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बीजू टोप्पो और मेघनाथ की फिल्में युवा फिल्मकारों के लिए प्रेरणादायी हैं

यह देखकर अच्छा लगता है कि कई युवा आदिवासी, झारखंडी यहां की स्थानीय समस्याओं पर लगातार छोटी किंतु अच्छी, सार्थक, कलात्मक फिल्में बना रहे हैं. भविष्य झारखंडी फिल्मों को लेकर कई तरह से काम करना और विचार करना जरूरी है.

महादेव टोप्पो :

एक दिन बीजू टोप्पो से मिला. वह बहुत परेशान दिख रहा था. कारण पूछा तो बताया कि कुछ लोग बहुत उल्टी-पुल्टी टिप्पणी कर रहे हैं. यही बात कभी मेघनाथ भी कहते रहे हैं. लेकिन, दोनों जबसे मिले, उनके बीच संवाद चलता रहा. 1990 में मेरे जैसे कुछ मित्रों की तकलीफ यह थी कि आदिवासी अधिकारी बनने, डॉक्टर इंजीनियर बनने या कोई नौकरी पाने के लिए इच्छुक रहते हैं, दूसरे जॉब में कैरियर क्यों नहीं ढूंढ़ते? अतः, अक्सर हम स्थानीय कॉलेज हॉस्टल जाते और ऐसे लोगों की खोज करते. अधिकांश समय पर हमें निराशा ही हाथ लगती. सितंबर 1992 के किसी रविवार को मैं, मेघनाथ, हैरॉल्ड एस तोपनो व कृष्णकेतु ने ज्योति प्रकाश मिंज के सहयोग से एक दिवसीय कार्यशाला आयोजित की. इसमें तीस छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया. वहां हमने कलम, कूची व कैमरा से समाज के विकास पर चर्चा की. सबने अपने अनुभव साझा किए. बाद में भी इस कार्यशाला में आये छात्र-छात्राओं से हम करीब दो साल तक महीने में एक बार मिलते रहे और लिखने-पढ़ने के मुद्दों पर चर्चा करते रहे.

तब कुछ छात्रों ने भी मेहनत की थी और आज उसमें कई नाम प्रसिद्ध हैं. आज जब उस छोटे के प्रयास को हम फलते-फूलते देखते हैं तो सचमुच कुछ करते रहने का सुकून मिलता है. यह इसलिए भी कि जब सिने-सोसायटी, रांची के आयोजनों में शामिल होते तो वहां इक्के-दुक्के ही आदिवासी दिखते. तब हमारे मित्र उत्तम सेनगुप्ता, अचिंत्य गंगोपाध्याय, अमिताभ, अजित साहु आदि मुझसे यह सवाल करते कि- महादेव, इन कार्यक्रमों में आदिवासी क्यों नहीं आते? मैं कहता – आयेंगे, धीरे-धीरे. इस प्रश्न का उत्तर देते अनेक निराशाओं के बीच मुझे हमेशा लगता था कि – यह स्थिति एक दिन जरूर बदलेगी और अब बीजू टोप्पो, मेघनाथ, श्रीप्रकाश, निरंजन कुमार कुजूर, सेराल मुर्मू जैसे कई युवा फिल्मकार राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी फिल्मों के लिए प्रशंसा पा रहे हैं, अवार्ड जीत रहे हैं तो मुझ जैसे अनेक लोग जरूर खुश होते हैं. झारखंड का नाम रोशन हो रहा है.

कोई सुविधाजनक नौकरी करके जीवन जीना और एक कष्टपूर्ण, असुविधाजनक, संघर्षपूर्ण चुनौतियां स्वीकार कर, एक अनजान विषय, महंगे व सूक्ष्म तकनीकी ज्ञान व कौशल को कठिनाई से सीखकर कर आगे बढ़ना और नये मुकाम हासिल करना यह किसी के लिए भी बड़ी उपलब्धि है, सफलता है. निश्चय ही बीजू और मेघनाथ ऐसे कठिन रास्ते पर चलकर अपनी फिल्मों के माध्यम से विभिन्न मुद्दे, विषय, समस्याएं उठाते हुए जो कुछ सफलताएं पायीं हैं, वह एक परीकथा की तरह है, क्योंकि उन्हें अपनी फिल्मों के लिए तीन दर्जन से अधिक पुरस्कार, सम्मान के अलावा महामहिम राष्ट्रपति द्वारा तीन नेशनल अवार्ड प्राप्त हैं. यह उपलब्धि तब अत्यंत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय हो जाती है जब हम बीजू टोप्पो के सुदूर दुर्गम, कठिन, ग्रामीण आदिवासी-परिवेश और जीवन के बारे में जानते हैं. इसी तरह मेघनाथ का मुंबई, कोलकाता से रांची तक की यात्रा विविध अनुभवों और गतिविधियों के बारे जानते हैं. दोनों ने अलग परिवेश में शिक्षा और विभिन्न संस्कारों के वातावरण में जीकर, विशेष उद्देश्यों से प्रेरित होकर फिल्म-निर्माण को साथ अपनाया और एकजुट होकर डॉक्यूमेंटरी फिल्म-निर्माण में कई मील के पत्थर स्थापित किये हैं. यह निश्चय ही युवा फिल्मकारों के लिए प्रेरणादायी है.

उनकी फिल्में मात्र विकास व पर्यावरण के सवालों पर ही केंद्रित नहीं हैं, बल्कि झारखंड और आदिवासियों के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, संवैधानिक मुद्दों के अतिरिक्त उनके पर्व त्योहारों पर भी केंद्रित हैं. सभी फिल्में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से झारखंड और यहां के विभिन्न मुददों से संबंधित हैं.

चाय बागान पर बनी फिल्म ‘कोड़ा राजी’, असम में आदिवासी जीवन की सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों की प्रासंगिकता आगे भी, बनी रहेगी. साथ ही अब यह देखकर अच्छा लगता है कि कई युवा आदिवासी, झारखंडी यहां की स्थानीय समस्याओं पर लगातार छोटी किंतु अच्छी, सार्थक, कलात्मक फिल्में बना रहे हैं. भविष्य झारखंडी फिल्मों को लेकर कई तरह से काम करना और विचार करना जरूरी है. ऐसे में सुदर्शन यादव जी द्वारा मेघनाथ और बीजू टोप्पो के कार्यों व संघर्षों के बारे पुस्तक लिखना भविष्य के फिल्मकारों के लिए एक प्रेरणा का काम करेगी.

पुस्तक की भूमिका सुहासिनी मुले ने लिखी है. बताया है- बीजू टोप्पो और मेघनाथ की फिल्में क्यों महत्वपूर्ण और अर्थवान हैं. पुस्तक नौ खंडों में विभाजित है जिनके माध्यम से हम दोनों के जीवन के बारे, फिल्म प्रशिक्षण के प्रभाव, फिल्म-निर्माता के कार्य एवं कला आदि के बारे वर्णन है. उनकी उपलब्धियों का तथा जीवन की प्रमुख घटना, व्यक्ति-संबंधी, चित्र भी है. उनकी समस्त फिल्मों की सूची है. उनके लिए गए इंटरव्यू का प्रकाशन विवरण शामिल है. साथ उनके बारे विशेषज्ञों की राय भी है. इस तरह पुस्तक बीजू, मेघनाथ की फिल्मों को समझने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराती है, जिससे साबित होता है कि पुस्तक के लेखक ने काफी मेहनत की है. लेकिन कहीं पर तथ्यात्मक भूलें हैं जैसे ‘इन द फॉरेस्ट हैंग्स ए ब्रिज’ के बारे में बताया गया कि यह मिजोरम से संबंधित है, जबकि यह फिल्म अरुणाचल प्रदेश के सियांग घाटी से सबंधित है.

हां, सौ पृष्ठों से कम पृष्ठों की पुस्तक की कीमत (रु.495/) जरूर हम जैसे पाठकों के लिए अधिक लगती है. इस अंगरेजी पुस्तक में संजय जोशी के दो आलेख हिंदी में सम्मिलित हैं, पहला- ‘अखड़ा में के हर नाची सरई फूल खोसी’ और दूसरा है – ‘कोड़ा राजी – कौन देस के वासी, हम कुंड़ुख आदिवासी?’ यह अलग नजरिए से उनकी फिल्मों के महत्व को रेखांकित करती हैं. बीजू और मेघनाथ अब अपनी डॉक्यूमेंटरी फिल्मों में ध्वनि-रिकॉर्डिंग और कलात्मकता को भी बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं. निश्चय ही इससे फिल्मों की प्रस्तुति, व गुणवत्ता आदि में ज्यादा सुधार होगा और भविष्य में हम झारखंड में और बेहतर फिल्में, विभिन्न शैलियों में, बेहतर तकनीक व गुणवत्ता के साथ बना सकेंगे जिससे आशा बंधती है कि अगले पांच-दस वर्षों में झारखंड के फिल्मकार और नई और बड़ी उपलबधियां हासिल करेंगे. और एक बात जब भी आप लीक से हटकर कोई महत्वपूर्ण काम करते हैंं, तो लोग सवाल करते हैं, आलोचना करते हैं. हमें आशा है बीजू, मेघनाथ अब ऐसे सवालों और टिप्पणियों से परेशान नहीं होते. दरअसल ऐसे सवाल ही बताते हैं कि आप कुछ अच्छा काम कर रहे हैं.

कुछ प्रमुख चर्चित फिल्में

कोड़ा राजी( कुंड़ुख में), हमारा गांव में हमारा राज, लोहा गरम है, एक रोपादान, सोना गही पिंजरा (कुंड़ुख लघुकथा फिल्म), द हंट, नाची से बांची (पद्मश्री रामदयाल मुंडा के जीवन पर केंद्रित), झरिया (पद्मश्री सिमोन उरांव के जीवन पर केंद्रित), सोहराई, करम.

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