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Christmas 2020 : पहली मसीही बननेवाली बालिका थी अनाथ, मिशनरियों ने की थी देखभाल, पढ़िए पूरी कहानी

Christmas 2020 : रांची (मनोज लकड़ा) : इस क्षेत्र में पहली मसीही बननेवाली एक अनाथ बालिका थी, जो किसी मुस्लिम राजमिस्त्री की बेटी थी. वह उन बच्चों में शामिल थी, जिन्हें मिशनरियों को देखभाल के लिए सौंपा गया था. उसका बपतिस्मा संस्कार 25 जुलाई 1846 को हुआ, जो मसीही बनने की एक धार्मिक प्रक्रिया है. वह बालिका मरणासन्न स्थिति में थी, इसलिए मिशनरियों ने उसका बपतिस्मा उस दिन से एक दिन पहले करा दिया, जिस दिन अन्य अनाथ बच्चों का बपतिस्मा होना था. बालिका को मारथा नाम दिया गया, पर दुर्भाग्यवश वह कुछ समय ही जीवित रह पायी. दूसरे दिन पांच अन्य अनाथ बच्चों का ​बपतिस्मा हुआ. उन्हें थॉमस, मेरी जेकब, मथियस व मारकुस नाम दिया गया. मिशनरी चाहते थे कि ये बच्चे बड़े होकर मसीही प्रचारक बने और स्थानीय लोगों को बाइबल की शिक्षा दी.

रांची (मनोज लकड़ा) : इस क्षेत्र में पहली मसीही बननेवाली एक अनाथ बालिका थी, जो किसी मुस्लिम राजमिस्त्री की बेटी थी. वह उन बच्चों में शामिल थी, जिन्हें मिशनरियों को देखभाल के लिए सौंपा गया था. उसका बपतिस्मा संस्कार 25 जुलाई 1846 को हुआ, जो मसीही बनने की एक धार्मिक प्रक्रिया है. वह बालिका मरणासन्न स्थिति में थी, इसलिए मिशनरियों ने उसका बपतिस्मा उस दिन से एक दिन पहले करा दिया, जिस दिन अन्य अनाथ बच्चों का बपतिस्मा होना था. बालिका को मारथा नाम दिया गया, पर दुर्भाग्यवश वह कुछ समय ही जीवित रह पायी. दूसरे दिन पांच अन्य अनाथ बच्चों का ​बपतिस्मा हुआ. उन्हें थॉमस, मेरी जेकब, मथियस व मारकुस नाम दिया गया. मिशनरी चाहते थे कि ये बच्चे बड़े होकर मसीही प्रचारक बने और स्थानीय लोगों को बाइबल की शिक्षा दी.

इसके बाद के कुछ साल मिशनरियों के लिए काफी कठिन रहे. कुशलमय शीतल की पुस्तक ‘छोटानागपुर की कलीसिया का वृत्तांत 1844-1890’ के अनुसार, जिस काम के लिए मिशनरी हजारों मील दूर से आये थे, उन्होंने वह काम शुरू कर दिया. वे आसपास के गांव और बस्तियों में प्रतिदिन बाइबल का संदेश सुनाने लगे. हाट-बाजारों में उपदेश देने लगे. कई बार उन जगहों से जहां जमींदार और दबंग जातियों के लोग थे, वहां उन पर पत्थर फेंके जाते थे और उन्हें भगाया जाता था.

लगभग पांच वर्षों तक किसी के मसीही नहीं बनने पर मिशनरी हतोत्साहित होने लगे. फादर गोस्सनर को पत्र लिखा कि हमारा काम व्यर्थ हो गया है. हमने बहुत परिश्रम कर खेत जोता, बीज बोया और प्रार्थना के साथ पांच वर्षों तक काम किया है. तब भी अब तक परिश्रम का फल नहीं मिला. इसलिए अनुमति दीजिए कि हम दूसरे देश जाकर वहां के लोगों को सुसमाचार सुनायें. इसपर फादर गोस्सनर ने उत्तर दिया क छोटानागपुर के लोगों के मन फिराने का समय आया है या नहीं, यह विचार करना यह ईश्वर का काम है. जब तक वहां के लोग ईश्वर का वचन अपने जीवन के लिए ग्रहण नहीं करते, तब तक उनके लिए सुसमाचार का प्रचार करते रहो. प्रार्थना करो और सुसमाचार सुनाने से थक मत जाओ. हम भी तुम लोगों के लिए प्रार्थना करेंगे. फादर गोस्सनर की आज्ञा मान कर मिशनरी रुक गये.

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कुशलमय शीतल ने आदिवासियों के पहली बार मसीही बनने की घटना का रोचक वर्णन किया है. उन्होंने बताया है कि 1850 की शुरुआत में चार उरांव वयस्क व्यक्तियों- हेथाकोटा के नवीन डोमन, चिताकुनी के केशो भगत व बंधु उरांव और करंदा के घूरन उरांव ने रांची मिशन घर आकर मिशनरियों से मुलाकात की. उनसे कहा कि उन्होंने यीशु के बारे एक पुस्तक में पढ़ा है. वे उसके बारे में जानना चाहते हैं कि वह कौन है? तब मिशनरियों ने उन्हें अपनी शाम की प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना सभा में आमंत्रित किया. आराधना के बाद उन व्यक्तियों ने कहा कि वहां जो संदेश सुनाया गया, वह पसंद तो आया, पर वे स्वयं यीशु को देखना चाहते हैं. मिशनरियों ने उन्हें समझाया कि यीशु को शारीरिक आंखों से देखना संभव नहीं है और उनके पास उनकी कोई प्रतिमा या चित्र भी नहीं है. इसके बावजूद वे लगातार वही मांग दुहराते रहे.

ऐसा संभव नहीं होने पर वे मिशनरियों को भला- बुरा कह कर लौट गये. एक सप्ताह बाद वे फिर लौटे और वहीं बात दोहरायी. इस बार मिशनरी उन्हें प्रार्थनालय में ले गये और उनके लिए यह प्रार्थना करने लगे कि वे सच्चाई को पहचानने के लिए ज्योति पायें. इस बार वे चारों व्यक्ति लोग कुछ अधिक शांतचित्त होकर लौटे. कुछ समय बाद वे फिर मिशनरियों के पास पहुंचे और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें अंग्रेजी प्रार्थना सभा में शामिल होने की अनुमति दी जाये. इसकी सहर्ष अनुमति मिली और वे चारों पूरे समय प्रार्थनस सभा में मौजूद रहे. फिर कहा कि अब वे संतुष्ट हैं और मसीही बनना चाहते हैं. कुशलमय शीतल ने इस बात की चर्चा भी की है कि वे चारों उरांव व्यक्ति कबीरपंथी थे और गुरु चतुर नाम का एक लोहार था.

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चर्च ऑफ इंग्लैंड के प्रथम मिशनरी के रूप में रेव्ह जेसी व्हीटली 29 जून 1869 को अपनी धर्मपत्नी और बेटे-बेटी के साथ रांची पहुंचे. 21 वर्षों तक इस कलीसिया को संगठित, विकसित और मजबूत करने के लिए भरपूर मेहनत की. एक दशक में इसके सदस्यों की संख्या 10600 हो गयी. वहीं, छोटानागपुर आने वाले प्रथम रोमन कैथोलिक मिशनरी, बेल्जियम के फादर ऑगस्ट स्टॉकमैन एसजे ​थे, जो मिदनापुर, पश्चिम बंगाल से बैलगाड़ी से 25 नवंबर 1868 को कुछ समय के लिए चाईबासा आये. इसके बाद 10 जुलाई 1869 को उस क्षेत्र में काम शुरू किया. उनके प्रयासों से आठ नवंबर 1873 को खूंटपानी के 24 वयस्क और चार बच्चों का बपतिस्मा संस्कार हुआ. यह संस्कार आर्चबिशप वाल्टर स्टेंस ने संपन्न कराया था. इसके साथ ही छोटानागपुर में ​कैथोलिक विश्वास की नींव पड़ी.

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नवीन डोमन, केशो भगत, बंधु उरांव व घूरन उरांव के नौ जून 1850 को मसीही बनने के बाद 26 अक्तूबर 1851 को दो मुंडा, बालालौंग के मंगता मुंडा (ख्रीस्तानंद) और बंधेया के साधो मुंडा (ईश्वरदत्त) बपतिस्मा लेकर मसीही बने. इससे मिशनरियों का उत्साह बढ़ा और वे एक गिरजाघर बनाने पर विचार करने लगे. 18 नवंबर 1851 को रांची मेन रोड के किनारे ख्रीस्त गिरजाघर की नींव रखी गयी. इसके साथ ही मिशनरी पूरे उत्साह से दूर-दूर के गांवों तक जाकर बाइबल की शिक्षा देने लगे. इस दौरान अनेक मुंडा व उरांव आदिवासी परिवारों ने मसीही धर्म अपनाया. लगभग चार वर्ष तक मिशनरियों के अथक परिश्रम और नये बने मसीहियों के श्रमदान से 13,000 रुपये में एक मजबूत और सुंदर गिरजाघर बन कर तैयार हुआ. 24 दिसंबर 1855 को रात इस गिरजाघर में पुण्यरात की पहली आराधना हुई. गिरजाघर के संस्कार के समय चार सौ से अधिक स्थानीय मसीही और मसीही धर्म के बारे के प्रति जिज्ञासा रखने वाले आठ सौ से अधिक लोग शामिल थे.

Posted By : Guru Swarup Mishra

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