आज बिनोद बाबू जिंदा होते तो ठीक सौ साल के होते. झारखंड अपने इस महान नेता की सौंवी वर्षगांठ मना रहा है. 23 सितंबर, 1923 को जन्मे बिनोद बाबू यानी बिनोद बिहारी महतो का झारखंड आंदोलन, कुड़मी समाज की बुराइयों को दूर करने, लोगों को शिक्षित करने और विस्थापितों को न्याय दिलाने में बहुत बड़ी भूमिका रही है. यह सही है कि बिनोद बाबू ने कुड़मी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने, उन्हें शिक्षित करने के लिए शिवाजी समाज की स्थापना की थी.
वे तब एक समाज सुधारक की भूमिका में थे. सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए बल पूर्वक दोषियों को दंडित करने से भी वे नहीं हिचकते थे. 12-13 फरवरी, 1972 को बिनोद बिहारी महतो की अगुवाई में छोटानागपुर कुर्मी सम्मेलन का पहला महाधिवेशन रामगढ़ में हुआ था. बिनोद बाबू ने एक पर्चा जारी किया था जिसमें धर्मवीर सिंह (उपमंत्री भारत सरकार), जनरल करियप्पा, भोला प्रसाद सिंह जैसे प्रमुख लोगों के सम्मेलन में भाग लेने का उल्लेख था. यह बताता है कि बिनोद बाबू का राष्ट्रीय स्तर पर भी कितना संपर्क था.
बिनोद बाबू सिर्फ कुड़मी समाज के नेता नहीं थे, झारखंड आंदोलन के बड़े नेता थे. झारखंड आंदोलन को पहले आदिवासियों का आंदोलन माना जाता था. 1950 में आंदोलन से गैर-आदिवासियों को जोड़ने के लिए जयपाल सिंह ने आदिवासी महासभा का नाम बदल कर झारखंड पार्टी कर दिया था. इस प्रयास के बावजूद आंदोलन से बहुत कम ही गैर-आदिवासी जुड़ पाये थे. जयपाल सिंह के कांग्रेस में शामिल होने के बाद झारखंड आंदोलन कमजोर हो चुका था. एक रिक्तता आ गयी थी.
बिनोद बाबू ने समझ लिया था कि अगर नया संगठन बना कर झारखंड राज्य के लिए मजबूती से लड़ा जाये, तो सफलता मिलेगी ही. इसलिए बिनोद बिहारी महतो ने शिबू सोरेन और एके राय के साथ मिल कर झारखंड मुक्ति मोरचा का गठन किया. खुद अध्यक्ष बने, शिबू सोरेन को महासचिव बनाया. इसके बाद बड़ी संख्या में गैर-आदिवासी झारखंड आंदोलन से जुड़ गये. इसमें महतो की बड़ी संख्या थी. इससे झारखंड आंदोलन को गिरिडीह, हजारीबाग, धनबाद आदि इलाकों में मजबूत करने में मदद मिली.
इसका श्रेय बिनोद बाबू को ही जाता है. झामुमो बनाने के पहले बिनोद बाबू शिवाजी समाज, शिबू सोरेन संताल सोनोत समाज और एके राय मजदूर यूनियन चलाते थे. तीनों ताकत बंटी हुई थी. तीनों के मिलने से झारखंड आंदोलन को नयी दिशा मिली थी. हालांकि वैचारिक मतभेदों के कारण तीनों बहुत दिनों तक साथ नहीं रह सके.
शिबू सोेरेन (गुरुजी) और बिनोद बाबू के निजी संबंध बहुत ही मजबूत थे. बिनोद बाबू ने शिबू साेरेन की ताकत को आरंभ के दिनों में ही पहचान लिया था. तब बिनोद बाबू धनबाद में वकालत करते थे और विस्थापितों की लड़ाई अदालत में लड़ते थे. आरंभ के दिनों में धनबाद में शिबू सोरेन का ठिकाना बिनोद बाबू का घर ही था.
वहीं से वे सुबह टुंडी के लिए निकलते थे और गांव-गांव जाकर संगठन को मजबूत करते थे, महाजनों के खिलाफ लोगों को एकजुट करते थे. जब शिबू सोेरेन पारसनाथ की पहाड़ियों में रह कर आंदेालन कर रहे थे, उनके ऊपर सरकार ने इनाम घोषित कर दिया था, उन्हें मारने का आदेश दे दिया था तो बिनोद बाबू ने ही उन्हें समझाया था कि भागने-छिपने के बजाय मुख्यधारा में आ कर राजनीति करें और लोगों की सेवा करें.
बिनोद बाबू एक सफल अधिवक्ता थे. डैम-बोकारो स्टील प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण के दौरान रैयतों को सरकारी अधिकारी बहुत परेशान करते थे. कौड़ी के भाव जमीन ली जाती थी. रैयतों के पास केस लड़ने के लिए पैसे नहीं थे. बिनोद बाबू विस्थापितोें का केस अदालत में लड़ते थे और उचित मुआवजा दिलाते थे. केस का फैसला होने के पहले रैयत से एक पैसा भी नहीं लेते थे. जब मुआवजा मिल जाता था तो उसका एक छोटा हिस्सा ही फीस के तौर पर लेते थे.
इस राशि का अधिकांश हिस्सा बिनोद बाबू स्कूल-कॉलेज को दान कर देते थे. 1971-72 में (आज से 52-53 साल पहले) उन्होंने कुछ स्कूलों और कालेजों को चार से पांच लाख तक का सहयोग किया था ताकि अधिक से अधिक स्कूल खुल सकें और समाज के सभी वर्गों के बच्चे वहां पढ़ सकें. शिक्षा के उत्थान में उनका अदभुत योगदान था. झारखंड की सांस्कृतिक विरासत, लोकगीत-नृत्य को आगे बढ़ाने के लिए वे लगातार प्रयास करते रहे. आर्थिक सहयोग देते रहे.
बिनोद बाबू अपने सिद्धांत से समझौता नहीं करते थे. पहले वे माकपा से जुड़े थे लेकिन जब माकपा ने अलग राज्य का समर्थन नहीं किया तो पार्टी छोड़ने में वे नहीं हिचके और झामुमो का गठन कर दिया. इस प्रकार झारखंड राज्य के गठन से लेकर शिक्षा व झारखंड की संस्कृति को आगे बढ़ाने में बिनोद बाबू ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.