चंपारण सत्याग्रह और क्रांति का संगम

चंपारण का नाम लेते ही महात्मा गांधी की याद आती है और सत्याग्रह जेहन में उभरता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि चंपारण में सिर्फ सत्याग्रह ही हुआ. यहां की मिट्टी में ऐसे सुराजी पैदा हुए, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ न सिर्फ बगावत की

By Prabhat Khabar News Desk | July 2, 2022 9:40 AM

चंपारण का नाम लेते ही महात्मा गांधी की याद आती है और सत्याग्रह जेहन में उभरता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि चंपारण में सिर्फ सत्याग्रह ही हुआ. यहां की मिट्टी में ऐसे सुराजी पैदा हुए, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ न सिर्फ बगावत की, बल्कि क्रांति की नयी इबारत लिखी. आज हम आजादी के अमृत महोत्सव की शृंखला में चंपारण के कुछ ऐसे लोगों की चर्चा करेंगे, जिनमें सत्याग्रही भी थे और क्रांतिकारी भी, पर सभी का मकसद एक ही था- आजाद हिंद. पेश है वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अनुरंजन झा की विशेष रिपोर्ट.

जब-जब चंपारण की बात की जायेगी, तब-तब महात्मा गांधी की बात होगी और जब-जब चंपारण में महात्मा गांधी की बात होगी, तब-तब किसान राजकुमार शुक्ल की बात होगी. वह राजकुमार शुक्ल ही थे, जिनकी वजह से मोहनदास गांधी ने चंपारण की यात्रा की और यात्रा समाप्त होते-होते मोहनदास से महात्मा गांधी हो गये. बावजूद इसके राजकुमार शुक्ल को इतिहास में जितनी जगह मिलनी चाहिए थी, उतनी नहीं मिल सकी.

बहुत सारे इतिहासकारों ने उन्हें फुटनोट में ही निपटा दिया. हालांकि गांधी की डायरी में राजकुमार शुक्ल का जिक्र है. हकीकत यह है कि राजकुमार शुक्ल शायद उस दौर के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सीधे-सीधे अपनी ताकत पर अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ न केवल अपनी आवाज बुलंद की, बल्कि अपनी सोच-समझ, सूझबूझ और जीवटता से गांधी को चंपारण तक ले आये. जहां आकर गांधी ने निलहों के अत्याचार से न सिर्फ चंपारण को मुक्ति दिलायी, बल्कि पहली बार गांधी का कोई आंदोलन भारत में सफल हुआ.

हालांकि इस आंदोलन से या बाद की राजनीति से राजकुमार शुक्ल ने व्यक्तिगत तौर पर कुछ पाया नहीं, अपना सब कुछ गंवाया ही. बेलवा के निलही कोठी के मैनेजर एम्मन से राजकुमार शुक्ल की निजी रंजिश ऐसी बढ़ी कि उन्होंने चाणक्य की तरह शिखा खोल कर ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा कर डाली और सही मायने में उसकी नींव भी डालने में सफल हो गये.

एक बार अंग्रेजी सैनिकों से अपने को बचाते हुए राजकुमार शुक्ल ने गंडक नदी की बहती धारा के विपरीत अपनी साइकिल समेत 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय कर लिया था, इससे उनकी जीवटता का पता चलता है. 60 बीघा जमीन से ज्यादा की खेती, 200 से ज्यादा पशुओं का हुजूम, सब आजादी की लड़ाई में कुर्बान हो गये.

54 साल की उम्र में उनके निधन पर चंदा जुटा कर उनका अंतिम संस्कार किया गया. उनकी तेरहवीं के वक्त उनके घर आकर उसी एम्मन ने न सिर्फ श्रद्धांजलि दी, बल्कि उनके दामाद को सरकारी नौकरी का कागज भी सौंपा और डॉ राजेंद्र प्रसाद के यह पूछने पर कि वह तो आपके दुश्मन थे, फिर आप उनके लिए ऐसा क्यों कर रहे हैं, ऐम्मन ने कहा कि चंपारण का मर्द चला गया. अब मैं किससे लड़ूंगा?

रमेशचंद्र झा

रमेशचंद्र झा और उनके परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम में बर्बाद होकर अट्टाहास करने का इतिहास है. वह उनमें हैं, जिन्होंने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए स्वयं हथकड़ियां पहनीं. वह उनमें हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता पायी नहीं, कमायी. यह कथन हैं साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का, जिन्होंने एक किताब की भूमिका में रमेशचंद्र झा के बारे में लिखा.

रमेशचंद्र झा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और पिता लक्ष्मीनारायण झा से प्रभावित होकर बचपन में ही बागी बन गये थे. उनके पिता को महात्मा गांधी की चंपारण यात्रा के पहले ही दिन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था. छह महीने की सश्रम सजा हुई थी. महज 14 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त रमेशचंद्र झा पर ब्रिटिश पुलिस चौकी पर हमले और उनके हथियार लूटने के आरोप लगे. उस वक्त रेलगाड़ियां बहुत कम थीं.

रात में तो नहीं के बराबर थीं. अक्सर गर्मियों में ब्रिटिश रेलवे कर्मी रेलवे ट्रैक पर ही मजमा लगा लेते, खाते-पीते और वहीं सो भी जाते थे. एक बार रक्सौल के पास कुछ ब्रिटिश अधिकारी ऐसे ही सो रहे थे. बगल में मालगाड़ी की एक बोगी खड़ी थी, जिसे रमेशचंद्र झा ने साथियों के साथ धक्का देकर उन लोगों के ऊपर से गुजार दिया. कुछ की जानें चली गयीं, कई घायल हुए.

प्रशासन ने जिन चंद लोगों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया था, उनमें रमेशचंद्र झा भी थे. जेल की सजा काटते हुए उनके अंदर भारतीय और विश्व साहित्य पढ़ने का चस्का लगा और बाहर आकर वे किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता होने के बजाए रचनाकार हो गये इतिहास के पन्नों में जिस जगह के वह हकदार थे, वह जगह उन्हें नहीं मिली, लेकिन आजीवन उसका उन्होंने कोई शोक नहीं मनाया.

पीर मुहम्मद मुनीस

पीर मुनीस के बेतिया वाले घर में एक दिन पुलिस ने छापा मारा. पुलिसवाले मुनीस के घर में गांधी जी का कोई खत तलाश रहे थे. तभी एक किताब में दबा कर रखी एक चिट्ठी पर उनकी नजर पड़ी. वे इस चिट्ठी को उठाते, इससे पहले ही मुनिस साहब ने झपट कर वह चिट्ठी उठा ली और उसे मुंह में रख लिया. पुलिस वालों ने जबरन उनका मुंह खुलवाया और चिट्ठी निकालने के लिए हाथ डाला, तो मुनीस ने दांत काट लिया.

उसकी दो उंगलियां कट गयीं और मुनीस उस पत्र को निगल गये. उन्होंने पलट कर कहा, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बीवी के खत पढ़ने की?’ गांधी के चंपारण सत्याग्रह के पहले से ही पीर मुहम्मद मुनीस सही मायने में चंपारण में रहते हुए देश के लिए अभियानी पत्रकारिता कर रहे थे. मुनीस को सीधे गांधी और उनके समकालीनों का स्नेह तो मिला, पर आजादी के बाद भुला दिये गये.

बिहार की तथा हिंदी पत्रकार बिरादरी को याद भी नहीं आया कि उनका कोई ऐसा जबर्दस्त पुरखा भी रहा है, जिसने अपनी कलम से ब्रिटिश सत्ता से सीधे लड़ने का साहस किया हो. मुनीस का नील की खेती से सीधा कोई ज्यादा वास्ता न था और न ही उनका निलहों या ब्रिटिश हुकुमत से कोई हित टकराया था. वह सचमुच जिले के किसानों का दुख-दर्द देख कर ही इस विषय पर कलम उठाने को मजबूर हुए.

इस बीच सरकारी नौकरी गंवाने, जेल जाने, छापे और दूसरे नुकसानों की परवाह नहीं की. वह आंदोलन में शामिल अकेले व्यक्ति थे, जिनका जीवन सचमुच अभाव में बीता. इन सबके बीच उनका जवान बेटा मर गया और उसके परिवार की परवरिश भी उनके जिम्मे आ गयी. मुनीस ने घोर अभाव सह कर भी कभी कोई समझौता नहीं किया.

बत्तख मियां

यह बात तब की है, जब गांधी मोतिहारी में थे. चंपारण के नील फैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता इरविन ने उन्हें एक रोज बातचीत के लिए बुलाया. ब्रिटिश हुकूमत ने गांधी को नील की खेती करने वालों के बयान दर्ज करने की अनुमति दे दी थी. गांधी के सत्याग्रह का प्रयोग सफल हो रहा था. इरविन ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए गांधी को जहर देकर मारने की खौफनाक योजना बना डाली.

इरविन की कोठी पर मोतिहारी के पास के गांव के ही बतख मियां खानसामा थे. इरविन और उनके करीबियों ने बतख मियां से कहा गया कि आप भोजन हो जाने के बाद यह दूध का ट्रे लेकर गांधी के पास जायेंगे. अंग्रेजों के जुल्म का अंदाजा कर बतख मियां मना नहीं कर सके. उन्होंने ठीक वैसा ही किया, पर जब गांधी के पास पहुंचे, उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वह ट्रे गांधी के सामने रख सकें.

गांधी ने उन्हें सिर उठा कर देखा, तो बतख मियां रोने लगे. गांधी को अंदेशा हुआ. उन्होंने उन्हें पास बिठा कर पूछना शुरू किया. इरविन और उनके करीबियों के होश फाख्ता हो गये. इस घटना के बाद बतख मियां को जेल हो गयी. उनकी जमीनें नीलाम कर दी गयीं. परिवार को सताया गया. गांधी ने उनके लिए क्या किया, इसका कोई प्रमाण भी इतिहास में नहीं मिलता. इस घटना का जिक्र गांधी की जीवनी में भी नहीं है. यह घटना उजागर हुई 1957 में.

तब राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद देश एक कार्यक्रम में मोतिहारी गये. जनसभा में भाषण दे रहे थे, तो उन्हें लगा कि वह दूर खड़े एक आदमी को पहचानते हैं. उन्होंने वहीं से आवाज लगायी- बतख भाई, कैसे हो? बतख मियां को मंच पर बुलाया और यह किस्सा वहीं से लोगों को बताया. यह चंपारण के लिए एक लोककथा जैसा है और बतख मियां अंसारी एक सेलिब्रेटेड इंसान.

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