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Exclusive: वृंदा करात का बड़ा बयान-वामपंथ के सामने हैं चुनौतियां, लेकिन मैं हताश नहीं हूं

प्रभात खबर संवाद में माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात ने सियासत व अपने जीवन से जुड़ी बातें साझा कीं. उन्होंने कहा कि वामपंथ के विचारों पर जबरदस्त हमला किया जा रहा है, लेकिन वे समझौता नहीं करेंगी.

माकपा की दिग्गज नेता, पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात झारखंड दौरे पर हैं. इस क्रम में वह बुधवार को प्रभात खबर संवाद कार्यक्रम में शामिल हुईं. वृंदा करात ने झारखंड की राजनीति, लोकसभा चुनाव, वाम एकता सहित कई सवालों का जवाब दिया. संवाद में श्रीमती करात की जिदंगी से जुड़े कई लम्हों और पुरानी यादों को समेटते सवाल भी थे. उन्होंने जीवन की कई रोचक बातें बखूबी बतायीं. वामपंथ की चुनौतियां भी बतायीं, तो विचारधारा के माेर्चे पर जीत को लेकर भी उम्मीदें भी जतायीं. उन्होंने कहा कि वामपंथ के विचारों पर जबरदस्त हमला है, लेकिन हम समझौता नहीं करेंगे. उनका दो टूक कहना है : मैं हताश नहीं हूं.

Q. भारतीय समाज में परंपरा की जड़ता जब आज भी व्याप्त है, तो 1967 में एक लड़की को घर से लंदन में काम करने की इजाजत, लिहाजा आपका पारिवारिक परिवेश काफी डेमोक्रेटिक रहा होगा, थोड़ा अपने परिवार के बारे में बतायें ?

मेरी मां की मृत्यु कम उम्र में सड़क दुर्घटना में हो गयी. तब हमलोग चार भाई-बहन अपने पिता के साथ रहते थे. हमारे बीच आपस में बहुत प्यार व नजदीकी का संबंध था. पिता ने हमेशा हमलोगों से कहा कि जो भी तुम लोग करना चाहते हो करो, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता (इकोनॉमिक इंडिपेंडेंस) अनिवार्य है. हालांकि मेरे पिता कॉरपोरेट के एक बड़े कंपनी में डॉयरेक्टर थे. इसलिए नौकरी की. लंदन में मैं एक रिश्तेदार के घर पर तीन और लड़कियों के साथ रहती थी. ऐसे में मेरे पिता भी संतुष्ट थे कि मेरी बेटी सुरक्षित जगह पर है. उसके बाद जब मैं सब छोड़ कर जिस रास्ते पर चली, तो उन्हें दुख तो हुआ. लेकिन बाद में एडजस्ट हो गये. कहा चलो ठीक है. उन्होंने कहा कि हमारी कंपनी में भी तुम्हारी यूनियन है, लेकिन यह बात ठीक है कि कम से कम झगड़ा लड़ाई के बाद जब समझौता कर लेते हैं, तो इधर से उधर नहीं होते हैं. इसका मतलब है कि तुम्हारे लीडर भ्रष्ट नहीं हैं.

Q. लगभग पांच-छह दशक से आप माकपा से जुड़ी हैं. वामपंथ का उतार-चढ़ाव देखा. आज की चुनावी राजनीति से वामपंथ आखिर क्यों जगह नहीं बना पाया?

निश्चित रूप से इसके पीछे कई कारण हैं. पार्टी में इसका बहुत गंभीरता से विशलेषण भी किया गया है. दोबारा रिवाइव करने के लिए रास्ता ढूंढे हैं और उस पर चल रहे हैं. लेकिन आप मेरी बात करें, तो मैं सच बताऊं तो मेरे दिल में हताशा जैसी कोई चीज नहीं है. क्योंकि मैं विश्वास करती हूं अपनी विचारधारा पर. मैं अटूट विश्वास करती हूं, जिस रास्ते में मैं चल रही हूं, वह रास्ता गलत नहीं है. मैं सच बताऊं किसी भी इंसान की जिंदगी में उदासी हो सकती है. कुछ दुख हो सकता है. लेकिन कभी रिगरेट या यह सोच कर कही और चले जायें. यह मेरी विचारधारा से अलग है. इसलिए में मैं हताश नहीं हूं. मुझे विश्वास है कि हमलोग आगे बढ़ेंगे.

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Q. वामपंथ के साथ क्या यह समस्या रही कि वह सामाजिक बदलाव की बात करता रहा, लेकिन खुद को नहीं बदल पाया ?

ऐसा नहीं है. परिवर्तन तो हुआ है. हमारे पार्टी में कभी भी इस चीज को बर्दाश्त नहीं जायेगा कि जाति प्रथा यहां चले. जेहाद, लव जेहाद जैसी चीज भी हमारी पार्टी में नहीं है. अगर हम स्वयं में परिवर्तन नहीं करेंगे तो बाकियों को क्या कहेंगे. पार्टी से जुड़नेवाली महिलाएं तो कहती हैं कामरेड हम तो बदल गये, लेकिन पति को कौन बदलेगा.

Q. वामपंथ के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है ?

मुझे लगता है कि दो तीन मुख्य कारण है. एक तो हमारी विचारधारा के ऊपर जबरदस्त हमला हो रहा है. जाति प्रथा व धर्म को लेकर जनता के बीच जाना. धार्मिक मामले में लोगों की भावनाएं जग जाती हैं. ऐसे में वाम विचारधारा को लोगों के बीच लेकर जाना गंभीर चुनौती है. क्योंकि इस सभी मुद्दों से हमारा कोई समझौता नहीं है. दूसरी बात यह है कि अब पहचान की पॉलिटिक्स चल रही है. हम जन पहचान की पक्षधर हैं.

Q. पोलित ब्यूरो की सदस्य और झारखंड की प्रभारी के रूप में आप झारखंड की राजनीति को कई सालों से देख रही हैं. झारखंड जैसे पिछड़े, आदिवासी बहुल इलाके में वामदलों का विस्तार नहीं हो पाया, क्यों?

देखिए, मैंने जो देखा है, तो हम झारखंड में बहुत पीछे नहीं हैं. आदिवासियों के मुद्दे को लेकर संघर्ष में वामदल व लाल झंडा के साथी का नजदीकी जुड़ाव है. सीएनटी-एसपीटी के खिलाफ संघर्ष में हमारे साथियों की जबरदस्त भूमिका रही. झारखंड में बहुत सारे नौजवान आदिवासी साथी वामदल के साथ जुड़ रहे हैं. इसमें महिलाएं भी शामिल हैं. अब हमारा आदिवासी कैडर बन रहा है.

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Q. नरेंद्र मोदी लगातार 10 वर्षों से देश चला रहे हैं. जनमत उनके साथ है. विरोधियों के लिए भाजपा बड़ी चुनौती बनी हुई है?

देखिए चुनौती तो है, इसमें दो बात नहीं है. प्रधानमंत्री जो ऐलान करते हैं 400 पार, 400 पार, इससे हम समझ रहे हैं कि यह बड़ी चुनौती है. लेकिन जब आंकड़ा आता है कि 10000 करोड़ के राजनीतिक चंदे (इलेक्टोरल बॉन्ड) में से 75% से 80% नरेंद्र मोदी की पार्टी के पास है, तो चुनौती तो है. जब देखते हैं कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग मोदी जी के साथ है. उनके समर्थन में हर बात की जा रही है, तब चुनौती तो है. जब पूरे इंडिया का कॉरपोरेट उनके पक्ष में एक साथ खड़े हैं, तो चुनौती तो है. मैं आपको बता रही हूं हमारी भी ग्राउंड रिपोर्ट है. झारखंड में हेमंत सोरेन सरकार के साथ जो कुछ भी हुआ, यह मोदी जी के खिलाफ जा रहा है. बिहार की राजनीति को लेकर एक शब्द है आया राम-गया राम. इसकी जगह नीतीश गया नीतीश आया जैसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है. इस सब का बोझ अंतत: नरेंद्र मोदी को ही उठाना पड़ेगा. इडी का इस्तेमाल कर आपने अजीत पवार और एकनाथ शिंदे जैसे नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया, लेकिन जनता को आप बरगला नहीं सकते.

Q. कांग्रेस आज जब अपने को ही बचाने के लिए संघर्ष कर रही है. ऐसे में वह इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कर पायेगी ?

यह काफी प्रासंगिक सवाल है, क्योंकि यह बात बिल्कुल सही है. हम लोगों की समझ यही है कि अगर कोई यह सोचे कि हमारे नेतृत्व में या उनके नेतृत्व में हम चलेंगे, तो फिर यह मामला गड़बड़ है. अब झारखंड में किसके नेतृत्व में आगे जायेंगे, झारखंड में तो जेएमएम है. कांग्रेस एक नेशनल पार्टी है, तो कोऑर्डिनेशन के लिए एक समझ जरूर थी. राज्यों से नीतीश जी और ऑल इंडिया लेवल पर खरगे जी प्रेसिडेंट हैं, तो दोनों की एक टीम बना कर हम आगे बढ़ रहे थे. किसी एक पार्टी के नेतृत्व में यह पूरा प्रयास चल रहा है, यह बात सही नहीं है. क्योंकि, अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग पॉलिटिकल पार्टियों का असर है. हर पार्टी और उनके नेताओं को भाजपा तोड़ने के लिए टारगेट कर रही है.

Q. झारखंड-बिहार में वाम एकता धरातल पर नहीं उतर पायी, वैचारिक संकट का मामला है या फिर नेतृत्व को लेकर पेच फंसता रहा ?

हमारी तो पूरी एकता चल रही है. हम लोग अभी 16 तारीख को एक साथ मिल कर किसान-मजदूर आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं. बिहार हो या झारखंड, जो भी वैचारिक नीतिगत मुद्दे हैं, वह एक साथ मिल कर ही तय हो रहे हैं. यह बात नहीं है, ऑल इंडिया लेवल और स्टेट लेवल पर हमारी एक वैचारिक सहमति है.

Q. आपने 1984 के सिख दंगों पर बनी फिल्म -अमु- में कोंकणा सेन शर्मा की मां की भूमिका निभाई, फिल्म में काम करने की कोई खास वजह, थोड़ा उस अनुभव को भी बतायें ?

यह फिल्म मेरी भांजी ने बनायी है, मेरी बड़ी बहन की बेटी सोनाली ने. सोनाली फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में काफी अच्छा कर रही है. फिल्म के लिए उनका बजट काफी छोटा था. उन्होंने इस लीड रोल के लिए कई एक्ट्रेसेस से बात की, लेकिन सभी ने स्क्रिप्ट की तो तारीफ की, लेकिन जो उन्होंने फीस बतायी, वह सोनाली के बजट में फिट नहीं हो रहा था. ऐसे में पैसे के अभाव में सोनाली ने मुझसे बात की, मैंने पहले तो इंकार किया, लेकिन सोनाली के दबाव में उसकी यह पहली फिल्म मुझे करनी पड़ी. मैंने काॅमरेड सुरजीत से बात की, उन्होंने कहा कि चलो एक प्रयोग ही कर लो, इस हिसाब से उस फिल्म में आने का मेरा कारण यह था.

Q. आपने राज्यों में राज्यपाल की भूमिका को देखते हुए कहा कि राज्यपाल के लिए सीधे चुनावी राजनीति में आना ज्यादा उचित होगा. आखिर इस तरह के बयान देने के क्या मायने हैं?

मैं केरल के संबंध में बोल रही थी. देखिए गवर्नर का मतलब एक संवैधानिक पद है, लेकिन आजकल देखा या यह जा रहा है कि जितने भी गवर्नर एप्वॉइंट हो रहे हैं वह एक विशेष राजनीतिक एजेंडा के तहत आ रहे हैं. जहां भी नॉन बीजेपी पार्टी की सरकार हैं, वहां अड़चन पैदा करने के साथ ही वह वहां सरकार के काम में बाधा डाल रहे हैं. आप बताइए कि एक गवर्नर असेंबली में तो तीन मिनट का भाषण नहीं देंगे और अगले दिन तीन घंटे का धरना सदन के बाहर दे रहे हैं, यह पॉलिटिक्स नहीं है, तो क्या है. उस संदर्भ में मैंने कहा था कि केरल का गवर्नर अच्छा यह होता कि वह डायरेक्ट पॉलिटक्सि में आये. मैंने यह कहा था कि पर्दे के पीछे आप पॉलिटिक्स क्यों कर रहे हैं, ऐसा कर आप गवर्नर पद की गरिमा क्यों गिरा रहे हैं.

Q. लेफ्ट की सरकार जब बंगाल या अन्य जगहों पर थी, उनके प्रमुख व्यक्ति, कोई नेता, मुख्यमंत्री या मंत्री जब सड़कों से गुजरते थे तो कोई ताम-झाम नहीं होता था. क्या यह सही है कि वेतन में जो मिलता है, तो वे पार्टी को देकर उसमें से अपने खर्चे के लिए एक हिस्सा ही अंशदान के तौर पर लेते हैं ?

आप बिल्कुल सही बात कर रहे हैं, जैसे मेरी जो मेंबर ऑफ पार्लियामेंट (एमपी) की पेंशन है, वह पार्टी की पेंशन है. आखिर पार्टी ने ही हम सभी को बनाया है. जो पार्टी मुझे देगी या जो कम्युनिस्ट के रूप में मेरा अधिकार है. कम्युनिस्ट के रूप में पार्टी का हर कॉमरेड अपनी पार्टी को एक लेवी देता है. लेवी का मतलब जो मेरी आमदनी है, उसका एक हिस्सा पार्टी को देते हैं. अब त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार को आप देख लीजिए वह कितने साल के मुख्यमंत्री रहे हैं. आप देखिए उनकी अपनी कोई संपत्ति आज भी नहीं है. आज भी जो पेंशन उन्हें मिल रही है, वह पार्टी की है. पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जो भी पेंशन उन्हें मिलती है, वह पार्टी को जाती है. बंगाल में जब लेफ्ट की सरकार थी, तब तो कभी सैलरी बढ़ायी नहीं गयी. अब तो शायद 200000 सैलरी हो गयी है.

इमरजेंसी के दौरान हुई थी पार्टी शादी, कामरेड सुरजीत से ली थी अनुमति

एक सवाल पर वृंदा करात ने कामरेड प्रकाश करात के साथ शादी के किस्से सुनाये. उनकी इमरजेंसी के दौरान पार्टी शादी हुई थी. इसके लिए कामरेड सुरजीत से अनुमति लेनी पड़ी थी. शादी के सवाल पर वृंदा ने कहा : देखिए काम के सिलसिले में तो हम पहले ही मिलते थे. लेकिन जैसे रिश्ते बनते हैं, उसी तरह काम के आधार पर रिश्ते बन गये. लेकिन मजे कि बात यह है कि जब हमलोगों ने तय किया कि शादी करेंगे, उस समय देश में इमरजेंसी लगी थी. हमारे दिमाग में आया कि कई साथी जेल में हैं और हम शादी करेंगे. उस वक्त हमारी उम्र 27-28 वर्ष रही होगी. ऐसे में प्रकाश कामरेड सुरजीत से मिले और उनसे शादी को लेकर सवाल पूछे. इस पर कामरेड सुरजीत हंसने लगे. कहा : यह इमरजेंसी कब तक चलेगी, यह पता नहीं है. अगर तुम लोग यह तय करोगे कि इमरजेंसी खत्म होने के बाद शादी करोगी तो यह बात भूल जाओ. तब प्रकाश अंडरग्राउंड थे. उनका नाम सुधीर था, मेरा नाम रीता था. लेकिन उस वक्त रजिस्ट्रेशन का कोई चक्कर नहीं था. तब हमलोगों ने पार्टी शादी की. इसका यह मतलब होता है कि हम दोनों ने एक शपथ लिखे. कामरेड सुरजीत, एके गोपालन, सुशीला गोपालन ने आशीर्वाद दिया. इसके बाद हमलोगों ने जयमाला की और हमारी शादी हो गयी.

थियेटर करने की इच्छा थी, एयर इंडिया की नौकरी छोड़ संघर्ष का रास्ता चुना

वृंदा करात ने लंदन में एयर इंडिया की नौकरी, फिर माकपा के कामरेड के रूप खेत-खलिहान, जंगल-पहाड़ की यात्रा के बारे में बताया. इस पूरे उन्होंने कहा : मैंने एक किताब लिखी है. 1975 से 1985 : उसका नाम है एन एडुकेशन फॉर रीता. अभी वह छपी है. बात तो सही है कि मेरा बैकग्राउंड पॉलिटिकल नहीं रहा. कम्यूनिस्ट पॉलिटिक्स की बात तो दूर की बात रही. हमारे परिवार में पिता पंजाब के थे और मां बंगाल की. पहले उनकी शादी ही बगावत जैसी थी. बंगाल में मेरी मां रुढ़िवादी परिवार से थी. ऐसे में मेरी परवरिश उदार नीतिवाली वातारण (लिबरल एटमॉस्फियर) में हुई. पॉलिटिक्स में मेरी कोई इच्छा नहीं थी. मैं थियेटर में जाने को इच्छुक थी. मैंने सोचा कि मैं लंदन जाकर ड्रामा स्कूल में थियेटर सीख कर इंडिया लौट कर थियेटर आर्टिस्ट बनूंगी. लेकिन लंदन में जाकर जब वहां का माहौल देखा तो वह अलग था. वियतनाम युद्ध में अमेरिका का पूरा हमला था. नौजवानों को जबरदस्ती सेना में भर्ती होना. इसका पूरा प्रभाव उस समय यूरोप और अमेरिका में था. मैं भी युद्ध विरोधी व वियतनाम में पक्ष में जुड़ गयी. फिर धीरे-धीरे मैं वहां से मार्क्सवाद पढ़ना शुरू किया. मैं इसकी आइडियोलॉजी से प्रभावित हुई. जब मैंने इसके बारे में अपने पिता को पत्र लिख कर बताया तो वे भी मुझे समझाने आ गये. कहा कि ऐसा मत करो. यहां तुम जरूर जलसे में जाओ, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करना तुम्हारा आदर्श नहीं होगा. उस वक्त मेरी उम्र 23 साल की थी.

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