Azadi Ka Amrit Mahotsav: भारत मां के महान सपूत और क्रांतिवीर पीर अली खां का जन्म वर्ष 1820 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मोहम्मदपुर गांव में हुआ था. किशोरावस्था में ही वे घर से भागकर पटना आ गये. पटना के जमींदार नवाब मीर अब्दुल्ला ने उनकी परवरिश की और उन्हें पढ़ाया-लिखाया. बड़े होने पर नवाब साहब की मदद से उन्होंने अपनी आजीविका चलाने के लिए किताबों की एक दुकान खोल ली. आगे चलकर वही दुकान बिहार के क्रांतिकारियों के जमावड़े का केंद्र बन गया. क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद पीर अली खान अपनी दुकान पर क्रांतिकारी साहित्य मंगाकर रखने लगे. इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजाद कराने की मुहिम में अपने हिस्से का योगदान देना अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. उनका मानना था कि गुलामी की जिंदगी से मौत बेहतर होती. समय के साथ उनका दिल्ली और अन्य शहरों के क्रांतिकारियों के साथ संपर्क में आये.
1857 की क्रांति के वक्त पीर अली खान पूरे बिहार में घूम-घूमकर लोगों में आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए जागरूक करने लगे. पीर अली के नेतृत्व में 3 जुलाई, 1857 को 200 से ज्यादा आजादी के दीवाने इकट्ठे हुए. उन्होंने अपने सैकड़ों हथियारबंद साथियों के साथ पटना के गुलजार बाग स्थित प्रशासनिक भवन पर हमला कर ब्रिटिश हुकूमत को कड़ी चुनौती दी.
अंग्रेज अफसर और साथियों को उतारा मौत के घाट
क्रांतिकारियों के चौतरफा हमले से घिरे अंग्रेज अफसर डॉ. लायल ने क्रांतिकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी. क्रांतिकारियों की जवाबी फायरिंग में डॉ लायल अपने कई साथियों के साथ मारा गया. अंग्रेजी हुकूमत की अंधाधुंध गोलीबारी में कई क्रांतिकारी भी शहीद हुए, लेकिन पीर अली और उनके ज्यादातर साथी हमले के बाद बच निकलने में कामयाब हुए. लेकिन, पांच जुलाई 1857 को पीर अली को 14 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. पीर अली पर बगावत का आरोप लगाकर अंग्रेजों ने उन्हें काफी यातनाएं दी.
खौफ इतना कि अंग्रेजों ने गिरफ्तारी के बाद दो दिन के अंदर ही दे दी फांसी
अदालत में सुनवाई के दौरान पटना के तत्कालीन कमिश्नर विलियम टेलर ने पीर अली खान से कहा कि अगर वे अपने क्रांतिकारी साथियों के नाम बता देंगे, तो उनकी सजा टल जायेगी, लेकिन उन्होंने अंग्रेज अफसर के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. उन्होंने देश से गद्दारी करने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझा. वहीं, अंग्रेजी हुकूमत उनसे इतना खौफ खाती थी कि गिरफ्तारी के बाद दो दिन के अंदर ही बगैर कोई मुकदमा चलाये 7 जुलाई, 1857 को अंग्रेजों ने पीर अली और उनके कई साथियों को आवास के पास बीच सड़क पर फांसी दे दी. देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले पीर अली खान ने क्रांति की ऐसी अलख जगायी, जो अगले सौ वर्षों तक धधकती रही. उनकी कुर्बानी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बन गयी. देश की आजादी के लिए प्राण देने वाले शहीद पीर अली खान इतिहास के पन्नों से आज भी गायब हैं. अभी उनके नाम पर पटना में एक मोहल्ला पीरबहोर गुलजार है. कुछ साल पूर्व बिहार सरकार ने उनके नाम पर गांधी मैदान के पास एक छोटा-सा पार्क बनवाया है. वहीं, शहर को हवाई अड्डे से जोड़ने वाली एक सड़क को ‘पीर अली खान रोड’ नाम दिया है.