गोली लगी, तो कुंवर सिंह ने खुद से ही काट ली अपनी बांह
वर्ष 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर में जन्मे बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह राजा भोज के वंशजों में से थे. वर्ष 1826 में पिता की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने
वर्ष 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर में जन्मे बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह राजा भोज के वंशजों में से थे. वर्ष 1826 में पिता की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने. वे बचपन से ही वीर योद्धा थे. साथ ही गुरिल्ला युद्ध शैली में पारंगत थे. अपनी इसी रण कौशल का इस्तेमाल उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ किया था.
कुंवर सिंह के बारे में सबसे खास बात यह है कि उन्होंने अपनी वीरता को 80 साल की उम्र तक भी बनाये रखा. इस उम्र में भी अंग्रेजों से ऐसे लड़े, जैसे कि वह 20 वर्ष के युवा हों. उन्होंने कभी भी अपनी उम्र को खुद पर हावी नहीं होने दिया. वर्ष 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा, तो एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे डटकर अंग्रेजी हुकूमत से लोहा ले रहे थे, तो वहीं महारानी रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएं अपने तलवार का जौहर दिखा रही थीं. ठीक उसी समय बिहार में बाबू वीर कुंवर सिंह अंग्रेजों के पसीने छुड़ा रहे थे. उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे दानापुर के क्रांतिकारियों का भी नेतृत्व किया.
अपने पराक्रम से आरा शहर, जगदीशपुर व आजमगढ़ को कराया आजाद
वर्ष 1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनायी, जिसके बाद भारत के बड़े-बड़े शासकों के अंदर रोष और डर जाग गया. वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की ये बात रास नहीं आयी और वह उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. इसके बाद कुंवर सिंह ने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ और बंगाल के बैरकपुर के सिपाहियों के साथ मिलकर अंग्रेजों पर धावा बोल दिया. उन्होंने अपने पराक्रम से आरा शहर, जगदीशपुर और आजमगढ़ को आजाद कराया.
हाथ कटने के बावजूद अंग्रेजों से भिड़े कुंवर बाबू
वर्ष 1958 में जगदीशपुर के किले पर अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराने के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह अपनी पलटन के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से नाव में बैठकर गंगा नदी पार कर रहे थे. इसकी भनक अंग्रेजों को लग गयी और उन्होंने मौका देखते हुए अचानक वीर कुंवर सिंह को घेर लिया और उन पर गोलीबारी करने लगे. इसी गोलीबारी में कुंवर सिंह के बायें हाथ में गोली लग गयी.
बांह में लगी गोली का जहर पूरे शरीर में फैलता जा रहा था. दूसरी तरफ कुंवर सिंह ये नहीं चाहते थे कि उनका शरीर जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ लगे. इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी तलवार से अपनी वह बांह ही काट दी, जिस पर गोली लगी थी और उसे गंगा नदी को समर्पित कर दिया, फिर एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे. घायल होने के बावजूद उनकी हिम्मत नहीं टूटी और ना ही वह अंग्रेजों के हाथ आये.
उनकी वीरता को देखते हुए एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा- ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय उस कुंवर सिंह की उम्र 80 साल थी. अगर वह जवान होते, तो शायद अंग्रेजों को वर्ष 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.’ 23 अप्रैल, 1858 को वह अंग्रेजों को धूल चटा कर अपने महल में वापस तो लौटे, लेकिन उनका घाव इतना गहरा हो चुका था कि वह बच न सके. 26 अप्रैल, 1858 को इस बूढ़े शेर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.