झारखंड के ‘काला हीरा’ बाबा कार्तिक उरांव के योगदान को क्यों भूल गया झारखंड
आज भी राजनीतिक दल अपने देश को अंग्रेजों के चश्मे से ही देखते हैं. यही वजह है कि खनिज संपदा से परिपूर्ण झारखंड राज्य को पिछड़े राज्य के रूप में ही संबोधित किया जाता है. यह मान लिया गया है कि गांवों में रहने वाले लोग पिछड़े होते हैं. जो आदिवासी हैं, वो पिछड़े हैं.
आदिवासियों के विकास और आदिवासियत को बढ़ावा देने के नाम पर बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बना. इसके लिए कई बार संघर्ष हुए. सड़क से सदन तक इसकी मांग उठी. कुछ लोगों ने आंदोलन का रास्ता अपनाया, तो कुछ लोगों ने वैचारिक रूप से आदिवासी बहुल इलाके के विकास और आदिवासियों की समृद्धि की बात की. देश की आजादी के बाद ही अलग झारखंड राज्य की मांग शुरू हो गई थी. सबसे पहले जयपाल सिंह मुंडा ने इस मुद्दे को उठाया. बाद में और लोग भी इससे जुड़े. अविभाजित बिहार के दक्षिणी छोटानागपुर और कोल्हान प्रमंडल में अलग राज्य की मांग के समर्थन में कई आंदोलन हुए. आर्थिक नाकेबंदी तक की गई. आखिरकार 15 नवंबर 2000 को वह घड़ी आई, जब झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद आदिवासियों के नाम पर राजनीति तो खूब हुई, लेकिन आदिवासियत और उनकी खासियत पर किसी का फोकस नहीं रहा. उनके विकास की बातें खूब हुईं, लेकिन आज भी आदिवासियों का विकास नहीं हुआ. गांवों की दुर्दशा आज भी वैसी ही है, जैसे आजादी के बाद या झारखंड बनने के पहले थी. आज भी राजनीतिक दल अपने देश को अंग्रेजों के चश्मे से ही देखते हैं. यही वजह है कि खनिज संपदा से परिपूर्ण झारखंड राज्य को पिछड़े राज्य के रूप में ही संबोधित किया जाता है. यह मान लिया गया है कि गांवों में रहने वाले लोग पिछड़े होते हैं. जो आदिवासी हैं, वो पिछड़े हैं. शिक्षा से लेकर अन्य क्षेत्रों में वे देश के अन्य हिस्सों के लोगों की तुलना में पिछड़े हैं. लेकिन, यह सच नहीं है.
अविभाजित बिहार में झारखंड प्रांत की धरती पर ऐसे-ऐसे मनीषियों ने जन्म लिया, जो आज भी युवाओं के आदर्श हैं. लेकिन, झारखंड के राजनेताओं ने ही उन्हें भुला दिया. अपना और अपने वर्तमान नेताओं का महिमामंडन करने में आज के राजनेता इस कदर व्यस्त हो गए हैं कि देश और दुनिया के विकास में योगदान देने वाले अपने महापुरुषों तक को भुला बैठे हैं. आज हम आपको एक ऐसे ही महापुरुष के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनकी उपलब्धियों और कार्यों की महत्ता के बारे में झारखंड की किसी सरकार ने जानने की कोशिश नहीं की. उस महापुरुष का नाम है- कार्तिक उरांव. गुमला जिले के एक छोटे-से गांव लीटाटोली में जौरा उरांव और बिरसो उरांव के घर जन्मे कार्तिक उरांव ने यह साबित किया कि गांव में जन्म लेने वाला बच्चा पिछड़ा नहीं होता. अगर वह चाहे, तो पढ़-लिखकर देश, दुनिया और समाज को बहुत कुछ दे सकता है. जैसा कार्तिक उरांव ने किया.
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लीटाटोली से निकलकर गुमला और वहां से पटना, फिर अमेरिका और ब्रिटेन में जाकर पढ़ाई की. इंजीनियरिंग की कई डिग्री लेने के अलावा उन्होंने बैरिस्ट्री की शिक्षा भी लंदन में हासिल की. बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता रहे. फिर लंदन में डिजाइन डिटेलर ट्विस्ट्रील री-इन्फोर्समेंट लिमिटेड एवं ईबी बालगेर एंड संस लंदन में काम किया. ब्रिटिश रेलवे और ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन में काम किया. विश्व के सबसे बड़े हिंकले प्वाइंट एटॉमिक पावर स्टेशन का डिजाइन तैयार किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर इतनी बड़ी नौकरी छोड़कर कार्तिक उरांव स्वदेश लौट आए. उन्हें हेवी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन (एचइसी) का डिप्टी चीफ इंजीनियर (डिजाइन) एवं चीफ स्ट्रक्चरल डिजाइन ऑफिस एंड स्ट्रक्चरल फैब्रिकेशन वर्कशॉप बनाया गया.
इंटरनेशनल लेवल के इस इंजीनियर को ‘काला हीरा’ के नाम से जाना जाता है. लोगों ने उन्हें ‘पंखराज साहेब’ नाम दिया. लेकिन, झारखंड की सरकारों ने उन्हें वो महत्व नहीं दिया, जिसके वो हकदार थे. वर्तमान समय में झारखंड की राजनीति में कोई ऐसा नेता नहीं, जो अपने प्रदेश के बच्चों को, स्कूली छात्रों को यह बता सके कि हमारी माटी में बाबा कार्तिक उरांव जैसी शख्सीयत ने जन्म लिया, जिन्होंने देश और दुनिया को बेशकीमती संस्थान दिए. अपनी प्रतिभा के दम पर उन्होंने देश, समाज और दुनिया की सेवा की. लेकिन, बदले में कभी कुछ नहीं मांगा. ब्रिटेन की अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर रांची के धुर्वा स्थित एचइसी में नौकरी करने आए, तो खाली समय में आसपास के गांवों में घूमने निकल जाते थे. ग्रामीणों की दुर्दशा देख उन्हें शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे. जब राजनीति में आए, तो आदिवासियों के हित में कई बातें कीं. उन्होंने भी अलग झारखंड की मांग की, लेकिन उनके विचार थोड़े अलग थे. बाबा कार्तिक उरांव को बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, लेकिन उन्होंने सीएम बनने से इंकार कर दिया.
कार्तिक उरांव पूरे देश के आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने अथक प्रयास भी किए. आदिवासियों को संगठित करके उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए देश भर में घूमे. अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद का गठन किया. आज यह संगठन 29 राज्यों में संचालित है. यह राष्ट्रीय स्तर का एकमात्र गैर-सरकारी, गैर-राजनीतिक आदिवासी संगठन है. वह निरंतर आगे बढ़ते रहे. जो भी समस्या जीवन में आई, उसका डटकर मुकाबला किया. उस पर विजय हासिल की और आगे बढ़े. इसलिए उन्हें ‘पंखराज साहेब’ की संज्ञा दी गई. कार्तिक उरांव तीन बार सांसद, एक बार विधायक और छोटे-छोटे कार्यकाल के लिए उड्डयन एवं दूरसंचार मंत्रालय के मंत्री बने.
इन सबसे ऊपर कार्तिक उरांव एक सच्चे देशभक्त, विद्वान, प्रखर प्रवक्ता और सच्चे समाजसेवी थे. जब वह संसद में बोलते थे, तो सभी सदस्य बड़ी ध्यान से उनकी बातों को सुनते थे. 70 के दशक में ‘द हिंदू’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने झारखंड के ‘काला हीरा’ को ‘बाघ’ की संज्ञा दी थी. अखबार ने लिखा था- ‘एक आदिवासी, जो संसद में बाघ की तरह दहाड़ता है.’ झारखंड एक ऐसा राज्य है, जहां की सभी पार्टियों ने किसी न किसी रूप में सत्ता का स्वाद चख लिया है. भगवान बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, फूलो-झानो, तिलका मांझी जैसे वीर योद्धाओं की बहुत बात होती है, लेकिन कार्तिक बाबू जैसे विद्वान और दूरदर्शी सोच वाले व्यक्ति की चर्चा शायद ही कोई आदिवासी नेता करता है.
आज तक किसी सरकार ने कार्तिक उरांव के योगदान पर गौर नहीं किया. इस महान विद्वान अभियंता और राजनेता के नाम पर झारखंड में आज तक कोई योजना शुरू नहीं हुई. पंडित जवाहर लाल नेहरू के एक आह्वान पर ब्रिटेन की अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर रांची के एचइसी में अपनी सेवा देने वाले बाबा कार्तिक उरांव को कांग्रेस ने भी भुला दिया. कांग्रेस के दबदबे वाली पूर्ण बहुमत वाली झारखंड की महागठबंधन सरकार के कार्यकाल का चौथा साल पूरा होने वाला है, लेकिन कार्तिक उरांव की जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी प्रतिमा या फोटो पर फूल-माला चढ़ाने के अलावा ‘काला हीरा’ के लिए अब तक कुछ नहीं किया.
अगर झारखंड को प्रगति के पथ पर बढ़ना है, तो जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के मंत्र के साथ आगे बढ़ना होगा. और इन तीनों का मिश्रण कार्तिक उरांव में देखने को मिलता है. जब वह गांव में अपने घर से स्कूल के लिए निकलते थे, तो कई बार स्कूल पहुंचते ही नहीं थे. जब उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी, तो समाज की मदद से पढ़ने के लिए इंग्लैंड तक पहुंच गए. वहां पढ़ाई करते हुए विश्व के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा संयंत्र का डिजाइन तैयार करके भारत और झारखंड की प्रतिभा का लोहा मनवाया. विज्ञान के क्षेत्र में उनकी ढेर सारी उपलब्धियां थीं, तो वह एक सामान्य किसान की तरह खेत में हल भी चलाते थे. सीमा पर सेना की नौकरी उन्होंने कभी नहीं की, लेकिन सरकारी नौकरी करते हुए कर्तव्यनिष्ठा और अदम्य साहस का परिचय हर बार दिया. इसलिए वह ‘जय जवान’, ‘जय किसान’ और ‘जय विज्ञान’ का मिश्रण थे, जो सदैव लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे.