असहमति का दुर्दांत साहस : तुम चिर प्रवासी
दिनेशचंद्र झा प्रवासी (23 सितंबर 1931-12 मई 2017) पंकज मित्र प्रवासी जी, कई बरस पुराना मजाक आखिर सच हो ही गया. वैसे भी यह मजाकों के सच में बदल जाने का दौर है. एक बार तबीयत खराब होने पर जब कहा था आपने कि शोकसंदेश लिख लीजिए, बस उपयोग होने ही वाला है और फिर […]
दिनेशचंद्र झा प्रवासी
(23 सितंबर 1931-12 मई 2017)
पंकज मित्र
प्रवासी जी,
कई बरस पुराना मजाक आखिर सच हो ही गया. वैसे भी यह मजाकों के सच में बदल जाने का दौर है. एक बार तबीयत खराब होने पर जब कहा था आपने कि शोकसंदेश लिख लीजिए, बस उपयोग होने ही वाला है और फिर जब थोड़ा टनमना गये तो-बेकार हो गया इस बार शोकसंदेश. अभी हजारीबाग की छाती पर और मूंग दलूंगा. यह भंगिमा सिर्फ दिनेशचन्द्र झा ‘प्रवासी’ की ही हो सकती थी किसी और की नहीं. अजब आजाद शख्सियत थी आपकी और इसको इतने कोनों से सुनने का इन 22-23 वर्षों में मौका मिला था कि चंद शब्दों में समेटना मुश्किल. सैकड़ों गोष्ठियां, बैठकें, चेमेगोइयां-साहित्यिक, व्यक्तिगत सब. पर हर जगह एक तेवर, एक लबो लहजा जिसकी आंच हजारीबाग के साहित्यिक परिदृश्य में उपस्थित-अनुपस्थित हर शख्स को कभी न कभी झेलनी पड़ी थी.
एक बार जब कहा था कि आपको हिंदी साहित्य का दुर्वासा घोषित कर देना चाहिए, इस तरह से जो आप साहित्कारों को श्राप से भस्म करते रहते हैं. बड़ी पीड़ा के साथ कहा था आपने तब-अब के समय में श्राप में भस्म करने की ताकत नहीं रही. गोया अब भी आप चाहते थे कि जो कवि-कथाकार-आलोचक अपने दूसरे-तीसरे दर्जे की चीजें सुनवा कर, पढ़वा कर आपको श्रम एवं ऊर्जा के व्यर्थ हो जाने का बोध कराते थे, उन्हें सचमुच श्राप से भस्म कर दिया जाये. सचमुच के श्राप से नहीं-अपनी बेधक आलोचनात्मक टिप्पणियों से.
यही पीड़ा तब भी झलकी थी, जब कहा था आपने-कैसी-कैसी कविताएं-कहानियां लिख कर ले आते हैं. न भाषा की तमीज, न व्याकरण का पता बन गये कवि-कथाकार. मेरी तल्ख टिप्पणियों से अगर खुद में सुधार लायें, तो मेरा कहना सार्थक हो. असहमति का दुर्दांत साहस आपका सिर्फ साहित्य में सौंदर्यबोध की रक्षा एवं गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करने की जिद के चलते था, कभी-कभी तो व्यक्तिगत संबंधों की कीमत पर भी. जितनी मजबूत कद-काठी एवं हड्डियां थीं, उतना ही मजबूत और बड़ा जिगर था नहीं तो ऐसा कौन करता है कि जिस लेखक ने खर्च-वर्च करके, आपको मुख्य अतिथि बनाकर आदर-आप्यायन किया, उसी को मंच से आपने कह दिया कि जिसको जो काम ठीक से आता हो वही करना चाहिए.
डाक्टर हैं, अफसर हैं तो अपना ही काम ठीक से करें. अनावश्यक साहित्य में हस्तक्षेप न करें. इसी में सबका भला है. इसीलिए शायद आपका प्रिय वाक्य था जिसे बातचीत में कहते थे बार-बार आप-लेट अस एग्री टु डिसएग्री (हम असहमति के लिए सहमत हों) 1948 में पहली कहानी छपने के बाद से कविताएं (बंधन के सेतु) कहानियां (कांपती लौ बजती घंटियां) व्यंग्य लेख (बत्तियां गुल हैं) उपन्यास (किसके लिए, जय जय काली) बाल साहित्य (ज्ञान की खोज) और फिर दूसरी पारी (आप ही के शब्द) में कहानियां, कविताएं रचना संचयन और अभी हाल में आग की वैतरणी कहानी संग्रह. मतलब इतने लंबे समय तक तो आदमी साहित्य के प्रति अनुराग तक नहीं रख पाता है, मगर आप सक्रिय रहे-न खूसट हुए न सठियाये, बल्कि ज्यादा खूंखार हो गये.
भले किसी पुरस्कार की इच्छा नहीं रही आपको, लेकिन पुरस्कारवालों को भी सोचना था एक बार कम से कम अपने बारे में जब एकाध किताब के बल पर कई लोग पा गये. पर जो पुरस्कार मिला आपको-युवा रचनाशीलता का आदर और स्नेह. कई नवोदित साहित्यकारों को ठेल-धकेल कर, मजबूर कर, डांट-फटकार कर रचनाएं लिखवाना. उस पर अपने खर्च से गोष्ठियां करवा कर ऊर्जा भरी आपने जिसे हम मजाक में गैंग ऑफ प्रवासी कहते थे. उनमें साहित्य के प्रति अनुराग, साहित्य के संस्कार डालने का बड़ा काम किया आपने और सबसे बढ़ कर आलोचना के हथौड़े से ठोक-पीट कर उतना मजबूत जरूर बना दिया है कि वे न केवल साहित्य में बल्कि जीवन में भी संकटों को झेल लेंगे. दरअसल आपके लिखे को बार-बार पढ़ना जरूरी है भाषा को बरतने की तमीज सीखने के लिए.