आयो रंग रंगीलो होली यानी रंगों के पर्व होली का आगमन हो चुका है. होली यानी फागुन की मस्ती. दिल और दिमाग में परिवर्तन की बयार बहने लगती है. मन झूमने लगता है. कृष्ण कन्हैया बृज में होली खेलते हैं और राम अवध में. शिव तो श्मशान को ही रंग भूमि बिना डालते हैं. देवताओं की होली को भक्ति उल्लास में डूबे कवियों ने अपनी व्याख्या से लोकमानस में ऐसा प्रचलित किया है कि यह महापर्व देवताओं की होली के गुणगान के बिना पूरा ही नहीं हो पाता है. वहीं आज के दौर के कवियों ने भी इस महापर्व को अपनी कविताओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया है. उनकी अमर रचनाओं से हम आपको करा रहे हैं रूबरू. पेश है अभिषेक रॉय की रिपोर्ट.
साहित्य में रंगोत्सव के बहुरंगी रूप
हिंदी साहित्य में रंगोत्सव के बहुरंगी रंगों को विस्तार मिला है. अमीर खुसरो, मीरा बाई, नजीर अकबराबादी और भारतेंदु हरिश्चंद्र की लिखी गयी होली कविताएं आज भी लोगों के जेहन में मौजूद हैं. होली के अवसर पर आज भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. जमाना बदला और दौर नये आये, लेकिन रचनाएं आज भी लोगों को गुदगुदाती है. पर्व के मर्म को समझाती हैं. आधुनिक हिंदी साहित्य के दिग्गज कवि मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, हरिवंशराय बच्चन और नामवर सिंह की कविताएं रंगोत्सव में डुबाती है.
होलिका की परंपरा साहित्यकार महादेवी वर्मा ने बदली
साहित्यकार डॉ कुमार वीरेंद्र बताते हैं कि साहित्यकारों ने होली की सामाजिक परंपरा और प्रथाओं को बदलने की पहल भी की है. इससे रूढ़ीवादिता भी समाप्त हुई और एक नयी परंपरा का भी आगाज हुआ. ख्याति प्राप्त साहित्यकार महादेवी वर्मा ने प्रयागराग में होलिका की परंपरा को बदलने का काम किया था. अमूमन शहरों में होलिका को पुरुषवादी वर्चस्व से जोड़कर देखा गया है. लेकिन, महादेवी वर्मा ने इसके साथ नारी सशक्तीकरण को जोड़ा और स्वयं होलिका दहन की एक नयी परंपरा की शुरुआत की.
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हिंदी में रंग विशेषण है, विविधता का करता है प्रतिनिधित्व
गोस्सनर कॉलेज के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ प्रशांत गौरव ने कहा कि हिंदी में होली को बसंत उत्साह के रूप में पेश किया जाता है. इसमें रंग विशेषण है. यह मूल रूप से जीवन और समाज के रंग को दर्शाने का काम करता है. समाज में स्थापित विविध रंग पर्व में मिठास भरते हैं. कवि निराला ने होली को बसंत उत्साह के रूप में पेश किया. वहीं, समाज के लिए होली विवेक संवत का प्रतीक है. हिंदी संवत के अनुसार, होली नव वर्ष की शुरुआत का पर्व है. फागुन खत्म होने के साथ चैत्र से नये साल की शुरुआत होती है.
रिश्तों में आत्मीयता का भाव घोलता है होली का महापर्व
कवियित्री रश्मि शर्मा कहती हैं कि होली सिर्फ पर्व नहीं है, बल्कि इस पर्व से रिश्ते की बुनियाद मजबूत होती है. आज जब भाग-दौड़ की जिंदगी में संवाद का स्पेस कम हो रहा है, तो होली हमें जीवंतता के साथ रिश्ते को निभाने का संदेश देती है. अपनों को अपने पास खिंचकर लाती है. इस पर्व में देवर-भाभी की होली, ननद-भाभी की होली रिश्तों में भाव के साथ आत्मीयता को भरती है. अपनों के साथ तो होली है ही, परिचित-अपरिचित का भी भाव समाप्त कर देती है. होली के दिन कोई भी मिले, तो वह अपना सा ही लगता है. बस यहीं भाव रहता है कि कोई हो, तो उसे रंग से भर दिया जाये.
लोक साहित्य में भी किया गया है होली पर्व का शृंगार
रचनाकारों की मानें तो होली अकछंद संस्कृति को बढ़ावा देने का प्रतीक है. लोक साहित्य और परंपरा में खान-पान से लेकर व्यंजन में होली का शृंगार है. होली के मौके पर लोग पेड़ोकिया (गुजिया) बनाते हैं, जबकि यह तीज का प्रसाद है. यह व्यंजन लोगों के स्वास्थ्य और शौर्य कामना के लिए परोसा जाता है.
इसके अलावा पुआ, दही बड़ा और पाड़ खान-पान में अल्हड़पना को दर्शाता है. होली के मौके पर लोग ढोल-मंजीरा लेकर बैठते हैं, तो यह संस्कृति को बढ़ावा देने का संदेश देती है. साहित्यकार महादेव टोप्पो ने कहा कि लोक साहित्य में होली को ‘फगु’ कहा जाता है. इसमें सेमल का पेड़ और उसके फल को डालकर जलाया यानी फगु काटा जाता है. जिससे समृद्धि बरकरार रखने की कामना की जाती है.
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
भारतेंदु हरिश्चंद्र
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में
है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
केशर की कलि की पिचकारी
केशर की, कलि की पिचकारी
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
पात-पात की गात संवारी
राग-पराग-कपोल किये हैं
लाल-गुलाल अमोल लिये हैं
तरू-तरू के तन खोल दिये हैं
आरती जोत-उदोत उतारी
गंध-पवन की धूप धवारी
रंग में रंग लो तो होली
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है.
हरिवंशराय बच्चन
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है.
होली के इंतजार में
फागुन! जब होता है वसंत के आलिंगन में/ वर्षों से बंद मन पर चढ़े सांकल भी खुल जाते हैं फगुनाहट से/ सुदूर में दहकता पलाश/ करने लगता है सांठ -गांठ अस्ताचल के सूरज के साथ/ सुबह कि सिहरन से जन्म लेने लगती हैं सुंदर-सुंदर कविताएँ!/ चढ़ते सूरज और दहकते पलाश की गोद में सुगबुगाने लगती हैं कई कहानियां / मायके आने वाली बेटियों के स्वागत में / गेंहूं , अलसी चना से भरा-पुरा आंगन और द्वार पर खड़ा अमलतास/ बरसाने को आतुर होता है बेहिसाब फूल!/ तो क्यों न/ इस दौड़ती-भागती अपनी जिंदगी में/ प्रकृति से आलिंगनबद्ध हो/ हम भी करें होली का इंतजार….!
नंदा पाण्डेय
होली दोहे
आया फागुन उड़ रहे,
डॉ सुरिन्दर कौर नीलम
ब्रज में रंग गुलाल।
राधा सुध- बुध खो रही,
नैनन में गोपाल।।
सांसें गोकुल हो गयी,
वृंदावन अहसास।
मन को मधुबन कर गया,
दर्शन का आभास।।
श्याम वर्ण पे जान लो,
चढ़े न कोई रंग।
डूबा प्रेम अबीर में,
कान्हा का हर अंग।।
बाट निहारे है खड़ी,
राधा, यमुना तीर।
मुरलीधर की बांसुरी,
हर ले उसकी पीर।।
मौसम ने बिखरा दिये,
प्रीत सुरभि के रंग।
हम सब होली खेलेंगे
रंग में भंग डालने वालों ,
गुरमीत सिंह जरमस्तपुरी
हम सब होली खेलेंगे।
बेरंग करेंगे जो रंगों को,
अंत वहीं फिर झेलेंगे।
रंग में भंग ……………..।
काला, गोरा गेहूंआं, भूरा ,
चेहरों के रंग अनेक हैं ।
तरह तरह के जात धर्म हैं
फिर भी हम सब एक हैं।
तोड़े से कोई तोड़ सके न ,
हर ज़ुल्म को झेलेंगे।
रंग में भंग ………………।
हरे केसरी नीले पीले,
सजे सरों पे ताज यहां।
रूठों को जो गले लगा ले,
ऐसा बने समाज यहां ।
द्वेष, ईर्ष्या भूल के हम सब
टूटे दिलों को जोड़ेंगे
रंग में भंग ……………..।
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई का
नारा कोई नहीं भूलेगा ।
तीन रंगों का देश यहां का ,
सदा तिरंगा झूलेगा ।
देश प्रेम के रंग में रंग कर ,
रंगों की होली खेलेंगे।
रंग में भंग ……………..।
धर्म के दायरे से दूर है साहित्य की होली
साहित्यकारों की मानें, तो होली धर्म और मजहब के दायरे को तोड़ती है. होली का एक संदेश यह भी है कि समाज एक रंग में रंगे आगे बढ़े, मोहब्बत-भाईचारा का रंग गाढ़ा हो, नफरत और वैमनस्यता बेरंग हो, समाज में भेदभाव मिटे. सब एक-दूसरे के गले मिले और समाज को एक नये रंग में गढ़े. यही कारण है कि मुस्लिम साहित्यकार व शायरों की रचना भी होली के पर्व में उल्लास भरती है. ये रचनाएं आज भी काफी चर्चित हैं. जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि होली हमें धर्म और मजहब के दायरे को तोड़कर सभी के साथ मिलजुल कर रहने का एक सार्थक संदेश देती है.
पलाश के फूल नहीं रंग बोलते हैं
फागुन माह में प्रकृति के रंग में बदलाव देखा जाता है, जो व्यक्ति को सुकून का एहसास कराता है. धरती का शृंगार भी अनुपम होता है. इस दौरान पलाश के फूल भी खिले नजर आते हैं. प्रकृति का यह नजारा मानो यह संदेश दे रही हो कि वह भी होली में विविध रंगों से रंग चुकी है. इसका अहसास भी होता है. पलाश के फूल बोल उठते हैं और इनसे होली का रंग भी बनता है. केदारनाथ अग्रवाल की रचना ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ इसे सिद्ध करती है. साहित्यकारों का कहना है कि प्रकृति जीवंत रहे, तो असली रंग चढ़ेगा.
जीव और देव जगत को जोड़ती है होली
प्राचीन धर्म ग्रंथों में होली – जीव जगत और देव जगत को जोड़ने वाला पर्व माना गया है. इस त्योहार में कुंवर कन्हाई को सखियों संग रंगों की लीला करते, भगवान शिव का भूत-बेताल के साथ रंग खेलने का उदाहरण मिलता है. लोग पर्व के दौरान देवताओं पर अबीर चढ़ाते हैं. यह देवता को श्रेष्ठ बताने का प्रतीक है. धर्म ग्रंथ में होली से समाज के जुड़ाव का संदेश मिलता है. इसलिए आज भी होलिका के दिन पड़ोसियों से पांच गोइठा मांगने का रिवाज कायम है.
होली
होली की ‘नजीर’ अब जो बहारें हैं अहाहा
नजीर अकबराबादी
महबूब रंगीलों की कतारें हैं अहाहा
कपड़ों पे जमी रंग की धारें हैं अहाहा
सब होली है होली ही पुकारे हैं अहाहा
क्या ऐश है, क्या रंग है, क्या ढंग जमीं पर
होली ने मचाया है अजब रंग जमीं पर