आज जानिए झारखंड के एक ऐसे महान व्यक्ति की जो पेशे से वकील और आज के झारखंड में कई बड़े पदों पर आसीन लोगों के गुरु माने जाते हैं. इन्हें झारखंड के लोग भीष्म पितामह कहते हैं. ये समाज में कुरीतियों, बुराईयों और अंध विश्वास के खिलाफ शुरू से ही आवाज़ बुलंद करते रहे हैं. आज पूरा झारखंड इन्हें एक मसीहा के रूप में जानता है. इनके कद का अंदाज़ा आप इसी से लगा लीजिए कि आज इनके नाम पर एक विश्वविद्यालय है और वर्तमान पीढ़ी के कई बड़े नेता इन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते हैं और इन्हें प्यार से बिनोद बाबू कहकर पुकराते हैं…
कम उम्र में हो गई थी शादी
आज बिनोद बिहारी महतो के नाम पर पूरे झारखंड में कई चौक-चौराहे हैं. झारखंड आंदोलनकारी बिनोद बिहारी महतो का जन्म बलियापुर के बड़ादाहा गांव में पिता किसान महेंद्र महतो व माता मंदाकिनी देवी के घर 23 सितंबर 1923 को हुआ था. शुरुआती पढ़ाई लिखाई गाँव के आसपास ही हुई. पढ़ने के लिए बिनोद बिहारी महतो को गाँव से लगभग 10 किलो मीटर दूर कभी पैदल तो कभी साइकिल से जाया करते थे. इनके घर की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी बिनोद बाबू के पिता गाँव में ही खेती बड़ी करते थे.बिनोद बिहारी महतो ने किसी तरह से प्रारंभिक शिक्षा झरिया से पास की. घर के आर्थिक हालात को देखते हुए इन्होंने कुछ समय के लिए पढाई छोड़ दी. कम उम्र में ही इनकी शादी भी हो गई थी. समय बीतता चला गया पर बिनोद बाबु का संघर्ष कम नहीं हुआ, कुछ समय बाद धनबाद कोर्ट में इनकी जॉब लग जाती. यहां ये पूरी लगन और मेहनत के साथ काम किया करते थे.
शिक्षक से सांसद तक का किया सफर
एचई स्कूल धनबाद से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद 1948 में बलियापुर बोर्ड मध्य विद्यालय में एक साल तक शिक्षक के रूप में काम किया. फिर आपूर्ति विभाग में क्लर्क भी बने, आगे की पढ़ाई के लिए क्लर्क की नौकरी छोड़ पीके राय मेमोरियल कॉलेज से इंटर की परीक्षा पास की फिर स्नातक की डिग्री लेने के बाद पटना लॉ कॉलेज से वकालत की डिग्री हासिल की.
कुछ ही दिनों में वे धनबाद के प्रतिष्ठित अधिवक्ताओं में गिने जाने लगे. शिक्षा के प्रति इनके अटूट प्रेम को इससे समझ सकते हैं जब ये विधार्थी जीवन में थे तब छुट्टियों में गाँव आने पर बच्चों को स्लेट पेन्सिल दिया करते थे और उन्हें बिठाकर पढ़ाया भी करते थे. इनका मानना था कि बिना पढ़े एक स्वास्थ्य समाज की नींव नहीं खड़ी की जा सकती है और आगे जाकर इन्होंने शिक्षा को ही हथियार बनाने की बात कही इनका दिया पढ़ो और लड़ो का नारा आज भी झारखंड के कोने-कोने में सुनाई देता है.
झारखंड की भाषाओं को बढ़ावा देने का प्रयास किया
इन्होंने झारखंड के लोक नृत्यों को बढ़ावा देने के लिए प्रतियोगिताओं का आयोजन किया. इन्होंने गोहाइल पूजा, टुसू , जितिया ,करम, सोहराई और मनसा पूजा जैसे त्योहारों में भाग लेकर इनके महत्व और विशेषताओं के बारे में बताया. इतना ही नहीं झारखंड की भाषाओं खासकर कुरमाली को बढ़ावा देने के लिए काम किए, इन्होंने कुड़माली साहित्य और व्याकरण के लेखक लक्ष्मीकांत महतो को इस भाषा को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया. खोरठा के लेखक और कवि श्रीनिवास पानुरी इनके दोस्त थे, इन्हीं के प्रयासों से रांची विश्वविद्यालय में कुरमाली भाषा की पढ़ाई शुरू हो पाई. लोगों को शिक्षित करने के लिए सुदूर ग्रामीण इलाकों में उन्होंने अनेक शिक्षण संस्थान खोले. इनके नाम से स्थापित शिक्षण संस्थानों में हजारों बच्चे पढ़ रहे हैं.
सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया
उस दौरान अलग राज्य के लिए आंदोलन भी चरम पर था बिनोद बाबू भी इससे परिचित थे लेकिन उस दौरान झारखंड के मूलवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था. उनके जमीन जायदाद हीं नही हड़पे जाते थे बल्कि आवाज उठाने वालों की हत्या कर दी जाती थी. ऐसे में झारखंड के गरीबों के लिए बिनोद बिहारी महतो उठ खड़े हुए इन्होंने सीधी कारवाई का एलान किया लेकिन इन्हें पता था कि लोगों के बीच सही और ग़लत की पहचान करने के उनका जागरुक होना ज़रूरी है इसके लिए इन्होंने 60 के दशक में ‘शिवाजी समाज’ का गठन कर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया.
25 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे
गांव-गांव में जाकर इन्होंने दहेज प्रथा, शराबबंदी, मुर्गा लड़ाई और महाजनी शोषण के खिलाफ जागरुक कर रहे थे… बिनोद बिहारी महतो 25 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे. किसी भी भारतीय पार्टी पर इनका विश्वास नहीं था, इनका मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद और पूंजीवाद की पार्टी हैं, दलित और पिछड़ी जातियों की नहीं. 1967 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया तब बिनोद बाबू भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्य थे.
1972 में बनाया था जेएमएम
1971 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के टिकट पर धनबाद लोकसभा चुनाव में खड़े हुए और दूसरे स्थान पर रहे. तब तक बिनोद बिहारी महतो की पहचान पूरे राज्य में एक संघर्षशील नेता के तौर पर हो चुकी थी. इसी बीच झारखंड आंदोलन की आग भी धधक रही थी. तभी बिनोद बिहारी महतो ने लाल झंडे का साथ छोड़ते हुए 4 फरवरी 1973 को दिशोम गुरु शिबू सोरेन, प्रसिद्ध मजदूर नेता एके राय और टेकलाल महतो जैसे सरीखे नेताओं के साथ मिलकर गोल्फ ग्राउंड धनबाद से झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया और इस पार्टी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. इसके बाद 1980 में टुंडी विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हुए विधानसभा के सदस्य रहे. इसके बाद 1990 में सिंदरी से विधायक बने. लेकिन मई 1991 में देश में मध्यावधि चुनाव हुए तो ये गिरिडिह लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हुए लोकसभा के सदस्य बने.
18 दिसंबर 1991 को हुआ था निधन
बिनोद बिहारी महतो की शादी फुलमनी देवी से हुई थी, इनका एक भरा पूरा परिवार था बिनोद बाबू पांच बेटों और दो बेटियों के पिता थे. राज किशोर महतो, नील कमल महतो, चंद्र शेखर महतो, प्रदीप कुमार महतो, अशोक कुमार महतो और दो बेटियां, चंद्रावती देवी और तारावती देवी इनके बच्चों के नाम हैं. बिनोद बाबू अपने पूरे जीवनकाल में झारखंड अलग राज्य और उत्थान के लिए लड़ते रहे. 18 दिसंबर 1991 का वो दिन पूरा झारखंड कभी नहीं भूलता क्योंकि इसी दिन झारखंड के मसीहा कहे जाने वाले बिनोद बिहारी महतो का दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज के दौरान हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया. हालांकि इनके निधन के बाद इनकी राजनीतिक विरासत को बड़े बेटे राजकिशोर महतो ने संभाला और गिरिडीह से सांसद, टुंडी और सिंदरी से विधायक भी बने लेकिन अब वो इस दुनिया में नहीं रहे. साथियों पढ़ो और लड़ो का नारा देकर अमर होने वाले झारखंड के भीष्म पितामह की कहानी कैसे लगी हमें ज़रुर बताएं.
संघर्षशील नेता के तौर पर बनाई पहचान
किसी भी भारतीय पार्टी पर इनका विश्वास नहीं था, इनका मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद और पूंजीवाद की पार्टी हैं, दलित और पिछड़ी जातियों की नहीं. 1967 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया तब बिनोद बाबू भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्य थे. 1971 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के टिकट पर धनबाद लोकसभा चुनाव में खड़े हुए और दूसरे स्थान पर रहे. तब तक बिनोद बिहारी महतो की पहचान पूरे राज्य में एक संघर्षशील नेता के तौर पर हो चुकी थी. इसी बीच झारखंड आंदोलन की आग भी धधक रही थी. तभी बिनोद बिहारी महतो ने लाल झंडे का साथ छोड़ते हुए 4 फरवरी 1973 को दिशोम गुरु शिबू सोरेन, प्रसिद्ध मजदूर नेता एके राय और टेकलाल महतो जैसे सरीखे नेताओं के साथ मिलकर गोल्फ ग्राउंड धनबाद से झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया और इस पार्टी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए.
1980 में विधायक और 1991 में बने सांसद
इसके बाद 1980 में टुंडी विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हुए विधानसभा के सदस्य रहे. इसके बाद 1990 में सिंदरी से विधायक बने लेकिन मई 1991 में देश में मध्यावधि चुनाव हुए तो ये गिरिडिह लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हुए लोकसभा के सदस्य बने. बिनोद बिहारी महतो की शादी फुलमनी देवी से हुई थी. इनका एक भरा पूरा परिवार था बिनोद बाबू पांच बेटों और दो बेटियों के पिता थे. राज किशोर महतो, नील कमल महतो, चंद्र शेखर महतो, प्रदीप कुमार महतो, अशोक कुमार महतो और दो बेटियां, चंद्रावती देवी और तारावती देवी इनके बच्चों के नाम थे… बिनोद बाबू अपने पूरे जीवनकाल में झारखंड अलग राज्य और उत्थान के लिए लड़ते रहे.
बेटे राजकिशोर ने बढ़ाई राजनीतिक विरासत
हालांकि इनके निधन के बाद इनकी राजनीतिक विरासत को बड़े बेटे राजकिशोर महतो ने संभाला और गिरिडीह से सांसद, टुंडी और सिंदरी से विधायक भी बने लेकिन अब वो इस दुनिया में नहीं रहे… साथियों पढ़ो और लड़ो का नारा देकर अमर होने वाले झारखंड के भीष्म पितामह की कहानी कैसे लगी हमें ज़रुर बताएं.
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