नेगाचारि मूलक डांगर की कद्र का मंगलकार्य है बांदना परब
तेल लगने के बाद कृषि कार्य जैसे हल जोतना, गाड़ी खींचना आदि किसी भी तरह का कार्य नहीं लिया जाता है. पूर्णतः विश्राम में रखकर डांगर को प्रति शाम हरी घास खिलाये जाते हैं.
राजेंद्र प्रसाद महतो ‘राजेन’ :
बांदना परब के सारे नेग घरेलू डांगर के मंगलकार्य में आयोजित होता है. यह एक विशाल सांस्कृतिक उत्सव है. इस परब का सर्व अग्र नेग तेल माखा है. घरेलू डांगर गाय-बैल के सींग पर सप्ताह भर पहले तेल लगाया जाता है, यही से बांदना परब का आगाज होता है. गाय व बैल के सींग पर तेल लगते ही उनके शरीर को एक नयी ऊर्जा मिलती है. तेल माखा प्रारंभ के पश्चात लाख गुनाह करने पर भी मार-पीट करना वर्जित रहता है. सींग पर तेल लगते ही डांगर को कार्य मुक्त कर परब भर छुट्टी दे कर स्वतंत्र कर दिया जाता है.
तेल लगने के बाद कृषि कार्य जैसे हल जोतना, गाड़ी खींचना आदि किसी भी तरह का कार्य नहीं लिया जाता है. पूर्णतः विश्राम में रखकर डांगर को प्रति शाम हरी घास खिलाये जाते हैं. तेल लगते ही नगाड़ा, ढोल व मांदर की थाप के साथ शाम होते ही गांव बांदना गीतों से संगीतमय हो जाता है. रातभर डांगर के सम्मान में नृत्य-संगीत के साथ जागरण होता है. जागरण में केवल पुरुष ही शामिल होते हैं. इस कार्यक्रम को जाहली के नाम से जाना जाता है. जाहली के दौरान प्रत्येक घर में जाहलिया का स्वागत होता है.
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दोपहर से संध्या तक कुलही से गोहाल घर तक गुड़ी से सुंदर अल्पना बनाकर डांगर का स्वागत किया जाता है. महिलाएं व्रत रखकर अल्पना बनातीं है. गाय-बैल से पहले मुर्गा-मुर्गी को अल्पना का दर्शन न हो, क्योंकि ये अल्पना गाय-बैल के सम्मान में बनता है, इस लिए गाय-बैल को इस अल्पना से होकर पार करने के बाद ही अन्य जानवर इस अल्पना के दर्शन का हकदार होते हैं. अल्पना निर्माण की इस प्रक्रिया को ‘चउक पुरा ’के नाम से जाना जाता है. ‘चउक पुरा’ पूर्ण होने के उपरांत कांचा दिआ कर डांगर की अगवानी की जाती है.
कुलही दुवारी में चावल गुड़ी को कच्चा साल पत्ता पर रखकर शुद्ध घी से भींगा हुआ सइअलता जला कर बत्ती दिखायी जाती है. इसी वक्त हरी घास खिलाकर तथा चिटचिटी साइटका झाड़ी को डेगाकर पार करने की प्राचीन प्रथा है. आदिम कृषि मूलक जनजाति में ऐसा विश्वास है कि ये चिटचिटी डांगर के साथ गोहाल में प्रवेश करने वाले अलौकिक शक्ति को रोकता है. यही वजह है कि चिटचिटी साइटका झाड़ी का बांदना के कांचा दिआ में खास महत्व होता है.
अमावस्या समाप्त होते ही गोहाल पूजा का दौर प्रारंभ होता है. गोहाल घर के अंदर बलि पूजा एक आदिम संस्कृति का परिचायक है. गोहाल में बाहरी भूत-प्रेत के साथ अलौकिक शक्ति के प्रवेश को रोकने के उद्देश्य से गोहाल घर के अंदर बलि पूजा की पुरातन प्रथा है.
गोहाल पूजा के लिए दो-तीन मिट्टी का छोटा-छोटा ढीप बनाकर ऊपर में गुंजा, गेंदा या अन्य फूल देकर पूजा करने की प्रथा है, इस ढीप को भूत कहा जाता है. भूत को अलौकिक शक्ति की रीढ़ माना जाता है. अलौकिक शक्ति से डांगर को शारीरिक क्षति होने का डर रहता है, इसलिए मुर्गा-मुर्गी का बलि देकर भूत को संतुष्ट करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष बांदना में भूत का प्रतिरूप ढीप बनाकर अराधना किया जाता है. भूत के समीप गोहाल में मुर्गा-मुर्गी की बलि चढ़ाकर पूजा करने की विधि-विधान को गरइआ पूजा के नाम से जाना जाता है. ऐसा विश्वास है कि गरइआ पूजा करने से साल भर घर में मौजूद पशुधन स्वस्थ एवं तंदुरुस्त रहते हैं.
सभी प्रकार का नेग समाप्ति के पश्चात धान की बालियांयुक्त पौधों से मेएड़इर तैयार कर गाय-बैल एवं अन्य पशुओं को पहनाकर परब का समापन करते हुए पशुओं को सम्मानित किया जाता है. साथ ही वृक्षों, घर के प्रमुख द्वार आदि जगहों पर सुरक्षा की दृष्टि से बांध दिया जाता है, ताकि किसी की बुरी नजर का कोई दुष्प्रभाव न पड़े.