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Azadi Ka Amrit Mahotsav : अविस्मरणीय और ऐतिहासिक था झारखंड के आदिवासियों का योगदान

1857 का समर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ झारखंड की संपूर्ण राष्ट्रीय चेतना के संदर्भ और घटनाक्रम की दृष्टि से महज सिपाही विद्रोह नहीं था, यह राष्ट्रीय समर था. संथाल परगना और हजारीबाग में इसे मूल रूप से सिपाही विद्रोह कहा जा सकता है वहीं, सिंहभूम, पलामू और वर्तमान रांची क्षेत्र में यह जन-विद्रोह था.

आजादी का अमृत महोत्ससव: सन 1857 का राष्ट्रीय समर देश में कंपनी शासन के खिलाफ पिछले सालों में हुए प्रतिरोधों की पराकाष्ठा थी. इसके पूर्व हुए संन्यासी, चकमा, पहाड़िया, संताल, मुंडा, भील, हो, कोल, चोआर, गोंड, खिसया, खोंड (1765-1856) जैसे विद्रोह हो चुके थे, किंतु 1857 का राष्ट्रीय समर एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी. इसके फलस्वरूप इसकी एक अलग पहचान विकसित हुई. विभिन्न वर्गों, शासकों, जमींदारों आदि के साथ-साथ आदिवासियों ने भी इसमें बड़ी सक्रिय भूमिका निभायी और भारत से कंपनी शासन को उखाड़ फेकने का भरसक प्रयास किया. प्रामणिक ऐतिहासिक दस्तावेजों से स्पष्ट है कि 1857 के समर में देश के अन्य आदिवासियों के योगदान की तुलान में झारखंड के आदिवासियों का योगदान अधिक संगिठत, सक्रिय, आक्रामक और दीर्घकालिक था.

रोहिणी से समर का शंखनाद, पूरे झारखंड में फैल गया विद्रोह

झारखंड में इसकी शुरुआत संताल परगना के देवघर जिले के रोहिणी गांव में 12 जून, 1857 को हुई, पर इसके क्रांतिकारी वीर नायक सैनिक अमानत अली, सलामत अली और शेख हारो (पांचवी इरेगुलर कैवेलरी के सैनिक) गिरफ्तार हो गये और मेजर मैकडोनाल्ड ने 16 जून, 1857 को इन नायकों को फांसी दे दी. इसके बावजूद इस समर को रोका नहीं जा सका और शीघ्र ही झारखंड के अन्य क्षेत्रों में यह बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित हो गया. झारखंड में रोहिणी, देवघर, रांची, हजारीबाग, चतरा, चुटूपालु, पुरूिलया, पंचेत, झालदा, पोराहाट आदि 1857 के राष्ट्रीय समर के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे. रांची के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, रामगढ़ बटािलयन के जमादार माधो सिंह, डोरंडा बटालियन के जयमंगल पांडेय, विश्रामपुर के चेरो सरदार भवानी राय, टिकैत उमराव सिंह, पलामू के नीलांबर और पीतांबर, शेख भीखारी, नखलौट मांझी, ब्रजभूषण सिंह आदि क्रांतिकारियों की अगुआई में अन्य जाति के लोगों के साथ झारखंड के आदिवासियों ने भी अहम और अद्वितीय बलिदानी भूमिका निभायी.

आदिवासियों ने कंपनी शासन की सेना से किया था मुकाबला

आदिवासियों ने आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कंपनी शासन की सेना का अपने परंपरागत हथियारों से वीरतापूवर्क मुकाबला किया. कभी हथियार नहीं डाले. सरकारी पत्राचार से पता चलता है कि संताल परगना में संताल और चोआर आदिवासियों की गतिविधियों से कंपनी शासन के सैनिक और असैनिक अधिकारी बेहद आतंकित थे और उनके द्वारा किये जाने वाले प्रतिवाद की आशंका से भयभीत रहते थे. इसलिए इससे निबटने के लिए उन्होंने आवश्यक तैयारियां करने का निर्देश जारी किया. छोटानागुपर में अन्य समुदायों के साथ हजारीबाग के संताल, सिंहभूम के कोल, पलामू के बिरीजया, खरवार, चेरो, भोगता, भुइयां आदि जनजातियों ने 1857 के समर में विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया. यह झारखंड के आधुनिक इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है. गोनो पिंगुआ, डबरू मांनकी, खरी तांती, टिबरू संताल, रूपा मांझी, रामबनी मांझी, अजुर्न मांझी, कोका कमार आदि आदिवासियों के अन्य प्रमुख नायक थे.

जनजातियों का आक्रामक, सक्रिय और दीघर्कालिक संघर्ष

हालांकि इसके अधिकांश नायक पकड़ लिये गये, उन्हें फांसी हुई, पर किसी ने आत्मसमपर्ण नहीं किया. लिहाजा, देश के अन्य क्षेत्रों की तुलना में 1857 के समर से झारखंड ज्यादा लंबे समय तक आंदाेलित रहा. इससे कंपनी शासन के सैनिक और असैनिक अधिकारी गंभीर रूप से आतंकित हुए. यह जनजातियों की एक बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि थी कि लगभग एक साल तक झारखंड में विदेशी शासन ठप्प रहा. वस्तुत: झारखंड की जनजातियों के आक्रमक, सक्रिय और दीर्घकालिक संघर्ष से विदेशी शासक हतप्रभ थे. इनके दमन के लिए उन्हें बड़ी शक्ति लगानी पड़ी.

प्रबल जन-विद्रोह का रूप ले लिया संघर्ष के स्वरूप और मकसद ने

यद्यपि विदेशी शासन की खिलाफत पूरे झारखंड में हुई, पर सभी जगह इस सशस्त्र संघर्ष का स्वरूप एक जैसा नहीं था. ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सिंहभूम में संघर्ष का स्वरूप अधिक उग्र था. यह जन-विद्रोह था. संताल परगना और हजारीबाग में यह मूल रूप से सिपाही विद्रोह था, लेकिन पलामू और वतर्मान रांची क्षेत्र में इस संघर्ष ने जन-विद्रोह का रूप धारण कर लिया था, पर इन सभी स्थानों के क्रांतिकारियों का एक ही मूल मकसद विदेशी शासन से देश को आजाद काराना. यह ठीक है कि अंग्रेज सैनिक और असैनिक अधिकारी इसका दमन करने में कामयाब हो गये, पर जनजातियों और इनके नायकों की गौरव गाथाएं, अदम्य साहस, शहादत आदि लोकगीतों और लोककथा-कहानियों में आज भी जीवंत हैं. इन लोकगीतों, कथा-कहानियों और इनसे जुड़ी अन्य साहित्यिक सामग्रियों (हिंदी, बंगला और संताली साहित्य) को खोजने, एकत्रित करने और इनकी समीक्षात्मक विवेचना करने की आवश्यकता है.

देश के अन्य क्षेत्रों में निवासित आदिवासियों का योगदान

देश के अन्य क्षेत्रों में निवासित आदिवासियों ने भी इसमें बड़ा योगदान किया. 1857 के समर के दौरान मध्य भारत में गोंड शासक राजा शंकर शाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह, बिंगल आदिवासी और उनके नायक वीर नारायण सिंह, पश्चिम भारत में भील और उनके नेता भीमा नायक, खाज्यां नायक, सीताराम, टंट्या भील सहित संबलपुर (ओडिशा) में आदिवासी और उनके नेता सुरेंद्र शाही और उदवंत शाही, उत्तर-पश्चिम पंजाब के आदिवासी, गुजरात के कोलिस, भील और नायकदास आदिवासी और उनके नेता ठाकोर जीवाभाई, आंध्र व हिमाचल की पहाड़ी जनजातियों ने भी विदेशी शासन का पुरजोर विरोध किया.

झारखंड के आदिवासियों का योगदान अधिक संगठित और दीर्घकालिक

प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेजों के आकलन से स्पष्ट होता है कि 1857 के समर में देश के अन्य प्रदेशों की जनजातियों के योगदान की तुलना में झारखंड के आदिवासियों का योगदान अधिक संगठित, आक्रामक, सक्रिय और दीर्घकालिक था. ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि झारखंड कहीं पर आदिवासियों का संघर्ष 1859 और 1860 (छोटानागपुर और पलामू) तक जारी रहा. इस तरह का जनजातीय संघर्ष देश के किसी अन्य जनजातीय क्षेत्र में नहीं हुआ, क्योंकि साम्राज्यवादी ताकतों के समक्ष वे ज्यादा नहीं टीक सके, उनका शीघ्र दमन कर दिया गया. यद्यपि देश के आदिवासी अपने मिशन में कामयाब नहीं हुए. इसके बावजूद विदेशियों को देश से निकालने के लिए उन्होंने अपनी कुरबानियां दीं, अपने परंपरागत हथियारों से विश्व की सबसे बड़ी शक्तिशाली साम्राज्यवादी ताकत का सशस्त्र प्रतिवाद किया व आनेवाली पीढ़ी के लिए अद्वितीय मिसाल कायम की. राष्ट्रीय आलोक में मूल्यांकन करने पर स्पष्ट होता है कि 1857 के समर में झारखंड के आदिवासियों का अधिक संगठित, आक्रमक, सक्रिय और दीर्घकालिक योगदान आधुनिक भारतीय इतिहास का एक स्वणिर्म अध्याय है.

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