अनुज कुमार सिन्हा की कलम से : लिट्टीपाड़ा उपचुनाव परिणाम में भाजपा काे सतर्क हाेने का संदेश
।।अनुज कुमार सिन्हा ।। लिट्टीपाड़ा का उपचुनाव झारखंड मुक्ति माेरचा ने जीता, भाजपा हार गयी. इस परिणाम (एक सीट) से सरकार की सेहत पर न ताे फर्क पड़नेवाला था, न पड़ेगा. लेकिन यह चुनाव परिणाम भाजपा काे साेचने पर मजबूर करेगा कि आखिर कमी कहां रह गयी. भाजपा आैर झामुमाे दाेनाें ने इस चुनाव में […]
।।अनुज कुमार सिन्हा ।।
लिट्टीपाड़ा का उपचुनाव झारखंड मुक्ति माेरचा ने जीता, भाजपा हार गयी. इस परिणाम (एक सीट) से सरकार की सेहत पर न ताे फर्क पड़नेवाला था, न पड़ेगा. लेकिन यह चुनाव परिणाम भाजपा काे साेचने पर मजबूर करेगा कि आखिर कमी कहां रह गयी. भाजपा आैर झामुमाे दाेनाें ने इस चुनाव में पूरी ताकत झाेंक दी थी. भाजपा ने सबसे मजबूत नेता हेमलाल मुरमू (जाे झामुमाे से ही आये थे) काे उतारा था. झामुमाे भी पीछे नहीं था. उसने पुरानी नाराजगी, शिकायत दूर कर अपने पुराने साथी साइमन मरांडी पर दांव खेला था.
झामुमाे का तीर निशाने पर लगा. लगभग 13 हजार मताें से साइमन जीते. चार-पांच राउंड काे छाेड़ दें ताे झामुमाे आगे निकलता रहा. चुनाव में भाजपा ने विकास का मुद्दा बनाया, राेजगार का मुद्दा बनाया आैर संताल की दुर्दशा के लिए झामुमाे-साइमन एंड फैमिली काे दाेषी ठहराया था, लेकिन यह सब काम नहीं आया. यह सही है कि रघुवर सरकार ने संताल के विकास काे फाेकस किया है.
वहां अधिक से अधिक राशि खर्च की जा रही है. साहेबगंज ताे खास ताैर पर फाेकस में है. गाेविंदपुर-साहेबगंज सड़क लगभग बन चुकी है. देवघर में एम्स बनने जा रहा है. साहेबगंज में बंदरगाह बनेगा. पहाड़िया युवकाें-युवतियाें की बहाली की गयी. लेकिन ये सारे मामले लिट्टीपाड़ा के मतदाताआें काे प्रभावित नहीं कर सके. झारखंड का इतिहास बताता है कि क्षेत्र में सिर्फ विकास कर देने से चुनाव में जीत नहीं मिल जाती. अर्जुन मुंडा आैर सुदेश महताे का क्षेत्र जा कर देख लीजिए. दाेनाें ने अपने क्षेत्र में काफी काम कराया लेकिन विधानसभा चुनाव में दाेनाें हार गये थे.
दाे बड़े कारण थे, जिनसे भाजपा पार नहीं पा सकी. एक ताे झामुमाे के पारंपरिक वाेट काे ताेड़ नहीं सकी. लिट्टीपाड़ा में संतालाें की अच्छी आबादी है आैर ये झामुमाे के साथ लंबे समय से रहे हैं, तीर-धनुष काे ही पहचानते हैं, शिबू साेरेन के प्रति गहरी आस्था है, उनके बारे में कुछ सुनना नहीं चाहते. दूसरा बड़ा मुद्दा था-आदिवासी मतदाताआें के दिमाग में यह बात घुस गयी है कि सीएनटी एक्ट आैर एसपीटी एक्ट में बदलाव काे नहीं स्वीकारना. भाजपा के नेता भले ही यह दावा करते रहे कि यह संशाेधन अादिवासियाें के हित में है, लेकिन आदिवासियाें काे वह समझा नहीं सकी. जमीन का मुद्दा आदिवासियाें के जीवन से जुड़ा है. इससे वे काेई समझाैता नहीं कर सकते.
इसी बात काे झामुमाे ने समझाया आैर इसका ही उसे फायदा मिला. ऐसी बात नहीं है कि भाजपा संताल फतह नहीं सकती है. संताल में झामुमाे के गढ़ काे ध्वस्त नहीं कर सकती. पिछले चुनाव काे ही देखिए. संताल में 17 विधानसभा सीटे हैं आैर उस चुनाव में झामुमाे काे सिर्फ पांच सीटें (बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा आैर जामा) ही मिली थीं जबकि भाजपा ने सात सीटाें (राजमहल, बाेरियाे, दुमका, मधुपुर, गाेड्डा आैर महगामा) पर कब्जा जमाया था. बाकी सीटाें में कांग्रेस काे तीन आैर जेवीएम काे दाे सीटें मिली थीं. 2014 के चुनाव परिणाम से भाजपा का उत्साह बढ़ा था लेकिन इस उपचुनाव में तमाम ताकत झाेंकने के बावजूद सारे मुद्दाें पर जमीन का मुद्दा भारी पड़ा. यह सही है कि 1977 से इस क्षेत्र पर झामुमाे का कब्जा रहा है. अधिकतर बार साइमन या उनकी पत्नी यहां से विधायक रहे हैं. लेकिन इसे साइमन की सीट कहने से बेहतर हाेगा झामुमाे का सीट कहना. जाे साइमन यहां से झामुमाे से लगातार जीतते रहे थे, वही साइमन जब 2014 में भाजपा में चले गये आैर चुनाव लड़ा ताे हार गये. जीता झामुमाे ही. इसलिए यह सीट साै फीसदी झामुमाे की ही है आैर इसे भेदना इतना आसान भी नहीं था. हां, जब पूरी ताकत लगाने के बाद भाजपा हारी ताे सवाल ताे उठेगा ही.
संभव हाे, प्रधानमंत्री माेदी का दाैरा पूर्व निर्धारित हाे आैर इसका चुनाव से काेई लेना-देना नहीं हाे लेकिन चुनाव के तीन दिन पहले अगर प्रधानमंत्री का दाैरा उस जगह हाेता हाे जाे लिट्टीपाड़ा से करीब हाे ताे जनता इसे चुनाव से जाेड़ कर देखेगी ही, जाेड़ेगी ही. इसे आप राेक नहीं सकते. विकास परियाेजना का शिलान्यास, उदघाटन, पहाड़िया बटालियन में राेजगार आदि जाने-अनजाने इस चुनाव से जुड़ ही गये थे. खुद मुख्यमंत्री ने वहां समय दिया, कई मंत्रियाें ने वहां कैंप किया, संगठन लगा, साइमन के प्रति वहां के लाेगाें में नाराजगी भी थी, अनिल मुरमू की पत्नी ने भाजपा के लिए काम किया. इतना प्रयास के बावजूद भाजपा की हार दल के लिए चिंता की बात है. हार के असली कारणाें काे तलाशना हाेगा. अब एक सवाल यह उठेगा कि जेवीएम के प्रत्याशी काे ज्यादा वाेट नहीं आया, अगर आता ताे भाजपा की स्थिति अच्छी हाे सकती थी. मतदाताआें काे हड़िया-दारू पिला कर वाेट ले लिया गया, ये सब आराेप-प्रत्याराेप लगते रहेंगे. जितना जल्द हाे सके, भाजपा काे कमियाें काे ढूंढना हाेगा आैर उसका निराकरण करना हाेगा. अभी चुनाव में विलंब है आैर भाजपा के पास चेतने का वक्त है. इस हार से सबक लेकर भाजपा आगे बढ़ सकती है, आगे की रणनीति तय कर सकती है आैर यही भाजपा के लिए बेहतर भी हाेगा. यह देखना हाेगा कि भाजपा के तमाम प्रयासाें पर झामुमाे का काैन-सा मुद्दा भारी पड़ गया जिससे भाजपा हारी. जनता के नब्ज काे पहचानने में कहां चूक हुई है या हाे रही है, भाजपा काे यह देखना हाेगा. ईमानदारी से आत्ममंथन से ही रास्ता निकलेगा.
लेखक प्रभात खबर (झारखंड) के वरिष्ठ संपादक हैं.