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Birsa Munda Jayanti: राष्ट्रीय नायक हैं भगवान बिरसा मुंडा

Bhagwan Birsa Munda: बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय नायक मानने में बहुत ज्यादा समय लग गया. बहुत ही कम उम्र में बिरसा मुंडा ने इतिहास रच दिया. 15 नवंवर, 1875 को उलिहातु में उनका जन्म हुआ था.

चाहे अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष की बात हो, आदिवासियों की जमीन लूटने या टैक्स लादने का मामला हो या जमींदारों-महाजनों द्वारा आदिवासियों पर अत्याचार करने का, बिरसा मुंडा ने बड़ी भूमिका अदा की और अंगरेजों-उनके दलालों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. बिरसा मुंडा के उलगुलान (1895-1900) ने अंगरेजों को इतना भयभीत कर दिया कि एक रणनीति के तहत बिरसा मुंडा और उनके आंदोलन को खत्म कर दिया गया. 15 नवंबर को बिरसा मुंडा के जन्म का 150वां वर्ष आरंभ होगा. पूरा देश एक वर्ष तक इस राष्ट्रीय नायक की यादों को ताजा करेगा. एक दौर था, जब बिरसा मुंडा के संघर्ष को सिर्फ छोटानागपुर तक समेट कर रखा गया था. आज स्थिति यह है कि देश की आदिवासी राजनीति बगैर बिरसा मुंडा का जिक्र किये अधूरी है. पूरे राष्ट्र ने यह स्वीकार कर लिया है कि बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े योद्धा थे, वे महानायक थे और उन्हें भगवान बिरसा मुंडा का दर्जा प्राप्त है. उनका कितना महत्व है, कितनी सम्मान है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुरमू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू (जिला खूंटी) जाकर उन्हें नमन कर चुके हैं. अब बिरसा मुंडा के राष्ट्रीय महत्व को देश समझ चुका है और देश के किसी आदिवासी बहुल क्षेत्र में होनेवाले चुनाव में बिरसा मुंडा के संघर्ष की चर्चा होती है. ऐसी बात नहीं कि निधन (रांची जेल में 9 जून, 1900 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी) के तुरंत बाद ही बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय नायक मान लिया गया. इसके लिए लंबा समय लगा. आज भारतीय संसद में अगर पूरे देश से किसी एक आदिवासी नायक की तसवीर लगी है तो वह बिरसा मुंडा की ही है. अब उनकी बड़ी प्रतिमा देश के किसी स्थान पर बनाने की तैयारी है. यह बिरसा मुंडा के राष्ट्रीय महत्व को बताता है.

बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय नायक मानने में बहुत ज्यादा समय लग गया. बहुत ही कम उम्र में बिरसा मुंडा ने इतिहास रच दिया. 15 नवंवर, 1875 को उलिहातु में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था और 1895 में उन्होंने उलगुलान शुरु कर दिया था. इसके बाद सिर्फ पांच साल तक वे जीवित रहे लेकिन इन पांच सालों में उनके उलगुलान ने अंगरेजों, अत्याचारी जमींदारों-अधिकारियों को तबाह कर दिया. जब उनका निधन हुआ तो वे सिर्फ 25 साल के थे. इतनी कम उम्र में इतना बड़ा काम.

उन दिनों आदिवासियों पर अंगरेज अधिकारियों-उनके दलालों का अत्याचार चरम पर था. जबरन टैक्स लादकर जमीन पर कब्जा करना, झुठे मुकदमों में मुंडाओं को फंसाना, भीषण अकाल के दौरान भी किसानों को कोई राहत नहीं देना आदिवासियों की नाराजगी का बड़ा कारण था. बिरसा मुंडा ने बचपन से ही ऐसी परेशानियों का सामना किया. जब थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने महसूस कर लिया कि बगैर संघर्ष किये हल नहीं निकलेगा. उनमें नेतृत्व करने का गुण था, अच्छे वक्ता थे, रणनीति बनाने की कला जानते थे. उन्होंने अपने समर्थकों को एकजुट किया और जवाबी कार्रवाई की. उनकी कार्रवाई से अंगरेज अधिकारी इतने भयभीत थे कि बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के लिए पूरी फौज लगा दी, बड़े अधिकारी खुद लग गये, एक-एक घटना की जानकारी इंग्लैंड में बैठे अधिकारियों तक को दी गयी. यह बताता है कि अंगरेज सरकार बिरसा मुंडा के आंदोलन से कितना डरती थी.

उनकी गिरफ्तारी के लिए पूरी ताकत लगा दी थी. छोटानागपुर के तत्कालीन कमिश्नर खुद बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी में लगे हुए थे. 1995 में गिरफ्तारी के बाद उन्हें पहले रांची जेल में रखा गया. फिर उन्हें दो साल की सजा सुनायी गयी. हजारीबाग जेल भेजा गया लेकिन ब्रिटेन की रानी के डाइमंड जुबिली पर कैदियों को रिहा किया था जिसमें बिरसा मुंडा भी थे. ऐसी बात नहीं थी कि बिरसा मुंडा जेल जाने के बाद कमजोर पड़ गये थे या अपने उद्देश्य को भूल गये थे. जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने फिर से अपने समर्थकों को एकजुट किया. लोगों की सेवा भी की. उनमें आध्यात्मिक शक्ति भी आ गयी थी. उन्होंने अपना बिरसा धर्म भी चलाया. उनके अनुयायियों (बिरसाइत) की संख्या भी बढ़ती गयी थी. अंगरेज अधिकारियों, जमींदारों और सरकार के समर्थकों को बिरसा मुंडा और उनके सहयोगियों ने निशाना बनाया. अंगरेज इतने भयभीत हो गये थे कि उन्होंने बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के लिए पांच सौ रुपये का इनाम घोषित कर दिया था. इसी लोभ में गद्दारों ने बिरसा मुंडा के ठिकानों की खबर सरकार को दी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें रांची जेल में रखा गया, जहां उनकी मौत हो गयी. बिरसा मुंडा आज भी रहस्य ही है कि रांची जेल में बिरसा मुंडा की मौत कैसे हुई थी, क्या सच में डायरिया से हुई थी या उन्हें साजिश के तहत अंगरेजों ने जहर देकर मार डाला गया था? बिरसा के कई सहयोगियों को फांसी दे दी गयी थी, कई को कालापानी की सजा हुई थी.

बिरसा मुंडा की मौत के बाद उलगुलान धीरे-धीरे खत्म हो गया लेकिन संघर्ष का ही नतीजा था कि अंगरेजों को आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 में बनाना पड़ा. यह कानून तो बन गया लेकिन जिस व्यक्ति के संघर्ष के बल पर यह कानून बना, उसे ही आरंभ के दिनों में भुला दिया गया. उन दिनों के अखबारों या पत्रिकाओं में शायद ही कभी बिरसा मुंडा के संघर्ष को याद किया जाता था. कुछ लेखकों ने अपनी किताबों या गैजेटियर में बिरसा मुंडा के उलगुलान का जरूर जिक्र किया. एससी राय चौधरी ने मुंडाज एंड देयर कंट्रीज में बिरसा मुंडा के संघर्ष का जिक्र किया.

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सार्वजनिक सभा में बिरसा मुंडा के जिक्र का उदाहरण 1939 में मिलता है. जयपाल सिंह ने जनवरी, 1939 में आदिवासी महासभा का नेतृत्व संभाला तो उस अवसर पर आदिवासी पत्रिका (संपादक बंदी राम उरांव, जूलियस तिग्गा) ने जो खास अंक निकाला, उसमें न सिर्फ बिरसा मुंडा का जिक्र था बल्कि बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के बाद की तसवीर भी प्रकाशित की गयी थी. हालांकि उस महासभा का प्रमुख नारा छोटानागपुर की जय ही था, लेकिन सामुएल तिर्की ने 19 जनवरी, 1939 को चर्चा के दौरान बिरसा मुंडा के उलगुलान का जिक्र किया था. इसके बाद एक बड़ा अवसर आया था रामगढ़ कांग्रेस (1940) में. चूंकि कांग्रेस का यह अधिवेशन रामगढ़ (छोटानागपुर) में हो रहा था, यह पूरा इलाका आदिवासी बहुल रहा है, इस बात को कांग्रेस ने महसूस किया था और रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन के मुख्य द्वार का नाम बिरसा मुंडा द्वार रखा था. संभवत: यह पहला अवसर था जब कांग्रेस के किसी अधिवेशन में बिरसा मुंडा को इस प्रकार का सम्मान दिया गया था. द्वार भले ही बिरसा मुंडा के नाम पर था लेकिन अधिवेशन के दौरान किसी भी बड़े नेताओं के भाषण में बिरसा मुंडा के नाम का जिक्र नहीं किया गया था.

जयपाल सिंह ने जब से आदिवासी महासभा की जिम्मेवारी संभाली, उन्होंने बिरसा मुंडा के योगदान को महत्व दिया. बिहार से प्रकाशित कुछ अखबारों में उन्होंने बिरसा मुंडा के योगदान पर लेख भी लिखा. आजादी के बाद तो बिरसा मुंडा के योगदान पर चर्चा होने लगी. उन पर किताबें भी आयीं. टी मुचि राय मुंडा ने 1951 में बिरसा भगवान नाम से सिर्फ बिरसा मुंडा पर आधारित पहली किताब लिखी. 1957 में बिहार के स्वतंत्रता संग्राम पर किताब द फ्रीडम मूवमेंट ऑफ बिहार छपी, 1958 में बिहार थ्रू एजेज का भी प्रकाशन हुआ. इन किताबों में बिरसा मुुंडा के आंदोलन की चर्चा थी. लेकिन कुछ ही पेजों में बिरसा आंदोलन को समेट दिया गया था. उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.

बड़ा प्रयास तब दिखा जब 1964 में टीआरआइ के सुरेंद्र प्रसाद सिन्हा ने लाइफ एंड टाइम्स ऑफ बिरसा भगवान लिखी. पूरी किताब ही बिरसा मुंडा पर थी, अनेक तसवीरें थीं, कुछ पत्र भी. प्रमाणिक किताब थी. उसके बाद 1969 में पीएन जे पूर्ति और आर कंडुलना की एक पुस्तक झारखंड के अमर शहीद आयी, जिसके मुख्य पृष्ठ पर ही बिरसा मुंडा की तसवीर थी. पूर्ति ने अलग से बिरसा मुंडा पर भी एक किताब लिखी. आइएएस अधिकारी कुमार सुरेश सिंह 1960-62 तक खूंटी के एसडीओ थे. उन्होंने बिरसा मुंडा पर शोध किया और दस्तावेजों के आधार पर बिरसा मुंडा की जीवन लिखी. इस किताब का नाम था-डस्ट स्टार्म एंड हैंगिंग मिस्ट : स्टोरी ऑफ बिरसा मुंडा एंड हिज मूवमेंट. बाद में इसका हिंदी संस्करण भी आया. इन दो किताबोें के बाद बिरसा मुंडा पर राष्ट्रीय चर्चा होने लगी.

बिरसा मुंडा के नाम को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में महाश्वेता देवी का भी योगदान रहा है. 1975 में बांग्ला में उनकी अरण्येर अधिकार नाम से सीरिज बेतार जगत पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. बाद में इसे हिंदी में जंगल के दावेदार नाम से उपन्यास के तौर पर 1979 में प्रकाशित किया गया. यह वह समय था जब बिरसा मुंडा की जन्मशताब्दी मनायी जा रही थी.

1975 में जब बिरसा मुंडा की जन्मशताब्दी थी तो बिहार सरकार ने बड़ा आयोजन किया था. 1982 में राउरकेला में बिरसा मुंडा की भव्य प्रतिमा लगायी गयी थी. उसके बाद 15 नवंबर, 1989 को भारत सरकार ने बिरसा मुंडा पर डाक टिकट जारी किया था. बाद में संसद में उनकी तसवीर लगायी गयी थी. 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों को सम्मान दिलाने का अभियान चलाया. इसी क्रम में सबसे पहले राजनाथ सिंह उलिहातू गये. उसी वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भगवान बिरसा मुंडा और आदिवासियों के योगदान की चर्चा करते हुए देश में म्यूजियम बनाने की घोषणा की थी. वह पहला मौका था जब लाल किले से किसी प्रधानमंत्री ने बिरसा मुंडा के योगदान की चर्चा की थी. प्रधानमंत्री की घोषणा पूरी हुई और रांची जेल (जहां बिरसा मुंडा ने अंतिम सांस ली थी), वहां ट्राइबल म्यूजियम बना, पार्क बना, बिरसा मुंडा की प्रतिमा लगी और पूरे जेल परिसर को विकसित कर ऐतिहासिक धरोहर बनाया गया.

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भारतीय राजनीति में बिरसा मुंडा का जिक्र हाल के दिनों में बढ़ा. अनेक योजनाएं उनके नाम पर चलीं. संस्थाओं को नामकरण बिरसा मुंडा के नाम पर हुआ. राष्ट्रपति द्रौपदी मुरमू खुद उलिहातू गयीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह भी बिरसा मुंडा के जन्मस्थान उलिहातू गये और उनके पैतृक आवास पर लगी प्रतिमा को नमन किया. झारखंड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री का उलिहातू जाना आम बात है.

ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ झारखंड में बिरसा मुंडा पर कार्यक्रम हो रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिरसा मुंडा के जन्म दिन यानी 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की पूरे देश में घोषणा की थी. यह बड़ा सम्मान था जिसके हकदार बिरसा मुंडा थे. जब पूरा देश इस राष्ट्रीय नायक को याद करता है, सम्मान देता है तो जो बिरसा मुंडा के जीवन से जुड़े जो सवाल अनुत्तरित हैं, उन सच्चाई को भी सामने आना चाहिए. इसमें पहला सवाल है कि डुंबारी की लड़ाई (9 जनवरी, 1900) में कितने आदिवासी शहीद हुए. दूसरा बिरसा मुंडा की रांची जेल में मौत का असली कारण क्या था? बहुत लंबा समय बीत गया है, इसलिए सच्चाई सामने लाना आसान नहीं है पर अगर सरकार आयोग बना कर इस पर काम करे तो सच सामने आने की संभावना बढ़ जायेगी.

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