जीपीएस लगा, पर मॉनिटरिंग नहीं हो रही

मोबाइल मेडिकल यूनिट वरीय संवाददाता रांचीराष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत संचालित राज्य भर के 101 मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू) में ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) लगाने का काम करीब डेढ़ वर्ष विलंब से पूरा हो गया है. सिस्टम तो लग गया, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हो रहा. दरअसल न तो मुख्यालय और न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 25, 2014 11:02 PM

मोबाइल मेडिकल यूनिट वरीय संवाददाता रांचीराष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत संचालित राज्य भर के 101 मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू) में ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) लगाने का काम करीब डेढ़ वर्ष विलंब से पूरा हो गया है. सिस्टम तो लग गया, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हो रहा. दरअसल न तो मुख्यालय और न ही जिला स्तर पर मोबाइल यूनिट की मॉनिटरिंग हो रही है. एमएमयू बसों के संचालन संबंधी मॉनिटरिंग के लिए ही विभाग ने जीपीएस लगाने का निर्णय लिया था. इसके लिए आरसीएच परिसर, नामकुम में कंट्रोल रूम बनाया गया है. यहां इंटरनेट व बड़ी स्क्रीन वाली एलसीडी की मदद से यह पता लगाया जा सकता है कि कौन सी बस कहां है. चल रही है या ठहरी हुई है. गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू या मोबाइल बस) की सेवा शुरू की गयी थी. वर्ष 2008 में कुल 24 बसों से इसकी शुरुआत हुई. बाद में कुल 103 बसें खरीदी गयी. इनमें से दो बेकार हो गयी हैं. गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से संचालित एमएमयू के संबंध में कई शिकायतें मिलती रही है. कुछ संस्थाएं इन बसों का बेहतर संचालन कर रही हैं, लेकिन कुछ पर सुस्ती का आरोप है. सरकार संबंधित संस्थाओं को प्रति बस औसतन 1.80 लाख रु देती है. इससे निबटने के लिए ही जीपीएस व जेनरल पैकेट रेडियो सर्विस (जीपीआरएस) सुविधा से इन्हें लैस किया गया ताकि मॉनिटरिंग से इन बसों का दूर-दराज के इलाकों में जाना सुनिश्चित किया जा सके. इधर सिस्टम तो लग गया, लेकिन मॉनिटरिंग के प्रति अधिकारी उत्साहित नहीं दिख रहे. सिविल सर्जन रांची से इस संबंध में पूछे जाने पर उनका जवाब था- रेगुलर मॉनिटरिंग नहीं हो रही है. कभी-कभी होती है. सिविल सर्जनों पर आरोप : एमएमयू संचालक कई संस्थाएं अपने जिले के सिविल सर्जनों पर उगाही का आरोप लगाती रही हैं. संस्थाओं का कहना है कि सिविल सर्जन उन्हें भुगतान के बदले हर माह अपना हिस्सा लेते हैं. दूसरी ओर संस्थाओं को बसों के संचालन में नियम-शर्तों में छूट दी जाती है. हर एमएमयू में एक चिकित्सक भी रहना है, लेकिन एक तो डॉक्टरों की कमी व फिर पैसे बचाने के लिए संस्थाएं पारा मेडिकल स्टाफ से ही डॉक्टर का काम लेती हैं. दूसरी कई कमियों से भी सिविल सर्जन आंखें फेर लेते हैं. नुकसान गरीब मरीजोें को होता है.

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