अजादी का अमृत महोत्सव: दस्तावेजों में सिमटे हैं संताल विद्रोह के कई क्रांति नायक, इन लोगों का था योगदान
चांदराय, सिंगराय और विजय मांझी का भी हूल में था बड़ा योगदान, सरकारी दस्तावेजों में भी है इनके योगदान की चर्चा, एसडी प्रसाद ने अपनी पुस्तक में की इन सपूतों की चर्चा
अभिलेखागारों और पुस्तकालयों में एशिया महादेश के सबसे बड़े जन आंदोलन और भारत की सबसे बड़ी जन क्रांति संताल विद्रोह 1855-1856 से संबंधित प्रचुर ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं, पर इनमें से कई ऐतिहासिक स्रोतों का अब तक अवलोकन नहीं किया गया.
ऐसे उपेक्षित ऐतिहासिक दस्तावेजों में संताल विद्रोह के महानायक सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के अलावा उनके कई क्रांतिकारी सहयोगियों का भी उल्लेख है, जिनके विषय में इतिहास की किताबों में चर्चा नहीं है. ये सपूत इन सरकारी दस्तावेजों में ही सिमटे हुए हैं. इसलिए ऐसे नायकों के संबंध में लोगों को प्राय: जानकारी नहीं है. संताल विद्रोह पर केके बसु (1934) और केके दत्ता (1934, 1940, 1970) आदि प्रख्यात इतिहासकारों की रचनाएं मूलत: कोलोनियल दस्तावेजों पर आधारित हैं.
शोध की दृष्टि से देखें, तो 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित प्रिंट मीडिया, साहित्य और बाद में सरकार द्वारा प्रकाशित डिस्ट्रिक्ट सेंसस हैंडबुक भी प्रामाणिक स्रोतों के रूप में कम महत्वपूर्ण नहीं हैं.
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एसडी प्रसाद द्वारा लिखित ‘बिहार डिस्ट्रिक्ट सेंसस हैंडबुक-12 : संताल परगनाज पार्ट-1 (1961 सेंसस पब्लिकेशंस, बिहार)’ में संताल विद्रोह के कई क्रांतिकारी नायकों के ऐतिहासिक कार्यों और अविस्मरणीय घटनाओं का उल्लेख है. इनमें चांदराय, सिंगराय और विजय मांझी की वीरता की कहानी भी शामिल हैं.
गौरतलब है कि संताल विद्रोह पर इतिहास लेखन में चांदराय, सिंगराय और विजय मांझी का उल्लेख तक नहीं है. प्रसाद के अनुसार, सिंगराय लिट्टीपाड़ा (वर्तमान पाकुड़ जिले) के प्रधान विजय मांझी के पुत्र थे. प्रसाद ने स्पष्ट किया है कि संताल विद्रोह की पहली चिनगारी लिट्टीपाड़ा में ही प्रस्फुटित हुई. अमड़ापाड़ा (वर्तमान पाकुड़ जिले) के महाजन और धनी व्यापारी केनाराम भगत ने विजय मांझी पर झूठा मुकदमा दायर किया था.
जब जंगीपुर (मुर्शिदाबाद, बंगाल) के मुंसिफ कोर्ट का कर्मचारी वारंट ऑफ अटैचमेंट (कुर्की आदेश) को तामिल करने पहुंचा, तो विजय मांझी ने उसे थप्पड़ जड़ दिया. यह खुद में बड़ी घटना थी. नतीजा यह हुआ कि दिग्घी में स्थापित दारोगा महेशलाल दत्त ने केनाराम भगत की फरियाद पर फिक्टिशस मनी सूट के आधार पर विजय मांझी को गिरफ्तार कर लिया.
‘कलकत्ता रिव्यू-1856’ से पता चलता है कि संतालों और अन्य स्थानीय आदिवासियों, पिछड़ों और दलितों के शोषण, दमन और उत्पीड़न में महाजन, जमींदार, पुलिस, रेवेन्यू विभाग और कोर्ट के कर्मचारियों का नेक्सस काफी सक्रिय था. संताल जाति के लोग एक बार कर्ज लेने पर महाजनों के जाल में फंस जाते थे, महजनों की तिकड़म समझ नहीं पाते थे और उनका कर्ज कभी चुकता नहीं हो पाता था.
इसका फायदा महाजन उठाते थे और कोर्ट से कुर्की आदेश प्राप्त कर लेते थे. इसकी कोई जानकारी संतालों को नहीं होती थी और उनके खिलाफ वारंट जारी हो जाता था. इससे पता चलता है कि न्यायालय में भ्रष्टाचार चरम पर था. महाजन और पुलिस से लड़ने का साहस संताल नहीं कर पाते थे और पलायन कर जाते थे. रसूखदारों और पुलिस के दबदबे और आतंक की जड़ें काफी गहरी थीं.
बहरहाल, मुखिया विजय मांझी ने बड़ी हिम्मत दिखायी. इस घटना से विदेशी अधिकारियों में हड़कंप मच गया. विजय मांझी गिरफ्तार हो गये. प्रसाद के अनुसार, विजय मांझी को भागलपुर जेल भेज दिया गया, जहां उनकी कुछ ही दिनों बाद बिना किसी ट्रायल के मृत्यु हो गयी. संताल समाज में इसकी बड़ी प्रतिक्रिया हुई. विजय मांझी के बेटे सिंगराई (सिंगराय) और रिश्तेदारों ने विदेशियों के खिलाफ बागवत कर दी. उन लोगों ने अंग्रेज रेलवे कर्मचारी की पत्नी और बहन की हत्या कर दी. बाद में सिंगराय विद्रोह के महानायक सिदो के साथ पकड़े गये.
एसडी प्रसाद के अनुसार, संक्षिप्त ट्रायल के बाद सिदो और सिंगराई को बरहेट बाजार में फांसी दे गयी. यह उल्लेखनीय है कि संताल विद्रोह की सर्वप्रथम विवेचना करने वाले प्रथम भारतीय लेखक दिगंबर चक्रवर्ती (पाकुड़) ने अपनी रचना में सिंगराई संताल (सिंगराय) और चंद्राई मांझी (चंदराय मांझी) की चर्चा और संताल विद्रोह में इनके योगदान की विवेचना की. (संदर्भ : हिस्ट्री ऑफ द संताल हूल ऑफ 1855-दिगंबर चक्रवर्ती, संपादन अरुण चौधरी, 1989, अलीगढ़, वीरभूम).
प्रसिद्ध इतिहासकार केके दत्ता (1940, 1957) और पीसी रायचौधरी (1962,1965) की चर्चित रचनाओं में गंगाधर, माणिक संताल, वीर सिंह, वीर सिंह मांझी, कोले प्रामाणिक, डोमन मांझी, मोरगो राजा आदि का उल्लेख है, पर चांदराय, सिंगराय और विजय मांझी आदि का उल्लेख नहीं है. एसडी प्रसाद के अनुसार, चांदराय और सिंगराय भी विद्रोह के प्रमुख नायक थे. इन्होंने संतालों ने विद्रोह के प्रारंभ में दिग्घी के दारोगा महेशलाल दत्त और राजमहल के दारोगा मोबारक अली को मार डाला था और कंपनी शासन के खिलाफ सशस्त्र बगावत की शंखनाद (30 जून, 1855) कर दी थी.
इन घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए ‘कलकत्ता रिव्यू 1860’ ने इन्हें संतालों के दमन, शोषण, महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या का लेजिटिमेट रिवेंज बताया और दारोगा की हत्या को भी जायज ठहराया. संतालों का मकसद अपना राज स्थापित करना था. 20 जुलाई, 1855 तक यह विद्रोह बर्दवान, सिउड़ी, रानीगंज, सैंथिया (पश्चिम बंगाल), पीरपैंती, कहलगांव, भागलपुर (बिहार) और महेशपुर, पाकुड़, राजमहल व बरहेट (झारखंड) आदि स्थानों में फैल गया. हालांकि, संताल और उनके क्रांतिकारी सहयोगी अपने मिशन में कामयाब नहीं हुए.
कंपनी शासन के सिविल और मिलिटरी अधिकारियों ने सेना, गोला-बारूद, आयुध, हथियार आदि के बल पर बड़ी क्रूरतापूर्वक उनका दमन कर दिया, पर ब्रिटिश अधिकारी जनजातियों के प्रति अपनी नीति पर विचार करने के लिए विवश हुए और एक्ट 37, 22 दिसंबर, 1855 पारित कर इसके प्रावधानों के अंतर्गत नन-रेगुलेशन जिला संताल परगना का गठन किया.
इस प्रकार संताल परगना जिले के गठन में संताल हूल के महानायक सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ-साथ चांदराय, सिंगराय और विजय मांझी का भी योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं था. वर्ष 1833 में दामिन-इ-कोह के गठन के पश्चात 1855 में संताल परगना नन-रेगुलेशन जिले का निर्माण इसके क्षेत्रीय इतिहास की एक बड़ी घटना थी.
चांदमारी रोड, उत्तरपल्ली, रामपुरहाट, जिला वीरभूम, पश्चिम बंगाल.
अभिलेखागारों और पुस्तकालयों में एशिया महादेश के सबसे बड़ा जन आंदोलन और भारत की सबसे बड़ी जन क्रांति संताल विद्रोह 1855-1856 से संबंधित प्रचुर ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं, पर इनमें से कई ऐतिहासिक स्रोतों का अब तक अवलोकन नहीं किया गया. ऐसे उपेक्षित ऐतिहासिक दस्तावेजों में संताल विद्रोह के महानायक सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के अलावा इनके कई क्रांतिकारी सहयोगियों का भी उल्लेख है, जिनकी चर्चा इतिहास की किताबों में नहीं है. लिहाजा, ऐसे नायकों के संबंध में लोगों को प्राय: जानकारी नहीं है.