के एक छोटे से गांव भूता में हुआ था. प्रारंभिक जीवन भूख, अभाव व गरीबी के बीच गुजरा. प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल से प्राप्त की तथा जिला स्कूल में पढ़ाई की, लेकिन गरीबी के कारण बीच में ही स्कूल छोड़ दर्जी का काम शुरू कर दिया. इसी बीच 1946 में 22 वर्ष की उम्र में गांव के मुंडा बन गये. यहीं से शुरू हुई राजनीतिक जीवन की यात्रा.

नंगे बदन सिर्फ एक धोती पहनकर रहना बागुन बाबू की पहचान बन गयी थी. अपनी शादियों को लेकर भी बागुन हमेशा चर्चे में रहे. लगभग 50 वर्षों से भी अधिक समय तक जिले की राजनीति का केंद्र रहे बागुन बाबू की पहचान झारखंड से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक रही. जयपाल सिंह के बाद इन्होंने झारखंड पार्टी की कमान संभाली और झारखंड अलग राज्य आंदोलन की अग्रिम पंक्ति के नेता रहे.

वर्ष 1989 के पहले बागुन बाबू की छवि एक ऐसे अपराजेय नेता की थी जिसे चुनाव में हरा पाना असंभव दिखता था. वे पांच बार सिंहभूम लोकसभा से सांसद और चार बार विधायक रहे. वर्ष 1999 में वे बिहार के लालू प्रसाद यादव की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे. झारखंड अलग राज्य बनने के बाद बागुन झारखंड के पहले विधानसभा उपाध्यक्ष चुने गये.

लाल रणविजयनाथ शाहदेव
अलग झारखंड राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लाल रणविजय नाथ शाहदेव ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. गुमला के पालकोट में नागवंशी परिवार में जन्मे लाल रणविजय नाथ शाहदेव बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने चार दशक तक वकालत की. कविता, कहानियां लिखते थे. आंदोलन के लिए नारे (स्लोगन) भी लिखते थे. झारखंड आंदोलनकारियों में सबसे लोकप्रिय लाल रणविजय नाथ शाहदेव मरते समय तक झारखंड पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष थे.

झारखंड पार्टी के संस्थापक एनई होरो के साथी लाल रणविजय नाथ शाहदेव ने निजी हित के लिए कभी किसी दूसरी पार्टी का रुख नहीं किया. जयपाल सिंह मुंडा ने जब अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया, तब भी वह झारखंड पार्टी के साथ बने रहे. एनई होरो के साथ मिलकर उन्होंने पार्टी को जीवंत रखा.

पेशे से वकील लाल रणविजय नाथ शाहदेव कवि और लेखक तो थे ही, उनके अंदर एक कलाकार भी छिपा था. नागपुरी में कविताएं लिखते थे, गीत भी गाते थे. सिद्धांतों से समझौता नहीं करने की वजह से ही वह झारखंड के सबसे सम्मानित आंदोलनकारियों में गिने जाते थे. लाल रणविजय शाहदेव 60 के दशक में ही झारखंड आंदोलन से जुड़ गये थे. आंदोलनकारियों को प्रेरित करने के लिए वह नागपुरी कविताएं और स्लोगन (नारा) लिखा करते थे. अलग राज्य के लिए आवाज बुलंद करने के लिए बनी पार्टी झारखंड पार्टी से एक बार जुड़ गये, तो फिर कभी उससे अलग नहीं हुए.

डॉ रामदयाल मुंडा
पूरी दुनिया में आर डी मुंडा के नाम से विख्‍यातपद्मश्रीडॉ रामदयाल मुंडा एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने झारखंड की ट्राइबल कल्चर, लिटरेचर और ट्रेडिशन को व‌र्ल्ड लेवल पर पहचान दिलाई. आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन इनके काम और योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. राम दयाल मुंडा का जन्‍म 23 अगस्‍त 1939 को हुआ था. वो बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.

शिक्षाविद होने के साथ-साथ ट्राइबल कल्चर और लिटरेचर से उनका गहरा रिश्ता था. रांची यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रहे डॉ रामदयाल मुंडा आदिवासियों को एक मंच पर लाने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी. इनकी कोशिशों का नतीजा रहा कि झारखंड के आदिवासियों को देश-दुनिया में पहचान मिली. झारखंड अलग राज्‍य की आधारशिला रखने में भी राम दायाल मुंडा का अमिट योगदान रहा है.

झारखंड क्यों चाहिए, कैसा होगा हमारा झारखंड, क्या-क्या होंगे मुख्य मुद्दे, क्या होंगी चुनौतियाँ, कैसे इससे निबटेंगे, राज्य बनने के बाद कैसे झारखंड का पुनर्निर्माण होगा ऐसे विषयों पर राम दयाल मुंडा हमेशा लिखते रहे थे. जब राज्य बन गया तो समय-समय पर अपने लेखों के जरिए यहां के मुद्दों को उठाने में उन्‍होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी यह उन्‍ही सरीखे लोंगों के अथक प्रयास का नतीजा था जो आज हम एक अलग राज्‍य झारखंड की फिजा में सांस ले रहे हैं.

बी पी केशरी
झारखंड के जाने माने आन्दोलनकारी, लेखक, चिन्तक और विद्वान डॉ बीपी केशरी का झारखंड आंदोलन में योगदान किसी से भी कम नहीं है. वे डॉ राम दयाल मुंडा के साथ झारखंड आन्दोलन में साथ रहे थे. बीपी केसरी पेशे से शिक्षक थे. वे रांची जनजातीय, क्षेत्रीय विभाग, रांची विश्व विद्यालय में प्रोफेसर थे.

उन्होंने झारखंड का इतिहास लिखा. वे नागपुरी भाषा के जानकार और शोधकर्ता थे.कई मायनों में उन्होंने झारखंड आन्दोलन को नई दिशा दी.वे झारखंड के मार्गदर्शक भी थे. वे झारखंडी इतिहास, समाज, भाषा और संस्कृति के प्रकांड विद्वान थे.जब सभी पार्टी बाहरी लोगों को राज्य सभा में भेजती थी तब उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया.तब से लोग लोकल लोगों को राज्य सभा में भेजने लगे. झारखंड आंदोलन के अग्रणी रहे ये वो लोग हैं जिन्‍होंने न सिर्फ अलग झारखंड का ख्‍वाब देखा, बल्कि जी जान से इस काम में जुटे भी रहे.

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