रचना से इतिहास बनानेवाले लोहा सिंह

सुनील बादल सासाराम जैसी छोटी जगह से अपने रेडियो शृंखला नाटक की लगभग 350-400 कड़ियों में लोहा सिंह को जीवंत करने वाले रामेश्वर सिंह कश्यप जासूसी और बहादुरी के प्रतीक शर्लाक होम्स और जेम्स बॉन्ड की तरह अपनी कृति नाम से विख्यात हुए. हिंदी पट्टी के लोगों के मन में उनकी यादें भले धुंधली हो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 13, 2015 2:12 AM
सुनील बादल
सासाराम जैसी छोटी जगह से अपने रेडियो शृंखला नाटक की लगभग 350-400 कड़ियों में लोहा सिंह को जीवंत करने वाले रामेश्वर सिंह कश्यप जासूसी और बहादुरी के प्रतीक शर्लाक होम्स और जेम्स बॉन्ड की तरह अपनी कृति नाम से विख्यात हुए. हिंदी पट्टी के लोगों के मन में उनकी यादें भले धुंधली हो गयी हों पर उनके कालजयी डायलॉग आज भी ज़िंदा हैं.
लोहा सिंह सिर्फ हास्य नाटक नहीं, वरन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक व्यवस्था पर करार व्यंग्य भी है. 1962 की लड़ाई से लौटे फौजी लोहा सिंह (प्रोफेसर रामेश्वर सिंह कश्यप) जब अपनी फौजी और भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अपनी पत्नी खदेरन को मदर और अपने मत्रि फाटक बाबा (पाठक बाबा) को काबुल का मोर्चा की कहानी सुनाते थे तो श्रोता कभी हंसते, हंसते लोट-पोट हो जाते, तो कभी गंभीर और सावधान कि कहीं बाल विवाह, छूआछूत, धार्मिक विकृतियों पर किया जानेवाला व्यंग्य उन्हीं पर तो नहीं !
सासाराम निवासी वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉक्टर नन्द किशोर तिवारी कहते हैं पटना का कोई भी नाटक बिना कश्यप के रंगमंच पर नहीं आ सकता था, रेडियो स्टेशन में कोई भी सप्ताह बिना लोहा सिंह के छूछा लगता था. प्रत्येक रविवार की संध्या छः बजे सड़कों पर, पान की दुकान पर हज़ारों लोग कान ओढ़े खड़े दिखाई पड़ते थे. उन पर शोध करनेवाले डॉक्टर गुरुचरण सिंह बताते हैं, तब यह नाटक देशवासियों के भीतर देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना का भाव भरता था. रेडियो सेट भी कम हुआ करते थे, इसलिए पान दुकानवाले लाउड स्पीकर पर रेडियो से यह नाटक सुनवाया करते थे. आवागमन थम जाता था. सीमा पर लडनेवाली सेना के साथ- साथ आम लोग भी भाव-विभोर हो जाते थे.
यह नाटक शृंखला एक साथ महलों से लेकर झोंपड़ी तक सामान रूप से लोकप्रिय थी. विद्वानों के बीच यह नाटक जितना लोकप्रिय था ग्रामीण और अशिक्षितों ने भी इसे सर आंखों पे बिठाया. अगर कोई संग्रहालय, शोध संस्थान या संस्था उनकी रचनाओं के साथ न्याय कर पाये तो शायद इस भोजपुरी के शेक्सपियर को सच्ची श्रद्धांजलि हो .
(लेखक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जुड़े हैं और लेख उनपर किये शोध पर आधारित है )

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