झारखंड की स्थानीय नीति ऐतिहासिक
झारखंड की स्थानीय नीति ऐतिहासिकप्रोफेसर अश्विनी कुमार, राजनीतिक विश्लेषकमेरा मानना है कि नयी स्थानीय नीति के कुछ प्रावधान ऐतिहासिक और प्रगतिशील है, जिसमें चौथी और तीसरी श्रेणी की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गयी है. इन पदों में शिक्षक, जनसेवक, पंचायत सचिव, वन गार्ड, पुलिस और अन्य पद शामिल हैं. इससे स्थानीय लाेगों […]
झारखंड की स्थानीय नीति ऐतिहासिकप्रोफेसर अश्विनी कुमार, राजनीतिक विश्लेषकमेरा मानना है कि नयी स्थानीय नीति के कुछ प्रावधान ऐतिहासिक और प्रगतिशील है, जिसमें चौथी और तीसरी श्रेणी की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गयी है. इन पदों में शिक्षक, जनसेवक, पंचायत सचिव, वन गार्ड, पुलिस और अन्य पद शामिल हैं. इससे स्थानीय लाेगों को अपने सामुदायिक संगठनों, संसाधनों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण होगा और यह स्थानीय गवर्नेंस के लिए बेहतर साबित होगा. यह नीति इस मायने में भी अहम है कि इससे स्थानीय लोगों को अपनी भाषा में परीक्षा देने का हक मिलेगा. इसमें संथाली, मुंडा, उरांव, खड़िया, कुर्माली, पंचपरगनिया, खोरठा, नागपुरी और अन्य भाषाएं शामिल हैं. इससे आदिवासियों की खत्म हो रही भाषा को बचाने में मदद मिलेगी. आदिवासी बहुल इलाकों में तृतीय और चर्तुर्थ श्रेणी की नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करना भी कानूनन सही है. संविधान की पांचवीं अनुसूची और संविधान की धारा 309 के मुताबिक सरकार ने यह फैसला लिया है और यह दस वर्षों तक लागू रहेगा. झारखंड की सरकार ने राज्य गठन के लगभग 16 साल बाद एक स्थानीय नीति बनायी है. इसे लेकर राज्य में काफी समय से विवाद रहा है. सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि स्थानीयता का मुद्दा पलायन से जुड़ा हुआ है. झारखंड से वर्षों पहले आदिवासी असम के चाय बगानों में काम करने के लिए गये. बाद में उन्हें स्थानीयता के नाम पर परेशान किया जाने लगा. पिछले कुछ सालों से इस मुद्दे पर महाराष्ट्र में काफी बवाल मच चुका है. राज्यों को स्थानीय नीति बनाने का अधिकार है, लेकिन यह नीति देश के नागरिकों को मिले अधिकार के दायरे में होनी चाहिए, क्योंकि देश के नागरिकों संविधान के तहत कहीं आने-जाने और काम करने का अधिकार है. यह विवाद कई राज्यों में है और सुप्रीम कोर्ट भी इस मसले पर कोई व्यापक फैसला नहीं दे पाया है. इस मसले पर एक मात्र अहम फैसला 2010 में उत्तराखंड हाइकोर्ट का नैना सैनी बनाम राज्य सरकार के बीच का है. जिसमें हाइकोर्ट ने कहा कि स्थानीय नीति भारतीय पंरपरा के अनुकूल नहीं है. मशहूर लेखक माइरॉन विनर की किताब सन आॅफ स्वाइल के तहत झारखंड सरकार को सामाजिक बिखराव रोकने के लिए स्थानीय नीति समग्र और व्यापक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए बनानी चाहिए. यह सही है की बाहरी और स्थानीय लोगों के बीच रोजगार को लेकर विवाद है. देखा गया है कि जब आर्थिक और रोजगार के साधन अधिक होते हैं, तो ऐसे विवाद पैदा नहीं होते हैं. यह सही है कि झारखंड का समाज सामाजिक और आर्थिक तौर पर अंग्रेजों से जमाने से ही शोषण का शिकार रहा है. आजादी के बाद भी यह जारी रहा. वर्ष 1990 में एचइसी में कुल 4284 कर्मचारी थे, जिनमें सिर्फ 335 ही आदिवसी थे. उसी प्रकार कोल इंडिया में भी मूल स्थानीय लोग काफी कम संख्या में थे. इन लोगों को लगता है कि छोटे काम के लिए उन्हें दिल्ली और मुंबई जाना पड़ता है. इस पर भी गौर करने की जरूरत है, लेकिन मौजूदा समय में झारखंड के सामाजिक स्थिति में काफी बदलाव आया है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 70 फीसदी लोग बाहरी हैं, जबकि 26 फीसदी आबादी आदिवासियों की है.