क्यों मरी संवेदना… क्यों मिटी मानवता…
राजलक्ष्मी सहाय: पत्नी का शव कंधे पर उठाये दाना माझी और साथ में चलती रोती-सुबुकती बेटी. इस दुखद दृश्य को देख कुछ चित्र उभरते हैं जेहन में. ‘सती’ का शव थामे भगवान शिव और इकलौते मृत पुत्र को गोद में लिए श्मशान में अकेली विलाप करती राजा हरिश्चंद्र की पत्नी महारानी शैव्या. बिना कफन का […]
राजलक्ष्मी सहाय: पत्नी का शव कंधे पर उठाये दाना माझी और साथ में चलती रोती-सुबुकती बेटी. इस दुखद दृश्य को देख कुछ चित्र उभरते हैं जेहन में. ‘सती’ का शव थामे भगवान शिव और इकलौते मृत पुत्र को गोद में लिए श्मशान में अकेली विलाप करती राजा हरिश्चंद्र की पत्नी महारानी शैव्या. बिना कफन का हिस्सा दिये वह अंतिम संस्कार नहीं कर सकती. पति सत्यव्रत पर अटल. आखिर श्मशान की रखवाली करते हरिश्चंद्र को वह साड़ी का आंचल फाड़ कर देती है.
लाश ढोना कोई मामूली बात तो नहीं. शिवत्व और सत्य में ही ऐसा सामर्थ्य हो सकता है. सती की देह उठा कर शिव ने क्रोध में ऐसा तांडव किया कि निर्जीव शरीर के टुकड़ों से ज्वलंत शक्तिपीठ स्थापित हुए. शैव्या का विलाप और बरसते आंसू ऐसे अंगारे थे कि विश्वामित्र के क्रोध की चट्टान चूर-चूर. सत्य का पर्याय बने हरिश्चंद्र. देखना है कि अब की दाना माझी की बिलखती बेटी की आंखों से गिरते आंसू का इस धरती पर क्या असर होता है? भारत माता की देह पर उसके जलते आंसुअों से उठे फफोले क्या कभी शीतल होंगे? दाना माझी और उसकी बेटी का सुबकता चेहरा केवल तसवीर खींचने की वस्तु नहीं. एक धिक्कार है – इस समाज व्यवस्था और मुल्क पर. एक प्रश्न है – एक आश्चर्य है कि यह देवभूमि भारत की ही बात है? मगर आश्चर्य भी क्यों? जो बोया है, उसी की फसल तो है यह. सावधान! सब अकेले हैं. अब वो कंधा ही नहीं, जो किसी और का भार सहन कर सके. भुजाहीन समाज से हाथ बढ़ाने की उम्मीद कैसी? दाना माझी का निर्विकार चेहरा किसी भयानक तूफान का संकेत है. संवेदना से रिक्त सन्नाटे की आवाज कितनी डरावनी हो सकती है-सोच समझ ले सब. इसी क्रम में प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ याद आती है :
‘एक गरीब बूढ़ा भगत अपने बीमार बेटे को एक नजर देखने की विनती करता है डॉक्टर चढ्ढा से. मगर उस समय वे गोल्फ खेलने जाने की तैयारी कर रहे थे. ‘दूसरे दिन आना’ कह कर वह मोटर पर बैठ निकल जाते हैं. भगत का बेटा तड़प कर दम तोड़ देता है. धूल उड़ाती मोटर को देखता रह जाता है भगत’. प्रेमचंद के ही शब्दों में :
‘‘सभ्य समाज इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था. वह तो उस जमाने का आदमी था जब किसी अनजान की अर्थी देख कर आदमी कंधा देने को दौड़ जाता था. किसी की जलती छप्पर को देख बिना सोचे-समझे बुझाने को कूद पड़ता था. मगर सभ्यता आदमी को ऐसा बना देती है?’’
कैसे नब्ज पहचान लिया था प्रेमचंद ने वर्षों पहले. चकाचौंध करनेवाली सभ्यता की बीमारी का आभास कैसे हो गया था उन्हें. मरती संवेदना की दस्तक सुनी थी प्रेमचंद ने. दाना माझी की पत्नी की शवयात्रा उसी दस्तक का साकार रूप है. आगाह किया था प्रेमचंद ने भी – मगर सुना किसने?
आजादी की पहली भोर में जब लोग जागे तो वही टूटी-फूटी झोपड़ी थी –
टेढ़े-मेढ़े बरतन-दीवारों पर मकड़जाल. मगर उस सुबह में उम्मीदों और उमंगों का अंतहीन क्षितिज था. साथ में था जागृत हृदय का स्पंदन. दिल धड़कता था समाज के लिए-देश के लिए. लेकिन क्या बदला? नया दौर आया. ऊंची-ऊंची अट्टालिकाअों ने हवा रोशनी को भी छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया. बंद खिड़कियों में स्वार्थ की सांसें बुलंद हुई. और, जब बाहर आयी तो दाना माझी की पत्नी का शव यात्रा का दृश्य समक्ष था. संवेदना का चमन उजड़ने लगा. मानवता बिखरने लगी स्वार्थ के कांटे से. हृदय का स्पंदन थम सा गया. पहले किसी और को खिला कर भूख मिटती थी-अब दूसरे का निवाला छीन कर भी भूखे. इस देवभूमि की तसवीर कब भाैतिकता और बाजारवाद के अंधड़ में धुंधली हाे गयी, समाज काे पता ही नहीं चला.
दाना माझी ताे महज एक संकेत है मिटती मरती मानवीय संवेदना का. जहर का घूंट पीकर चलता हुआ-कालकूट से भी कड़वा विष.खूब शाेर मच रहा है साेशल मीडिया और अखबार के पन्नाें पर कि मानवता मर गयी- संवेदना मिट गयी. (जारी)