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सरहुल शोभायात्रा का बदलता स्वरूप : रांची शहरी क्षेत्र में 1964 से निकल रही है सरहुल की शोभायात्रा

!!प्रवीण मुंडा !! रांची : सरहुल यानी सूर्य और धरती के विवाह का पर्व. सरहुल यानी प्रकृति पर्व. सरहुल की शोभायात्रा का दृश्य भी अदभुत है. ढोल, नगाड़े और मांदर की थाप पर थिरकते हजारों लोग. नाचते-गाते प्रकृति प्रेमियों का हुजूम. इस पर्व का संदेश भी साफ है- प्रकृति से जुड़े रहें, प्रकृति में बने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 30, 2017 10:16 AM

!!प्रवीण मुंडा !!

रांची : सरहुल यानी सूर्य और धरती के विवाह का पर्व. सरहुल यानी प्रकृति पर्व. सरहुल की शोभायात्रा का दृश्य भी अदभुत है. ढोल, नगाड़े और मांदर की थाप पर थिरकते हजारों लोग. नाचते-गाते प्रकृति प्रेमियों का हुजूम. इस पर्व का संदेश भी साफ है- प्रकृति से जुड़े रहें, प्रकृति में बने रहें. झारखंड का आदिवासी समुदाय सदियों से सरहुल पर्व मना रहा है. हालांकि सरहुल के अवसर पर शोभायात्रा निकालने का चलन साठ के दशक से शुरू हुआ.
केंद्रीय सरना समिति के अनुसार 1964 में पहली बार रांची में सरहुल की शोभायात्रा निकाली गयी थी. इस शोभायात्रा को जमीन बचाने के लिए निकाला गया था. सिरोम टोली स्थित केंद्रीय सरना स्थल पर एक व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण किया जा रहा था. सिरोम टोली के लोगों ने अतिक्रमण हटाने के लिए समाज के लोगों से मदद मांगी. तब स्व कार्तिक उरांव, पूर्व मंत्री करमचंद भगत और अन्य लोगों ने सिरोम टोली को अतिक्रमण से मुक्त कराया और पूजा-अर्चना की. उसी के बाद से सरहुल की शोभायात्रा निकलने लगी. स्पष्ट है कि सरहुल की शोभायात्रा की शुरुआत जमीन बचाने के लिए थी.

पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा का था अहम योगदान

सरहुल की शोभायात्रा को लोकप्रिय बनाने में पद्मश्री स्व डॉ रामदयाल मुंडा का बड़ा योगदान रहा. अमेरिकी नागरिक और स्व डॉ रामदयाल मुंडा की पहली पत्नी हेजेल ने एक बार एक किस्सा सुनाया था. अमेरिका से डॉ रामदयाल मुंडा के वापस रांची आने के बाद एक कार्यक्रम में आदिवासी नृत्य के माध्यम से लोगों का स्वागत किया जा रहा था. इस दौरान लोगों ने आदिवासी नृत्य व गान को बंद करने को कहा क्योंकि वह उन्हें अच्छा नहीं लगता था और वे इसे हीन दृष्टि से देखते थे. अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में आदिवासी समुदाय के लोग भी दूसरे लोगों के समक्ष अपने नृत्य व गीतों की प्रस्तुति को लेकर हिचकते थे. डॉ रामदयाल मुंडा ने इस हिचक को दूर किया और आदिवासी समुदाय के बीच अपने गीत व नृत्य को लेकर एक अभिमान का भाव भरा. सरहुल की शोभायात्रा में जब वे खुद मांदर को गले में टांगकर निकलते थे, तो वह देखने लायक दृश्य होता था.
झारखंड अलग राज्य के गठन के बाद सरहुल की इस शोभायात्रा में धीरे-धीरे कई बदलाव देखने को मिले. पहले लोग सिर्फ ढोल-मांदर, नगाड़े के साथ निकलते थे. बाद में लाउडस्पीकरों पर नागपुरी गीतों के साथ जुलूस में शामिल होने लगे. इसके बाद डिस्को लाइट और रिमिक्स गीतों का भी दौर शोभायात्रा में जुड़ गया. एक और परिवर्तन यह था कि शोभायात्रा में झांकियां भी निकलने लगी. इन झांकियों में जल, जंगल जमीन बचाने, पर्यावरण की रक्षा, गांव का जीवन जैसे दृश्य होते हैं.
इसके अलावा जनजातीय जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े मुद्दे भी इन झांकियों का विषय होते हैं. इस बार सीएनटी/एसपीटी कानून में संशोधन के खिलाफ झांकियां निकालने की अपील की गयी है. कुछ लोग कहते हैं कि सरहुल एक धार्मिक आयोजन है और इसमें इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिए. पर लोगों को यह भी जानना चाहिए कि आदिवासी समुदाय की सारी व्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं. सरहुल की शोभायात्रा जमीन बचाने की मुहिम से शुरू हुई थी और यह इस वर्ष भी अपने सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक पक्ष के अलग-अलग आयामों के साथ निकलेगी.

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