Azadi Ka Amrit Mahotsav: 18 साल की उम्र में ही संघर्ष में कूदे बीरेश्वरनाथ

हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया. झारखंड की माटी ऐसे आजादी के सिपाहियों की गवाह रही है.

By Prabhat Khabar News Desk | August 9, 2022 9:00 AM

Azadi Ka Amrit Mahotsav: रांची के स्वतंत्रता सेनानी पांडेय बीरेश्वरनाथ राय की उम्र जब साढ़े 18 साल की थी, तब वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे. उस समय वह इंटर के छात्र थे. आजादी की लड़ाई में वह दो बार जेल भी गये. हजारीबाग जेल से वह 1943 में रिहा हुए थे. देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जुनून ही था कि वह रामगढ़ में आहूत कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने साइकिल पर रांची से रामगढ़ चले गये थे. वह मूल रूप से भंडरा (अब लोहरदगा जिला) के रहनेवाले थे. स्वतंत्रता सेनानी पांडेय बीरेश्वर नाथ राय का जन्म 12 दिसंबर 1923 को और निधन 2 अगस्त 1985 को हुआ था. देश की आजादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी पांडेय बीरेश्वरनाथ राय ने रांची के बालकृष्णा उच्च विद्यालय में शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दी. लोग उन्हें मोहन बाबू के नाम से भी जानते थे.

प्रधानमंत्री ने भेंट किया था ताम्र पत्र

1972 में जब आजादी की 25वीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी, तो उस समय स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित किया जा रहा था. स्वतंत्रता आंदोलन में उनके अहम योगदान के लिए बीरेश्वरनाथ राय को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ताम पत्र भेंटकर सम्मानित किया था.

रांची में भी थी 1942 के आंदोलन की गूंज

स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र पांडेय रवींद्रनाथ राय ने बताया कि उनके पिता पांडेय बीरेश्वरनाथ राय ने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े अपने अनुभवों को लिखा है. 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का जो आंदोलन था, उसकी गूंज रांची में थी. 9 अगस्त 1942 के आंदोलन के दो दिन बाद यानी 11 अगस्त 1942 को रांची में जूलूस निकला था. उनके पिता बताते थे कि स्वतंत्रता संग्राम को लेकर जो जूलूस या फिर आंदोलन होता था, उसकी अगुवाई कौन कर रहा है, किस संगठन ने बुलाया है, यह कोई नहीं जानता था. छोटी टोली झंडे के साथ निकलती थी और देखते-देखते वह विशाल जनसमूह में तब्दील हो जाती थी. तब रांची के रतन टॉकीज के सामनेवाली गली में स्थित गिरजा भाई के घर पर गुप्त बैठक होती थी. जिसमें पैसा, बारूद और काले कपड़े जुटाने पर जोर रहता था. उस दौरान ओरमांझी जानेवाली सड़क पर बने पुल को उड़ाने की योजना बनायी गयी थी. इसके लिए मिस्त्री से प्रशिक्षण भी लिया गया था, लेकिन इस योजना में उनके पिता और साथी कामयाब नहीं हो सके. दूसरी ओर उन्होंने टेलीफोन का तार काटने और अंग्रेजों के विरोध में परचा बांटने का काम जारी रखा. इस दौरान रांची से उनके पिता की गिरफ्तारी हो गयी थी. उनके पास से परचा बरामद किया गया था. रांची जेल से उन्हें हजारीबाग जेल शिफ्ट किया गया था. उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक 28 जुलाई 1943 को वह जेल से छूटे थे.

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